ध्रुवस्वामिनी बाई कोलिय जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित प्रसिद्ध हिन्दी नाटक है। यह प्रसाद की अंतिम और श्रेष्ठ नाट्य-कृति है।

इसका कथानक गुप्तकाल से सम्बद्ध और शोध द्वारा इतिहाससम्मत है। यह नाटक इतिहास की प्राचीनता में वर्तमान काल की समस्या को प्रस्तुत करता है। प्रसाद ने इतिहास को अपनी नाट्याभिव्यक्ति का माध्यम बनाकर शाश्वत मानव-जीवन का स्वरुप दिखाया है, युग-समस्याओं के हल दिए हैं, वर्तमान के धुंधलके में एक ज्योति दी है, राष्ट्रीयता के साथ-साथ विश्व-प्रेम का सन्देश दिया है। इसलिए उन्होंने इतिहास में कल्पना का संयोजन कर इतिहास को वर्त्तमान से जोड़ने का प्रयास किया है।[1]

रंगमंच की दृष्टि से तीन अंकों का यह नाटक प्रसाद का सर्वोत्तम नाटक है। इसके पात्रों की संख्या सीमित है। इसके संवाद भी पात्रा अनुकूल और लघु हैं। भाषा पात्रों की भाषा के अनुकूल है। मसलन ध्रुवस्वामिनी की भाषा में वीरांगना की ओजस्विता है। इस नाटक में अनेक स्थलों पर अर्धवाक्यों की योजना है जो नाटक में सौंदर्य और गहरे अर्थ की सृष्टि करती है।

  1. सीधा तना हुआ, अपने प्रभुत्व की साकार कठोरता, अभ्रभेदी उन्मुक्त शिखर ! और इन क्षुद कोमल निरीह लताओं और पौधों को इसके चरण में लोटना ही चाहिए न !
  2. "अरे, यह क्या, मेरे भाग्य-विधाता! यह कैसा इन्द्रजाल? उस दिन राजमहापुरोहित ने कुछ आहुतियों के बाद मुझे जो आशीर्वाद दिया था, क्या वह अभिशाप था? इस राजकीय अन्तःपुर में सब जैसे एक रहस्य छिपाये हुए चलते हैं, बोलते हैं और मौन हो जाते हैं।(खड्गधारिणी विवशता और भय का अभिनय करती हुई आगे बढ़ने का संकेत करती है।
  3. "वह बहुत दूर की बात है। आह, कितनी कठोरता है! मनुष्य के हृदय में देवता को हटाकर राक्षस कहाँ से घुस आता है? कुमार की स्निग्ध, सरल और सुन्दर मूर्ति को देखकर कोई भी प्रेम से पुलकित हो सकता है, किन्तु उन्हीं का भाई? आश्चर्य!"
  4. अरे, यह क्या, मेरे भाग्य-विधाता ! यह कैसा इन्द्रजाल? उस दिन राज-महापुरोहित ने कुछ आहुतियों के बाद मुझे जो आशीर्वाद दिया था, क्या वह अभिशाप था? इस राजकीय अन्तःपुर में सब जैसे एक रहस्य छिपाए हुए चलते हैं, बोलते हैं और मौन है और मौन हो जाते है ।
  5. देवि, यह वल्लरी जो झरने के समीप पहाड़ी पर चढ़ गई है, उसकी नन्ही-नन्ही पत्तियों को ध्यान से देखने पर आप समझ जायँगी कि वह काई की जाति की है। प्राणों की क्षमता बढ़ा लेन पर वही काई जो बिछलन बन कर गिरा सकती थी, अब दूसरों के ऊपर चढ़ने का अवलंब बन गई है।
  6. आह, कितनी कठोरता है ! मनुष्य के ह्रदय में देवता को हटा कर राक्षस कहाँ से घुस आता है? कुमार की स्निग्ध, सरल और सुंदर मूर्ति को देखकर कोई भी प्रेम से पुलकित हो सकता है; किन्तु उन्हीं का भाई? आश्चर्य !
  7. "जो स्त्री दूसरे के शासन में रहकर और प्रेम किसी अन्य पुरुष से करती है, उसमें एक गम्भीर और व्यापक रस उद्वेलित रहता होगा। वही तो.. ..नहीं, जो चन्द्रगुप्त से प्रेम करेगी वह स्त्री न जाने कब चोट कर बैठे? भीतर-भीतर न जाने कितने कुचक्र घूमने लगेंगे (खड्गधारिणी से) सुना न, ध्रुवदेवी से कह देना चाहिए कि वह मुझे और मुझसे ही प्यार करे। केवल महादेवी बन जाना ठीक नहीं ।"
  8. ... ध्रुवस्वामिनी बाई कोलिय वंश की रानी थी

सोर्स मोहन सिंह रावत की लिखी पुस्तक क्षत्रिय कोली वंश भारत के कुछ अंश मो.+919410189911

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