नंदा देवी सिद्धपीठ कुरुड़
चमोली का नन्दा देवी सिद्धपीठ कुरुड़ एक मन्दिर है, जो भगवती नंदा (पार्वती) को समर्पित है। यह भारत के उत्तराखंड राज्य के तटवर्ती शहर चमोली जनपद में स्थित है। नंदा शब्द का अर्थ जगत जननी भगवती होता है। इनकी नगरी ही नंदा धाम कहलाती है।[1][2] इस मन्दिर को नंदा का मायका मां नंदा भगवती का मूल स्थान यहां माना जाता है। इस मन्दिर की कैलाश यात्रा नंदा देवी राजजात उत्सव प्रसिद्ध है। इसमें मन्दिर से नंदा देवी की दोनों डोलिया नंदा देवी डोली, उनके छोटे भाई लाटू देवता और भूम्याल भूमि के क्षेत्रपाल , दो अलग-अलग भव्य और सुसज्जित रथों में विराजमान होकर अपने मायके से ससुराल की यात्रा को निकलते हैं। श्री नंदा देवी राज राजेश्वरी कई नामों से पूरे ब्रह्मांड में पूजी जाती है । नंदा देवी राज राजेश्वरी, किरात, नाग, कत्यूरी आदि जातियों के मुख्य देवी थी। अब से लगभग 1000 वर्ष पुर्व किरात जाति के भद्रेश्वर पर्वत की तलहटी मैं नंदा देवी जी की पुजा किया करते थे [3] । मध्य-काल से ही यह उत्सव अतीव हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इसके साथ ही यह उत्सव उत्तराखंड के कई नंदा देवी मन्दिरों में मनाया जाता है, एवं यात्रा निकाली जाती है।[4] यह मंदिर पहाड़ी परंपराओं से जुड़ा हुआ है। इस मंदिर के मुख्य पुजारी कान्यकुब्जीय गौड़ ब्राह्मण हैं । सूरमाभोज गौड़ सर्वप्रथम यहां के पुजारी ही रहे हैं। वर्तमान में यहां पर दशोली क्षेत्र की नंदा की डोली, तथा बधाण क्षेत्र की नंदा की डोली यहां पर रहती हैं। दशोली (नंदानगर, कर्णप्रयाग, चमोली ब्लॉक) की नंदा की डोली साल भर यहां विराजमान रहती तथा बधाण की नंदा की डोली भाद्रपद में नंदा देवी जात के बाद थराली में स्थित देवराड़ा मंदिर में स्थापित हो जाती है तथा मकर संक्रान्ति में कुरुड मंदिर में पुनः आती है।
नन्दा देवी सिद्धपीठ कुरुड़ | |
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धर्म संबंधी जानकारी | |
सम्बद्धता | हिन्दू धर्म |
देवता | भगवती पार्वती |
अवस्थिति जानकारी | |
अवस्थिति | चमोली, उत्तराखंड |
वास्तु विवरण | |
शैली | देवी मंदिर वास्तु |
निर्माता | नन्दा देवी सातवीं सदी से भी पुराना मंदिर |
स्थापित | 7वीं शताब्दी |
मन्दिर का उद्गम
संपादित करेंताम्र पत्रों से यह ज्ञात हुआ है, कि वर्तमान मन्दिर का निर्माण सातवीं सदी में हुआ । यह मंदिर समय-समय पर आधुनिकता के साथ जीर्णोद्धार होता गया।फिर सन 1210 में जाकर गढ़वाल शासक सोनपाल ने इस मन्दिर को जीर्णोद्धार करवाया। सन 1432 मैं गढ़वाल नरेश अजय पाल द्वारा अपनी कुल ईष्ट भवानी नंदा भगवती के मंदिर कुरुड़ में सोने का छत्र चढ़ाया गया।
वर्तमान में मंदिर देवसारी नामक तोक में स्थित है।
मन्दिर से जुड़ी कथाएँ
संपादित करेंइस मन्दिर के उद्गम से जुड़ी परम्परागत कथा के अनुसार, भगवान जगन्नाथ की इन्द्रनील या नीलमणि से निर्मित मूल मूर्ति, एक अगरु वृक्ष के नीचे मिली थी। यह इतनी चकचौंध करने वाली थी, कि धर्म ने इसे पृथ्वी के नीचे छुपाना चाहा। मालवा नरेश इंद्रद्युम्न को स्वप्न में यही मूर्ति दिखाई दी थी। तब उसने कड़ी तपस्या की और तब भगवान विष्णु ने उसे बताया कि वह पुरी के समुद्र तट पर जाये और उसे एक दारु (लकड़ी) का लठ्ठा मिलेगा। उसी लकड़ी से वह मूर्ति का निर्माण कराये। राजा ने ऐसा ही किया और