धोखा, छल, बेईमानी, झांसा, डराना और चाल सच बताने के ऐसे तरीके हैं जो पूर्णतया सच नहीं होते। यह आधे सच और आधे झूठ का मिश्रण होते हैं। धोखे में ढोंग, झूठ प्रचार और हाथ की सफाई शामिल हो सकती है। इसके लिए ध्यान भंग, छल या छिपाव का प्रयोग भी किया जा सकता है। ऐसे में किसी को भी धोखा दिया जा सकता है।

धोखा एक प्रमुख संबंधपरक उल्लंघन है, जो संबंधित भागीदारों में अक्सर विश्वासघात और अविश्वास की भावनाओं को जन्म देता है। धोखा संबंधपरक नियमों का उल्लंघन करता है और इसे उम्मीदों का नकारात्मक उल्लंघन माना जाता है। ज्यादातर लोग दोस्तों, संबंधित भागीदारों और यहां तक कि अजनबियों के भी हमेशा सच्चे होने की उम्मीद करते हैं। परन्तु धोखे बाज लोगों की अधिकांश बातचीत झूठी होती है वह दूसरों से विश्वसनीय जानकारी हासिल करने के लिए या उन्हें नुकसान पहुँचाने के मकसद से एक छलआवरण तैयार करते हैं। किसी भी दिन, यकीनन अधिकतर लोग या तो किसी को धोखा देंते हैं या किसी से धोखा खाते हैं। रूमानी और संबंधित भागीदारों के बीच उल्लेखनीय हद तक धोखा होता है।[1]

धोखे में संचार या चूक के विभिन्न प्रकार शामिल हैं, जिनसे पूरे सच को बिगाड़ा जाता है या उसे छिपाने की कोशिश की जाती है। धोखा अपने आप में मौखिक/या अनकहे संदेश को जानबूझकर इस तरह से प्रबंधित किये जाने का तरीका है जिसके बारे में प्रेषक जानता है कि संदेश पाने वाला उसे सच मान लेगा जो कि झूठ है। धोखे के सन्दर्भ में इरादा संकटमय होता है। इरादे से अनजाने में की गयी गलती और धोखे में अंतर किया जा सकता है। पारस्परिक धोखा सिद्धांत आपसी संबंध के बीच धोखे का पता लगाती है। संचार विषय के जरिए भ्रामक आदान-प्रदान के दौरान प्रेषक एवं अभिग्राही के ज्ञान और व्यवहार का पता लगाया जा सकता है।

धोखे के पांच प्राथमिक प्रकार हैं:

  1. झूठ: ऐसी सूचनाएं बनाना या ऐसी जानकारी देना जो सच के विपरीत हो या उससे एकदम अलग हो.
  2. संदिग्ध जानकारी देना : जानबूझकर अनिश्चित, संदिग्ध और अन्तर्विरोधी बयान देना.
  3. छिपाना : दिये गये संदर्भ में आवश्यक जानकारियों को छिपाना या ऐसा व्यवहार करना जिससे प्रासंगिक सूचना को छिपाया जा सके.
  4. अतिशयोक्ति : सच को किसी स्तर तक अतिशयोक्ति बनाना या खींचना.
  5. कम बयानी : सच के पहलुओं को कम करके बताना या आंकना.[1]

मंशा/उद्देश्य

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करीबी रिश्तों में धोखेबाज़ी की तीन मुख्य मंशाएं हो सकती हैं।

