दो आँखें बारह हाथ (1957 फ़िल्म)
दो आँखें बारह हाथ 1957 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है।
दो आँखें बारह हाथ | |
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चित्र:दो आँखें बारह हाथ.jpg दो आँखें बारह हाथ का पोस्टर | |
निर्देशक | वी शांताराम |
अभिनेता |
वी शांताराम, संध्या |
प्रदर्शन तिथि |
1957 |
देश | भारत |
भाषा | हिन्दी |
संक्षेप
संपादित करेंहिंदी फिल्म निर्माण के सन्दर्भ में जिन फिल्मकारों का नाम शिद्दत से याद किया जाता है, उनमें एक हैं, वी.शांताराम, पूरा नाम, शांताराम राजाराम वणकुद्रे (१९०१-१९९०). मराठी और हिंदी फिल्मों की लम्बी कतार में उन्होंने सन १९५७ में एक फिल्म बनाई 'दो ऑंखें बारह हाथ' जो हिंदी फिल्म के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित हो गयी.
पुणे के पास स्थित औंध रियासत में वहां के प्रगतिशील शासक ने एक आयरिश मनोवैज्ञानिक को जेल में निरुद्ध खतरनाक अपराधियों को खुली जेल में रखकर उन पर प्रयोग करने की सुविधा दी थी. वी.शांताराम ने उसी घटना को अपनी फिल्म 'दो ऑंखें बारह हाथ' का आधार बनाकर पटकथा तैयार की और इस फिल्म का निर्माण किया. मुख्य भूमिका में वे स्वयं थे. उनकी पत्नी संध्या, फिल्म की स्त्री-पात्र के रूप में थी.
बीसवीं शताब्दी में यह विचार विकसित होने लगा कि जेल को सजा देने वाली जगह के बदले उसे सुधारगृह बनाया जाए ताकि अपराधी को जेल से छूटने के बाद पुनः अपराधी बनने से रोका जा सके और सजा पूरी होने के बाद वह सम्मान से अपना शेष जीवन व्यतीत कर सके. समाजशास्त्रियों की इस पहल को विश्व भर सरकारों ने समझा और जेलों को सुधारगृह के रूप में परिवर्तित करने की सार्थक कोशिश की है. यह कोशिश अभी भी जारी है लेकिन प्रयोग के स्तर पर है. इस प्रयास की सफलता और असफलता, दोनों किस्से सामने आए हैं. वे मुजरिम जो सुधरना कहते थे, सुधरे और आत्मनिर्भर बने लेकिन नकारात्मक सोच वाले अपराधियों ने जेल को भी अपना अपराधिक कर्मभूमि बनाया और अपनी शक्ति का संवर्धन किया. फिल्म 'दो आँखें बारह हाथ' उस आशावाद की कहानी है जो बुराई में अच्छाई खोजती है और यह मानकर चलती है कि मनुष्य बुरा नहीं होता, उसका कर्म बुरा होता है. हमें अपराधी से नहीं, अपराध से घृणा करनी चाहिए.
फिल्म की शुरुआत एक जेल के दृश्य से होती है. जेल का सुपरिंटेंडेंट जालिम है, कैदियों से अमानवीय व्यवहार करता है. वहां का जेलर आदिनाथ सरल और क्षमाशील व्यक्ति है. जेलर ने उच्चाधिकारियों से छः सजायाफ्ता अपराधियों को जेल से छोड़ने की अनुमति माँगी है ताकि वह उन कैदियों को खुले में रखकर उनका हृदय परिवर्तन करके उन्हें अच्छा नागरिक बनाया जा सके. इस प्रयोग के लिए उन्हें जेलर से अनुमति मिल जाती है और हत्या के आरोप में सज़ा काट रहे छः दुर्दांत अपराधियों को वह अपने साथ ऐसी जगह में ले जाता है जहाँ उनके लिए जेल नहीं, खुला वातावरण मिलता है. जेलर आदिनाथ उन्हें लगातार प्रयासों से व्यवस्थित करता है, उनके कुत्सित विचारों से उन्हें दूर करता है. कई ऐसी घटनाएं होती हैं जब यह प्रयोग असफल होता दिखता है लेकिन उन अपराधियों को जेलर की दो अदृश्य आंखें हर बार गलतियां करने से रोकती हैं. कथानक में कई उतार-चढ़ाव आते हैं, अपराधी चूकते भी हैं, सँभलते भी हैं. अंत उन कैदियों की सांड के आक्रमण से रक्षा करते हुए जेलर आदिनाथ के प्राण चले जाते है. आदिनाथ के त्याग से प्रभावित होकर सभी अपराधियों का हृदय परिवर्तित हो जाता है और वे सभी आदर्श नागरिक की तरह जीवन व्यतीत करने का संकल्प लेते हैं.