उसे लकड़ी का लठ्ठा मिल भी गया। उसके बाद राजा को विष्णु और विश्वकर्मा बढ़ई कारीगर और मूर्तिकार के रूप में उसके सामने उपस्थित हुए। किन्तु उन्होंने यह शर्त रखी, कि वे एक माह में मूर्ति तैयार कर देंगे, परन्तु तब तक वह एक कमरे में बन्द रहेंगे और राजा या कोई भी उस कमरे के अन्दर नहीं आये। माह के अंतिम दिन जब कई दिनों तक कोई भी आवाज नहीं आयी, तो उत्सुकता वश राजा ने कमरे में झाँका और वह वृद्ध कारीगर द्वार खोलकर बाहर आ गया और राजा से कहा, कि मूर्तियाँ अभी अपूर्ण हैं, उनके हाथ अभी नहीं बने थे। राजा के अफसोस करने पर, मूर्तिकार ने बताया, कि यह सब दैववश हुआ है और यह मूर्तियाँ ऐसे ही स्थापित होकर पूजी जायेंगीं। तब वही तीनों जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियाँ मन्दिर में स्थापित की गयीं।
चारण परम्परा मे माना जाता है की यहाँ पर भगवान द्वारिकाधिश के अध जले शव आये थे जिन्हे प्राचि मे प्रान त्याग के बाद समुद्र किनारे अग्निदाह दिया गया (किशनजी, बल्भद्र और शुभद्रा तिनो को साथ) पर भरती आते ही समुद्र उफान पर होते ही तिनो आधे जले शव को बहाकर ले गया ,वह शव पुरि मे निकले ,पुरि के राजा ने तिनो शव को अलग अलग रथ मे रखा (जिन्दा आये होते तो एक रथ मे होते पर शव थे इसिलिये अलग रथो मे रखा गया)शवो को पुरे नगर मे लोगो ने खुद रथो को खिंच कर घुमया और अंत मे जो दारु का लकडा शवो के साथ तैर कर आयाथा उशि कि पेटि बनवाके उसमे धरति माता को समर्पित किया, आज भी उश परम्परा को नीभाया जाता है पर बहोत कम लोग इस तथ्य को जानते है, ज्यादातर लोग तो इसे भगवान जिन्दा यहाँ पधारे थे एसा ही मानते है, चारण जग्दम्बा सोनल आई के गुरु पुज्य दोलतदान बापु की हस्तप्रतो मे भी यह उल्लेख मिलता है , [5].
बौद्ध मूल
संपादित करेंकुछ इतिहासकारों का विचार है कि इस मन्दिर के स्थान पर पूर्व में एक बौद्ध स्तूप होता था। उस स्तूप में गौतम बुद्ध का एक दाँत रखा था। बाद में इसे इसकी वर्तमान स्थिति, कैंडी, श्रीलंका पहुँचा दिया गया।[6] इस काल में बौद्ध धर्म को वैष्णव सम्प्रदाय ने आत्मसात कर लिया था और तभी जगन्नाथ अर्चना ने लोकप्रियता पाई। यह दसवीं शताब्दी के लगभग हुआ, जब उड़ीसा में सोमवंशी राज्य चल रहा था।[7]
महाराजा रणजीत सिंह, महान सिख सम्राट ने इस मन्दिर को प्रचुर मात्रा में स्वर्ण दान किया था, जो कि उनके द्वारा स्वर्ण मंदिर, अमृतसर को दिये गये स्वर्ण से कहीं अधिक था। उन्होंने अपने अन्तिम दिनों में यह वसीयत भी की थी, कि विश्व प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा, जो विश्व में अब तक सबसे मूल्यवान और सबसे बड़ा हीरा है, इस मन्दिर को दान कर दिया जाये। लेकिन यह सम्भव ना हो सका, क्योकि उस समय तक, ब्रिटिश ने पंजाब पर अपना अधिकार करके, उनकी सभी शाही सम्पत्ति जब्त कर ली थी। वर्ना कोहिनूर हीरा, भगवान जगन्नाथ के मुकुट की शान होता।[8]
मंदिर का ढांचा
संपादित करेंमंदिर का वृहत क्षेत्र 900 स्क्वायर फीट में फैला है और चहारदीवारी से घिरा है। पहाड़ी शैली के मंदिर स्थापत्यकला और शिल्प के आश्चर्यजनक प्रयोग से परिपूर्ण, यह मंदिर, भारत के भव्यतम मंदिरों में से एक है।