  • साथी केंद्रित उद्देश्य : साथी को चोट पहुंचाने से बचने के लिए, साथी को उसका/उसकी आत्म सम्मान बनाये रखने में मदद करने के लिए, साथी को चिंता से बचाने के लिए, या किसी तीसरे के साथ साथी के संबंधों को बचाने के लिए. कभी-कभी सामाजिक तौर पर साथी केंद्रित धोखे को विनम्र और संबंधों के लिए फायदेमंद होने के रूप में देखा जा सकता है।
  • आत्म-केंद्रित उद्देश्य : अपने आत्म-छवि को बढ़ाने या बचाने के लिए अपने को क्रोध, शर्मिंदगी या आलोचना से बचाने के लिए ढाल के तौर पर धोखे का इस्तेमाल करना. आत्म-केंद्रित धोखे को आमतौर पर साथी केंद्रित धोखे से अधिक गंभीर अपराध माना जाता है क्योंकि धोखेबाज रिश्तों की भलाई के लिए नहीं बल्कि खुद अपने लिए ऐसा ढोंग करता है।
  • रिश्तों पर केंद्रित उद्देश्य : संघर्ष या संबंधित सदमे से बचने के लिए संबंधित रिश्ते को सुरक्षित रखने के लिए धोखे का इस्तेमाल करना. संबंधित तौर पर जानबूझ कर धोखे का प्रयोग किसी रिश्ते के लिए फायदेमंद भी हो सकता है और कभी मसलों के उलझ जाने से काफी नुकसानदायक भी साबित हो सकता है।[1]

संबंधित साथियों में धोखे का पता लगाना बहुत मुश्किल है जब तक कि एक साथी ज़बरदस्त झूठ न कह दे या स्पष्ट तौर पर झूठ बोलकर चीज़ों को उलझा न दे, जिसे दूसरा साथी सच जानता हो. हालांकि लंबे समय तक साथी को धोखा देना मुश्किल है, संबंधित जोड़ों में रोजमर्रा की बातचीत में ही संदेह पैदा होता है।[1] धोखे का पता लगाना मुश्किल है क्योंकि धोखे का पता लगाने के लिए कोई विश्वसनीय संकेतक नहीं हैं। हालांकि, धोखेबाज़ पर अक्सर महत्वपूर्ण संज्ञानात्मक बोझ रहता है। पुरुष या स्त्री विशेष को पिछले बयानों को याद रखना चाहिए ताकि उसकी कहानी लगातार विश्वसनीय बनी रहे. परिणामस्वरुप, धोखेबाज अक्सर शाब्दिक और अशाब्दिक तौर पर महत्वपूर्ण जानकारियां दे देते हैं।

धोखे का पता लगाना बहुत ही जटिल है जो कि संदेशों के विनिमय के संदर्भ में संज्ञानात्मक प्रक्रिया पर आधारित है। अंतर्वैयक्तिक धोखे के सिद्धांत का मानना है कि अंतर्वैयक्तिक धोखा एक प्रेषक, जो सच से अलग करने के लिए जानकारी में हेरफेर करता है और एक अभिग्राही, जो संदेश की वैधता स्थापित करने का प्रयास करता है, के बीच चलने वाली पारस्परिक प्रभाव की एक गतिशील, पुनरावृत्तीय प्रक्रिया है।[2] एक धोखेबाज के कार्य संदेश के अभिग्राही के कार्यों से परस्पर संबद्ध होते हैं। इस विनिमय के दौरान ही धोखेबाज़ धोखे के बारे में शाब्दिक तथा अशाब्दिक संप्रेषण जानकारी का खुलासा करेगा.[3] कुछ शोधों में पाया गया है कि भ्रामक संचार के साथ कुछ संकेत सहसंबद्ध हो सकते हैं लेकिन विद्वानों ने अक्सर विश्वसनीय संकेतक के रूप में इन संकेतों की प्रभावशीलता के बारे में असहमति जताई है। विख्यात धोखा (डिसेप्सन) विद्वान अल्डर्ट व्रिज ने यह भी कहा है कि ऐसा कोई अशाब्दिक व्यवहार नहीं है जो विशिष्ट रूप से धोखे के साथ जुड़ा है।[4] जैसा कि पहले कहा गया है, धोखे का कोई विशिष्ट व्यवहार सूचक मौजूद नहीं है। हालांकि, कुछ अशाब्दिक व्यवहार ऐसे हैं जिन्हें धोखे के साथ सहसंबद्ध पाया गया है। व्रिज ने पाया कि एक अकेले संकेत के जांच की अपेक्षा इन संकेतों के एक समूह का परीक्षण धोखे का अधिक विश्वसनीय सूचक था।[4]

