अलकनंदा एवं नंदाकिनी के संगम पर बसा पंच प्रयागों में से एक नंदप्रयाग का मूल नाम कंदासु था जो वास्तव में अब भी राजस्व रिकार्ड में यही है। यह शहर बद्रीनाथ धाम के पुराने तीर्थयात्रा मार्ग पर स्थित है तथा यह पैदल तीर्थ यात्रियों के ठहरने एवं विश्राम करने के लिये एक महत्त्वपूर्ण चट्टी था। यह एक व्यस्त बाजार भी था तथा वाणिज्य के अच्छे अवसर होने के कारण देश के अन्य भागों से आकर लोग यहां बस गये। जाड़े के दौरान भोटियां लोग यहां आकर ऊनी कपड़े एवं वस्तुएं, नमक तथा बोरेक्स बेचा करते तथा गर्मियों के लिये गुड़ जैसे आवश्यक सामान खरीद ले जाते। कुमाऊंनी लोग यहां व्यापार में परिवहन की सुविधा जुटाने (खच्चरों एवं घोड़ों की आपूर्ति) में शामिल हो गये जो बद्रीनाथ तक सामान पहुंचाने तथा तीर्थयात्रियों की आवश्यकता पूर्ति में जुटकर राजस्थान, महाराष्ट्र तथा गुजरात के लोगों ने अच्छा व्यवसाय किया।

वर्ष 1803 में बिरेही बाढ़ ने इन कार्यकलापों पर अस्थायी रोक लगा दी क्योंकि शहर बाढ़ में बह गया। तब शहर के लोगों ने शहर के पुराने स्थान के ऊपर बसना पसंद किया तथा 105 वर्ष पुराना शहर आज के प्रमुख बाजार तथा सड़क के ऊपर ही है। इसी वर्ष गोरखों ने गढ़वाल पर आक्रमण भी किया। गढ़वाल के शेष भागों की तरह ही नंदप्रयाग भी सर्वप्रथम कत्यूरी वंश के शासनाधीन रहा जिसका मुख्यालय जोशीमठ में था। कत्यूरी वंश स्वयं कुमाऊं चला गया जहां घटनावश वे चंद वंश के हाथों पराजित हुए।

कनक पाल द्वारा 9वीं शताब्दी में स्थापित वंश पाल या पंवार वंश कहा गया। कनक पाल चांदपुर गढ़ी के गढ़पती, भानू प्रताप, की पुत्री से विवाह रचाया और खुद यहां का राजा बन गया। उसके 37वें वंशज, अजय पाल ने बाकी गढ़पतियों पर विजय पायी और अपनी राजधानी पहले देवलगढ़ (वर्ष 1506 से पहले) और फिर श्रीनगर (वर्ष 1506-1519) ले गया। यह वंश वर्ष 1803 तक यहां शासन करता रहा। वर्ष 1814 में गोरखों का संपर्क अंग्रेजों से हुआ क्योंकि उनकी सीमाएं एक-दूसरे से मिलती थी। सीमा की कठिनाईयों ने अंग्रेजों को गढ़वाल पर आक्रमण करने को मजबूर कर दिया।

वर्ष 1815 में गोरखों को गढ़वाल से खदेड़ दिया गया तथा इसे ब्रिटिश जिला के रूप में मिला लिया गया और पूर्वी एवं पश्चिमी गढ़वाल के दो भागों में बांटा गया। पूर्वी गढ़वाल को अंग्रेजों ने अपने पास रखकर इसे ब्रिटिश गढ़वाल बनाया। पश्चिमी गढ़वाल को सुदर्शन शाह, पंवार वंशज, को दे दिया गया। वर्ष 1947 में भारत की आजादी तक नंदप्रयाग ब्रिटिश गढ़वाल का ही एक भाग था।

अंग्रेजी शासन के दौरान नंदप्रयाग उन विध्वंशों पर विजय पाना शुरू किया जिसे उन्हें भोगना पड़ा था तथा शहर अपनी उन्नति को पुन: प्राप्त करने लगा था। फिर भी, शहर साम्राज्यवाद की बेड़ियों से अनुभूत होकर भारतीय स्वाधीनता संग्राम में जी जान से जुट गया। उन दिनों भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिकांश कार्यक्रमों की शुरूआत नंदप्रयाग से हुई जो खासकर नंदप्रयाग के सुपुत्र तेजस्वी अनुसूया प्रसाद बहुगुणा के कारण ही था। उन्होंने लाहौर सम्मेलन में गढ़वाल का प्रतिनिधित्व किया तथा वे जवाहर लाल नेहरू तथा उनके दृष्टिकोण के बहुत निकट थे। अनुसूया प्रसाद बहुगुणा एक सामाजिक कार्यकर्त्ता भी थे तथा घृणित कुली-बेगार प्रथा की समाप्ति के सूत्रधार थे। उनके भतीजे राम प्रसाद बहुगुणा जो स्वयं एक बुद्धिजीवी थे, ने स्वाधीनता संग्राम में योगदान किया और जब वे 8वीं कक्षा के छात्र थे तभी उन्हें कारागार भेज दिया गया। उन्होंने समाज नाम से एक हस्तलिखित पत्रिका आरंभ की जो लोगों द्वारा पढ़कर एक से दूसरे को पहुंचाया जाता था। वर्ष 1953 में उन्होंने दूसरा समाचार पत्र देवभूमि निकाला। बिनोवा भावे एवं जयप्रकाश नारायण अन्य स्वतंत्रता सेनानी थे जिन्होंने नंदप्रयाग के लोगों को प्रेरित किया। वास्तव में, ऐसा कहा जाता था कि अंग्रेज अधिकारियों पर बहुगुणा समुदाय का इतना खौफ था कि शहर के बाहर ही घोड़े से उतर कर पैदल जाते न कि घोड़े पर।

वर्ष 1960 में जब नया चमोली जिला बना नंदप्रयाग उत्तर-प्रदेश का एक भाग बन गया और फिर उत्तराखंड बनने पर उसका भाग हो गया।