मुख्य मंदिर चोकर आकार का है, जिसके शिखर पर देवी कलश है। ये अष्टधातु से बना हुआ और अति पावन और पवित्र माना जाता है। मंदिर का मुख्य ढांचा एक 214 फीट (65 मी॰) ऊंचे पाषाण चबूतरे पर बना है। इसके भीतर आंतरिक गर्भगृह में मुख्य देवताओं की मूर्तियां स्थापित हैं। यह भाग इसे घेरे हुए अन्य भागों की अपेक्षा अधिक वर्चस्व वाला है। इससे लगे घेरदार मंदिर की पिरामिडाकार छत और लगे हुए मण्डप, अट्टालिकारूपी मुख्य मंदिर के निकट होते हुए ऊंचे होते गये हैं। यह एक पर्वत को घेर ेहुए अन्य छोटे पहाड़ियों, फिर छोटे टीलों के समूह रूपी बना है।[9]
मुख्य मढ़ी (भवन) एक 20 फीट (6.1 मी॰) ऊंची दीवार से घिरा हुआ है तथा दूसरी दीवार मुख्य मंदिर को घेरती है। एक भव्य
देवता
संपादित करेंनन्दा देवी इस मंदिर की मुख्य देवी हैं। नंदा भगवती की प्राचीन शिला मूर्ति पाषाण चबूतरे पर गर्भ गृह में स्थापित हैं। इतिहास अनुसार इन मूर्तियों की अर्चना मंदिर निर्माण से कहीं पहले से की जाती रही है। सम्भव है, कि यह प्राचीन जनजातियों द्वारा भी पूजित रही हो। यहां पर मां भगवती की शिला मूर्ति चतुर्भुज रूप में आप रूपी लिंग विद्यमान है। और प्रत्येक दिन पूजा के उपरांत मां नंदा को जो स्थानीय परंपरागत व्यंजन है पूवे ( गुलगुले, आटे और गुड़ से बना हुआ), मां भगवती को चढ़ाए जाते हैं। यही मां नंदा देवी का प्रसाद होता है।
उत्सव
संपादित करेंवर्तमान मंदिर
संपादित करेंवर्तमान मंदिर में प्रतिवर्ष भादो के महीने लोकजात का आयोजन किया जाता है जिसमे दसोली और बधाण की डोलियां पूरे क्षेत्र का भ्रमण कर आगे बड़ती है। प्रतिवर्ष लोकजात सुरु होने से पहले यह ३ दिन का मेला लगता है जिसे स्थानीय भाषा में नंदा कौथिक कहा जाता है। इस लोकजात के बाद दशोली की डोली वापस सिद्धपीठ कुरूर में विराजमान होती है तथा बधाण की डोली बेदनी कुंड में स्नान कर अपने मामाकोट (ननिहाल) देवराडा में ६ माह के लिए विराजमान होती है [10]
सन्दर्भ
संपादित करें- ↑ (अंग्रेजी ) वैदिक कॉन्सेप्ट्स Archived 2008-01-03 at the वेबैक मशीन "संस्कृत में एक उदाहरणार्थ शब्द से जगत का अर्थ ब्रह्माण्ड निकला। An example in Sanskrit is seen with the word Jagat which means universe. In Jaganath, the ‘t’ becomes an ‘n’ to mean lord (nath) of the universe."
- ↑ (अंग्रेजी )सिंबल ऑफ नेश्नलिज़्म Archived 2012-02-14 at the वेबैक मशीन "The fame and popularity of "the Devi of universe: Nanda Devi" both among the foreigners and the Hindu world "
- ↑ [1][मृत कड़ियाँ]
- ↑ "Juggernaut". मूल से 15 अप्रैल 2008 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2006-09-12.
- ↑ "जगन्नाथ टेम्पल ऐट पुरी". मूल से 2 जनवरी 2010 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2006-09-12.
- ↑ "ओल्डेस्ट जगन्नाथ टेम्पल ऑफ पुरी- द बुद्धिस्ट एण्द सोमवासी कनेक्शंस" (PDF). मूल (PDF) से 29 फ़रवरी 2008 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2006-09-12.
- ↑ "जैनिज़्म ऎण्ड बुद्धज़्मइन जगन्नाथ कल्चर" (PDF). मूल से 29 फ़रवरी 2008 को पुरालेखित (PDF). अभिगमन तिथि 2003-07-01.
- ↑ कोहिनूर हीरा#सम्राटों के रत्न - आंतरिक कड़ी
- ↑ "जगन्नाथ टेम्पल, उड़ीसा". मूल से 17 मई 2008 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2006-09-20.
- ↑ "Uttarakhand CM Dhami inaugurates 3-day Nanda Devi Lokjat Fair in Chamoli". ANI News (अंग्रेज़ी में). अभिगमन तिथि 2024-10-01.