एक साथी को धोखा देने के महत्व के बारे में धारणा के संदर्भ में, आम तौर पर धोखे के बारे में महिलाओं और पुरुषों के विश्वास एक दूसरे से बिलकुल अलग होते हैं। पुरुषों की तुलना में महिलाएं धोखे को एक बहुत अधिक गम्भीर संबंधपरक अपराध के रूप में देखती हैं। इसके अतिरिक्त, सामान्य रूप से पुरुषों की तुलना में महिलाएं झूठ बोलने को एक कम स्वीकार्य व्यवहार का दर्जा देती हैं। अंततः महिलायें झूठ बोलने के किसी भी कार्य को बहुत अधिक महत्वपूर्ण (चाहे विषय कुछ भी हो) मानती हैं और झूठ के प्रति अधिक नकारात्मक भावुक प्रतिक्रियाएं दर्शाती हैं। [उद्धरण चाहिए]

सच का पूर्वाग्रह

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सच का पूर्वाग्रह संबंधित जोड़े के धोखे का पता लगाने की क्षमता को उल्लेखनीय रूप से विकृत कर देता है। धोखे के सन्दर्भ में, सच का पूर्वाग्रह अधिक संदेशों को, उनकी वास्तविक सत्यता से परे, झूठ की अपेक्षा सच मानने की प्रवृत्ति दर्शाता है।[5] संदेश की सच्चाई को पहचानने के समय, सच्चाई का पूर्वाग्रह एक वास्तविक सत्य के आधार दर से सम्बंधित सत्य की वास्तविक संख्या के एक अधिमूल्यांकन में योगदान करता है। सच का पूर्वाग्रह करीबी रिश्तों में विशेष रूप से मजबूत होता है। लोग दूसरों के संचार पर अत्यधिक भरोसा करने के इच्छुक रहते हैं और जब तक पुनर्मूल्यांकन के लिए वाध्य कर देने वाले, व्यवहार के एक महत्वपूर्ण विचलन का सामना न करना पड़े वे अपने साथी से सवाल नहीं करना चाहते हैं। किसी परिचित व्यक्ति या सबंधित साथी से मिले धोखे का पता लगाते समय साथी के बारे में ज्ञात जानकारी की एक बड़ी मात्रा को ध्यान में रखकर ऐसा प्रयास किया जाता है यह जानकारी अनिवार्य रूप से अभिग्राहक के धोखे का पता लगाने की संज्ञानात्मक और धोखे के किसी संकेत को पहचानने की क्षमता को दबा देती है। अजनबियों में धोखे का पता लगाना आसान होता है, क्योंकि दिमाग में उस व्यक्ति के बारे में कम जानकारी लायी जाती है।[6]

 
यह एक छोटा कंगारू का अनुकूलक रंगाई है जो पर्यावरण के साथ मिश्रण करने का अनुमति देता है

भौतिक वस्तु का छलावरण अक्सर उस वस्तु की दृश्य सीमा को तोड़ने पर काम करता है। इसमें आमतौर पर छलावरण वस्तु को ऐसे ही रंगों से रंगा जाता है जैसी कि वह पृष्ठभूमि हो जिससे वस्तु को छिपाया जा सके. धोखा देने वाले आधे सच के मामले में कुछ सत्यों को 'छिपा' कर छलावरण को सिद्ध किया जाता है।

उदाहरण:

  • दृश्य धोखे के रूप में छलावरण सैन्य छलावे का एक आवश्यक हिस्सा है।

छद्मवेश उपस्थिति

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छद्मवेश इस प्रकार की उपस्थिति है जो कोई और या कुछ और होने का प्रभाव पैदा करने के लिए की जाती है, किसी प्रसिद्ध व्यक्ति के लिए ऐसा करने को छद्म वेश या भेस बदलना भी कहा जाता है

उदाहरण:

  • पहचाने जाने से अपने बचाव के लिए काल्पनिक शर्लक होम्स अक्सर किसी अन्य व्यक्ति का छद्मवेश धारण करता था।

एक अधिक सारगर्भित अर्थ में, एक अलोकप्रिय प्रेरणा या उस प्रस्ताव के साथ जुड़े प्रभाव को छिपाने के लिए किसी विशेष प्रस्ताव की प्रकृति को छिपाने की गतिविधियों के लिए 'छद्मवेश' शब्द का प्रयोग किया जा सकता है। यह राजनीतिक झुकाव या प्रचार का एक रूप होता है। इन्हें भी देखें: प्रचार उत्पादन के तकनीकों के भीतर युक्तिकरण और हस्तांतरण .

