गणित में द्विपद प्रमेय एक महत्वपूर्ण बीजगणितीय सूत्र है जो x + y प्रकार के द्विपद के किसी धन पूर्णांक घातांक का मान x एवं y के nवें घात के बहुपद के रूप में प्रदान करता है। अपने सामान्यीकृत (जनरलाइज्ड) रूप में द्विपद प्रमेय की गणना गणित के १०० महानतम प्रमेयों में होती है।

न्यूटन का द्विपद प्रमेय

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वस्तुतः द्विपद गुणांकों का मान पॉस्कल त्रिभुज के अवयवों के बराबर ही होता है।

अपने सरलतम रूप में द्विपद प्रमेय इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है:

 

जहाँ x और y कोई भी वास्तविक संख्या या समिश्र संख्या हैं तथा n शून्य या कोई धनात्मक पूर्णांक है। उपरोक्त समीकरण (१) में आने वाले द्विपद गुणांक, n के फैक्टोरिअल के रूप में व्यक्त किये जा सकते हैं।

 

उदाहरण के लिये, 2 ≤ n ≤ 5 के लिये द्विपद प्रमेय का स्वरूप इस प्रकार है:

 
 
 
 

द्विपद प्रमेय का सामान्य रूप (generalised form)

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द्विपद प्रमेय का उपयोग किसी भी द्विपद योग   का  -वाँ घात निकालने के लिये कर सकते हैं जहाँ   वास्तविक संख्याएँ हैं,   और  :

 

द्विपद प्रमेय का इतिहास अत्यंत मनोरंजक है। प्रायः ऐसा माना जाता है कि द्विपद गुणांको को त्रिभुज के रूप में विन्यस्त करने का काम सबसे पहले पॉस्कल ने किया था। किन्तु तीसरी शताब्दी के भारतीय गणितज्ञ पिंगल ने द्विपद गुणांको का उपयोग छन्दःसूत्रम् में बड़ी सुन्दरता से किया है। उन्होने इसे मेरु प्रस्तार नाम दिया था।[1] १०वीं शताब्दी में हलायुध ने छन्दःसूत्र का भाष्य लिखा जिसमें उन्होने संयोजन समस्या (combinatorial problem) के हल के लिये वही विधि अपनायी है जिसे आजकल "पास्कल त्रिकोण" कहा जाता है।[2]

इस बात के भी प्रमाण हैं कि ६ठी शताब्दी तक भारतीय गणितज्ञ द्विपद का घन (तीन घात) निकालने का सूत्र जानते थे। [3][4]

६ठी शताब्दी तक भारतीय गणितज्ञ द्विपद गुणांको को भागफल के रूप में   व्यक्त करना सम्भवतः जानते थे।[5] और इसका स्पष्ट उल्लेख भास्कराचार्य द्वारा १२वीं शताब्दी में रचित लीलावती ग्रन्थ में मिलता है।[6]

जैसा ऊपर कहा गया है, धन पूर्णसंख्यात्मक घात के लिये द्विपद प्रमेय न्यूटन से पहले भी ज्ञात था, किंतु ऋण और भिन्नात्मक घातों के लिए न्यूटन ने इसकी खोज सन् १६६५ में की और इसकी व्याख्या लन्दन की रॉयल सोसायटी के सेक्रेटरी को लिखे १६७६ ई. के दो पत्रों में की। कुछ व्यक्तियों की धारणा है कि यह सूत्र न्यूटन की कब्र पर खुदा है, किंतु यह असत्य है। इस प्रमेय की दृढ़ उपपत्ति १८२६ ई. में आबेल ने दी और उन दशाओं में भी इसकी स्थापना की जब घात और द्विपद के पद सम्मिश्र (कम्प्लेक्स) होते हैं।

  1. "Binomial theorem in Ancient India" (PDF). मूल (PDF) से 28 नवंबर 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 1 मई 2017.
  2. Jean-Claude Martzloff; S.S. Wilson; J. Gernet; J. Dhombres (1987). A history of Chinese mathematics. Springer.
  3. Weisstein, Eric W. "Binomial Theorem". Wolfram MathWorld.
  4. Coolidge, J. L. (1949). "The Story of the Binomial Theorem". The American Mathematical Monthly. 56 (3): 147–157. doi:10.2307/2305028. JSTOR 2305028.
  5. Biggs, N. L. (1979). "The roots of combinatorics". Historia Math. 6 (2): 109–136. doi:10.1016/0315-0860(79)90074-0
  6. Biggs, N. L. (1979). "The roots of combinatorics". Historia Math. 6 (2): 109–136. doi:10.1016/0315-0860(79)90074-0
  • Amulya Kumar Bag. Binomial Theorem in Ancient India. Indian J.History Sci.,1:68-74,1966.

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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