चरित्र
संपादित करेंवी.शांताराम का अभिनय शानदार है, साथ में उनका निर्देशन भी. जेल में फिल्माए गए दृश्य अत्यंत प्रभावोत्पादक हैं. आदिनाथ का जेल में प्रवेश करते समय जेल के दरवाजे पर लटके ताले का झूलते रह जाना, प्रतीकात्मक रूप से बहुत कुछ कह जाता है. संध्या को कथानक में 'फिलर' के रूप में इस्तेमाल किया गया है जो गीत और संगीत पक्ष की आवश्यकता को बखूबी पूरा करता है. भरत व्यास के भावपूर्ण गीत और वसंत देसाई का मधुर संगीत इस फिल्म का मज़बूत पक्ष है. 'ऐ मालिक तेरे बन्दे हम' के अतिरिक्त लता मंगेशकर का गाया गीत 'सैंया झूठों का बड़ा सरताज निकला' हिंदी फिल्म के सर्वाधिक कर्णप्रिय गीतों में से एक है. फिल्म का गीत 'ऐ मालिक तेरे बन्दे हम, ऐसे हों हमारे करम, नेकी पर चलें और बड़ी से लड़ें ताकि हंसते हुए निकले दम' आज भी प्रत्येक संस्कार-केंद्र में उच्च स्वर में गाया जाता है और भलाई के रास्ते पर चलने के लिए आज भी सबको प्रेरित करता है. लता मंगेशकर की गाई लोरी 'मैं गाऊं तू चुप हो जा, मैं जागूं रे तू सो जा' इतनी मधुर है कि मन मोह लेती है. इन गीतों के अतिरिक्त 'तक तक धुम धुम' और 'उमड़ घुमड़ कर आई रे घटा' भी कर्णप्रिय हैं और गंभीर कथानक को रसमय करने में मदद करते है.
फिल्म की शानदार फोटोग्राफी जी.बालकृष्ण ने की है. पूरी फिल्म में केवल तीन लोकेशन हैं, जेल, खुली जेल और सब्जी बाजार. इन तीनों स्थलों को कैमरे की गहरी नज़र से देखकर हम तक फिल्म के सन्देश पहुँचाने की भरपूर कोशिश की है. फिल्म में वसंत देसाई का पार्श्वसंगीत असरदार नहीं है लेकिन सभी गानों के संगीत में मधुरता है.
मुख्य कलाकार
संपादित करें- वी शांताराम - आदिनाथ
- संध्या - चंपा
दल
संपादित करें- निर्देशक : वी शांताराम
- निर्माता : वी शांताराम
- संपादक : चिंतामणी बोरकर
- पताका : राजकमल कलामंदिर
- कथा : गजानन दिगंबर माडगूलकर
- पटकथा : गजानन दिगंबर माडगूलकर
- संवाद : गजानन दिगंबर माडगूलकर
- छायांकन : जी बालकृष्ण, कीर्तिवान
- कला निर्देशक : बाबुराव जाधव, पी एस काळे
- रूप सज्जा : बाबा वरदम
- ध्वनिमुद्रण : ए के परमार
संगीत
संपादित करेंसभी गीत भरत व्यास द्वारा लिखित; सारा संगीत वसंत देसाई द्वारा रचित।
क्र॰ | शीर्षक | गायक | अवधि |
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1. | "ऐ मालिक तेरे बंदे हम" | लता मंगेशकर | |
2. | "तक तक धुम धुम" | लता मंगेशकर | |
3. | "मैं गाऊं तू चुप हो जा" | लता मंगेशकर | |
4. | "सईयां झूठों का बडा सरताज निकला" | लता मंगेशकर | |
5. | "हो उमड घुमडकर आई रे घटा" | मन्ना डे, लता मंगेशकर |
दो ऑंखें बारह हाथ फ़िल्म में तबला किसने बजाया था
संपादित करेंपरिणाम
संपादित करेंबौक्स ऑफिस
संपादित करेंसमीक्षाएँ
संपादित करेंनामांकन और पुरस्कार
संपादित करेंइसे 1959 मे Golden Globe Award से नवाजा गया|