उदाहरण:

  • एक युद्ध के कार्य का एक "शांति" मिशन के रूप में चित्रण.

उदाहरण:

  • शिकारियों से बचने में सहायता के लिए अधिकांश ऑक्टोपसों में बड़े बादल के रूप में काली स्याही छोड़ने का रक्षात्मक तंत्र.

अनुकरण में झूठी सूचना का प्रदर्शन शामिल है। अनुकरण की तीन तकनीकें हैं: नकल और (किसी अन्य नमूने की नक़ल करना), जालसाजी (एक नया प्रतिमान बनाना) और विकर्षण (एक वैकल्पिक नमूने की पेशकश)

जैविक जगत में, नकल के अंतर्गत किसी अन्य शारीरिक गठन या एक प्राकृतिक वस्तु से समानता द्वारा अनजाने में धोखा शामिल है। उदाहरण के लिए पशु दृश्य, श्रवण या अन्य उपायों से शिकारियों या शिकार को धोखा दे सकते हैं।

छलरचना/जालसाजी

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कुछ ऐसा बनाना जो वास्तव में वह नहीं है जैसा वह प्रतीत होता है। उदाहरण के लिए, द्वितीय विश्व युद्ध में मित्र राष्ट्रों द्वारा जर्मनॉ के टोह लेने वाले विमानों को मूर्ख बनाने के लिए गत्ते से बने खोखले टैंकों का प्रयोग आम था, जो उन्हें किसी एक क्षेत्र में एक बड़ी तोपखाना इकाई के गतिशील होने का भ्रम उत्पन्न कराता था जबकि असली टंक कहीं और अच्छी तरह से छिपाए हुए होते थे तथा "डमी" टैंकों से दूर किसी अन्य स्थान पर सक्रिय होते थे।

विकर्षण/ध्यान का खिंचाव

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किसी और अधिक आकर्षक वस्तु का प्रलोभन के तौर पर प्रयोग कर किसी के ध्यान को सच से दूर ले जाकर छिपाई हुई वस्तु से दूर हटाना. उदाहरण के लिए, एक सुरक्षा कंपनी ने सार्वजनिक रूप से घोषणा की कि वह एक मार्ग से सोने का एक बड़ा पोत लदान (शिपमेंट) ले जाएगी, जबकि वास्तविकता में वह एक अलग रास्ता अपनाती है।

सामाजिक अनुसंधान में

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सामाजिक शोध, विशेष रूप से मनोविज्ञान की कुछ कार्य प्रणालियों में धोखा शामिल है। शोधकर्ता प्रयोग की सही प्रकृति के बारे में प्रतिभागियों को जानबूझ कर गुमराह करते या गलत जानकारी देते हैं।

1963 में स्टेनली मिल्ग्राम द्वारा आयोजित एक प्रयोग में शोधकर्ताओं ने प्रतिभागियों से कहा कि वे स्मृति और अभ्यास के एक वैज्ञानिक अध्ययन में भाग लेंगे. हकीकत में अध्ययन प्रतिभागियों के आदेशों का पालन करने की इच्छा पर ध्यान दे रहा था, यहां तक कि, तब भी जब एक व्यक्ति दूसरे को कष्ट पहुंचा रहा हो.

धोखे का प्रयोग अनुसंधान नैतिकता में कई समस्याएं उठाता है और इसे अमेरिकी साइकोलॉजिकल एसोसिएशन जैसे पेशेवर निकायों द्वारा सख्ती से विनियमित किया जाता है।

