किसी भी व्यापारी या संस्था के लिये यह संभव नहीं है कि वह सारे लेन-देन व्यवहारों को याद रख सके। इसलिये उन्हें याद रखने के लिये दैनिकी (जर्नल अथवा दैनंदिनी) तैयार किया जाता है।[1] इसमें लेनदेन होते ही प्रविष्टि कर ली जाती है। अतः प्रत्येक सौदों या व्यवहार को क्रमवार लिखने कि क्रिया को प्रारंभिक लेखा कहा जाता है। इसे 'रोजनामचा' भी कहते हैं। इसमें सुविधा के लिये कुछ सहायक पुस्तके भी रखी जाती है। जैसे क्रय पुस्तक विक्रय पुस्तक, रोकड़ पुस्तक तथा मुख्य जर्नल आदि।

उदाहरण के लिए - नगर पंचायत में दिनांक 15.4.2008 को कार्यालय के लिय 1000.00 रूपये नगद देकर फर्नीचर खरीदा। यह एक सौदा है जिसका जर्नल बुक में प्रारंभिक लेखा निम्नानुसार होगा -

दिंनांक विवरण डेबिट राशि क्रेडिट राशि
15.04.08 फर्नीचर खाता डेबिट
नगद खातें से
(कार्यालय हेतु फर्नीचर खरीदा)
1000.00
1000.00

चूंकि जर्नल लेखे तैयार करने की प्रारंभिक पुस्तक है, इसलिये इसे महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। आजकल सीधे लेजर एवं सहायक बहियाँ तैयार करना प्रचलन में होने से अभिलेख का महत्व व्यापारिक प्रतिष्ठानों में अब धीरे-धीरे कम हो रहा है। स्थानीय निकायों में यदि द्वि प्रविष्टि लेखा अपनाई जाती है तो उसमें जर्नल का बहुत महत्व रहेगा क्योंकि वे सभी व्यवहार जिसमें मुद्रा का वास्तविक लेनदेन नहीं हुआ है। समायोजन प्रविष्टियां आदि जर्नल के माध्यम से ही लेखाबद्ध की जायेगी।

  1. गोपाल राय (२००६). उपन्यास की संरचना. राजकमल प्रकाशन, दिल्ली. पृ॰ 315. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 8126710861. मूल से 19 अप्रैल 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 18 अप्रैल 2014.