मनोवैज्ञानिक अनुसंधान में

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मनोवैज्ञानिक अनुसंधान में अक्सर अपने वास्तविक उद्देश्य के रूप में प्रतिभागियों (पूर्व शब्द: विषयों) को धोखा देने की जरूरत पड़ती है। इस तरह के धोखे के लिए तर्क यह है कि मनुष्य इस बात के प्रति संवेदनशील होते हैं कि वे दूसरों के सामने (और खुद के भी) कैसे प्रकट होते हैं और यह आत्म-चेतना इसमें हस्तक्षेप कर सकती है या इसे बिगाड़ सकती है कि वे एक शोध के संदर्भ के बाहर वास्तव में कैसे व्यवहार करते हैं (जहाँ वे यह महसूस नहीं करते कि उनके ऊपर निगरानी की जा रही है). उदाहरण के लिए, अगर एक मनोवैज्ञानिक उन परिस्थितियों को जानने का इच्छुक है, जिसके तहत छात्र परीक्षाओं में नक़ल करते हैं तो सीधे यह पूछना,""आप कितनी बार नक़ल करते हैं?" तो परिणाम "सामाजिक दृष्टि से वांछनीय" उत्तरों का एक उच्च प्रतिशत हो सकता है और अनुसंधानकर्ता किसी भी हालत में इन प्रतिक्रियाओं की सटीकता को सत्यापित करने में असमर्थ हो सकता है। शोधकर्ताओं को "विषय से पूछने" की इस प्रक्रिया से वह पता चलता है जो छात्र "कहते" हैं कि वे करते हैं, लेकिन आवश्यक रूप से यह नहीं कि वे वास्तव में क्या करते हैं। सामान्य तौर पर, तब, जब यह बस सीधे लोगों से यह पूछना कि वे जो करते हैं, वह क्यों या कितनी बार करते हैं अव्यावहारिक या सरल हो तो शोधकर्ता अपने प्रतिभागियों को उनकी रूचि के वास्तविक व्यवहार से विचलित करने के लिए धोखे का उपयोग करने की ओर मुड़ जाते हैं। तो, उदाहरण के लिए, नक़ल के एक अध्ययन में प्रतिभागियों को यह बताया जाता है की अध्ययन यह जानने के लिए है कि वे कितने सहज ज्ञान युक्त हैं और इस प्रक्रिया के दौरान उनको (चुपके से, उन्हें लगता है) अपने उत्तर सौंपने से पहले किसी अन्य प्रतिभागी [संभवतः सहज ज्ञान से अत्यधिक सही] का उत्तर देखने का अवसर दिया जा सकता है। धोखे से संबंधित इस या किसी और अनुसंधान के समापन पर, सभी प्रतिभागियों को अध्ययन के सच्चे स्वरूप के बारे में बताया जाना चाहिए और यह कि क्यों धोखा आवश्यक था (इसे कार्य का रिपोर्ट करना कहा जाता है). इसके अलावा, अनुसंधान के समापन पर सभी प्रतिभागियों को परिणामों का एक सारांश प्रदान करना प्रथागत है।

हालांकि आमतौर पर अमेरिकी मनोवैज्ञानिक एसोसिएशन एपीए.ऑर्ग (APA) के दिशा निर्देशों के अनुसार और उनकी अनुमति से प्रयोग किये जाने के बाद भी इस बारे में बहस होती रहती है कि मनोवैज्ञानिक अनुसंधान में धोखे का प्रयोग करना नैतिक है या नहीं.

जो लोग धोखे के खिलाफ हैं वे इसके इस्तेमाल में शामिल नैतिक और कार्यप्रणाली संबंधी मुद्दों पर आपत्ति उठाते हैं। ड्रेसर (1981) ने ध्यान दिया कि शोधकर्ता नैतिकता की दृष्टि से, प्रयोग में व्यक्ति का इस्तेमाल तभी कर सकते हैं जब वक्ता ने इस विषय में सूचित सहमति दे दी हो. हालांकि, अपनी प्रकृति के कारण, धोखे पर प्रयोग कर रहा शोधकर्ता विषय (प्रतिभागी) पर अपना असली उद्देश्य प्रकट नहीं कर सकता, अतः अपनी सहमति दे चुके प्रतिभागी को गलत सूचना दी गयी होती है। (पृ. 3). बॉमरिन्ड (1964), ने मिलग्राम (1963) के आज्ञाकारिता प्रयोग की आलोचना करते हुए तर्क दिया कि धोखे पर आयोजित प्रयोग अनुपयुक्त तरीके से प्रतिभागी द्वारा दिये गये विश्वास और आज्ञाकारिता का फायदा उठाता है जबकि प्रतिभागी ने खुद भाग लेने पर हामी भर दी है। पृ.  421).

व्यावहारिक दृष्टिकोण से भी धोखे के कार्यप्रणाली संबंधी इस्तेमाल पर आपत्तियां हैं। ओर्टमैन और हर्टविग (1998) ने माना कि "धोखा व्यक्तिगत प्रयोगशालाओं और पेशे की प्रतिष्ठा को जबर्दस्त ढंग से प्रभावित कर सकता है, इस प्रकार प्रतिभागी बावड़ी (समूह) को दूषित कर सकता है" पृ. 806). अगर प्रयोग में शामिल प्रतिभागी ही अनुसंधानकर्ता के बारे में संदिग्ध हो तो वे सामान्य तौर पर जिस तरह से व्यवहार करते हैं वैसा नहीं करेंगे और शोधकर्ता द्वारा किये जा रहे प्रयोग पर नियंत्रण की संभावना कम हो जाती है (पृ. 807).

जो लोग धोखे के प्रयोग पर आपत्ति नहीं करते हैं वे ध्यान रखें कि "सामाजिक समस्याओं का हल करने के लिए अनुसंधान की जरूरत और अनुसंधान में भागीदार की गरिमा और अधिकारों के संरक्षण की जरूरत" के बीच संतुलन बनाये रखने के लिए निरंतर संघर्ष जारी है, क्रिस्टेन्सेन (Christensen, 1988, पृ.670). वे इसका भी ध्यान रखें कि कुछ मामलों में जानकारी हासिल करने का एकमात्र उपाय धोखा ही है औऱ यह कि अनुसंधान में धोखे पर प्रतिबंध लगाने से "शोधकर्ताओं को महत्वपूर्ण अध्ययन की एक विस्तृत श्रृंखला को करने से रोकने पर प्रबल परिणाम हो सकते हैं"(किम्मेल, 1998, पृ. 805).

इसके अतिरिक्त, निष्कर्षों के आधार पर यह पता लगता है कि धोखे प्रतिभागियों के लिए हानिकारक नहीं है। क्रिस्टेन्सेन (1988) के साहित्य की समीक्षा में पाया गया कि "अनुसंधान प्रतिभागियों को यह अनुभव नहीं होता कि उन्हें नुकसान पहुंचाया जा रहा है या वे भ्रमित किये जाने का बुरा मानते हुए प्रतीत नहीं होते हैं" (पृ. 668). इसके अलावा, धोखे से जुड़े प्रयोगों में भाग लेने वालों के "बारे में रिपोर्ट है कि वे प्रयोग का लुत्फ उठाते हैं और उन्हें इससे शैक्षणिक लाभ मिलता है" जबकि गैर भ्रामक प्रयोगों में शामिल होने वालों के साथ ऐसा नहीं होता है (पृ. 668).

अंत में, यह भी सुझाव दिया गया है कि धोखे के अध्ययन में इस्तेमाल किया गया अप्रिय तरीका या धोखे के प्रयोग से निकले अप्रिय परिणामों की वजह, शायद धोखे का इस्तेमाल करने वाले प्रयोगों का अंतर्निहित कारण हो सकता है जो इसके प्रणाली संबंधी उपयोग को अनैतिक मानता है, जबकि खुद धोखे से ऐसा न होता हो (ब्रॉडर, 1998, पृ. 806; क्रिस्टेन्सेन, 1988, पृ. 671).

इन्हें भी देखें

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  • रहस्य
  • चयनात्मकता
  • नकली वास्तविकता
  • सोशल इंजीनियरिंग (सुरक्षा)
  • तमाशा
  • स्पिन (जन संपर्क)
  • स्टेग्नोग्राफ़ी
  • स्टिंग ऑपरेशन
  • फ्लोरिडा में स्वैम्पलैंड
  • थेफ्ट एक्ट 1968
  • थेफ्ट एक्ट 1978

  1. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> का गलत प्रयोग; Guerrero, Andersen, & Afifi, 2007 नाम के संदर्भ में जानकारी नहीं है।
  2. बुलर और बर्गून, 1996
  3. बर्गून और किन, 2006
  4. वृज, 2008
  5. बर्गून, ब्लेयर और स्ट्रोम, 2008
  6. मिलर और मिलर, 1995
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