नल्गोंडा
नल्गोंडा (Nalgonda) भारत के तेलंगाना राज्य के नल्गोंडा ज़िले में स्थित एक नगर है। यह उस ज़िले का मुख्यालय भी है।[1][2][3]
नल्गोंडा Nalgonda నల్గొండ | |
---|---|
नल्गोंडा का घंटाघर | |
निर्देशांक: 17°03′N 79°16′E / 17.05°N 79.27°Eनिर्देशांक: 17°03′N 79°16′E / 17.05°N 79.27°E | |
देश | भारत |
प्रान्त | तेलंगाना |
ज़िला | नल्गोंडा ज़िला |
जनसंख्या (2011) | |
• कुल | 1,54,326 |
भाषा | |
• प्रचलित | तेलुगू |
इस स्थान का प्राचीन नाम नीलगिरी था। नालगोंडा को यदि पुरातत्वशास्त्रियों का स्वर्ग कहा जाए तो शायद गलत नहीं होगा। पाषाणयुग और पूर्वपाषाण युग के अवशेष यहां पाए गए हैं। यहां तक कि कई जगह तो मौर्य वंश के अवशेष भी मिले हैं। केवल पुरातत्व की दृष्टि से ही नहीं बल्कि धार्मिक दृष्टि से भी इस स्थान का बहुत महत्व है। यहां के मेल्लाचुरवु को तो दक्षिण का काशी तक कहा जाता है। यहां की यात्रा वास्तव में रोमांचक है।
मुख्य आकर्षण
संपादित करेंभोनगीर किला
संपादित करेंइसे किला का निर्माण पश्चिमी चालुक्य शासक त्रिभुवनमल्ला विक्रमादित्य चतुर्थ ने करवाया था इसलिए इस किले का नाम त्रिभुवनगिरी पड़ा। धीरे-धीरे ये भुवनगिरी हो गया और आज भोनगीर के नाम से जाना जाता है। यह किला एक चट्टान के ऊपर 609.6 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यह खूबसूरत ऐतिहासिक किला वक्त के प्रभाव से अपने को बचाने में सक्षम रहा है जो यहां आने वाले पर्यटकों को आश्चर्यचकित करता है। पहाड़ी के ऊपर बाला हिसार नामक जगह से आसपास के इलाके का अद्भुत दृश्य दिखाई पड़ता है। इस किले का सबंध वीरांगना रानी रूद्रमादेवी और उनकी पौते प्रतापरुद्र के शासन से भी है।
देवेरकोंडा किला
संपादित करेंएक समय में यह किला रेचर्ला प्रमुखों का गढ़ माना जाता था। आज देखभाल के अभाव में यह खंडहर में तब्दील हो चुका है लेकिन इसका आकर्षण आज भी बरकरार है। पुरानी चीजों के शौकीनों के लिए यह स्थान वास्तव में दर्शनीय है। पुरातत्व की दृष्टि से इसका बहुत महत्व है। देवेरकोंडा किला सात पहाड़ों से घिरा है और नालगौंडा, महबूबनगर, मिरयालगुडा और हैदराबाद से सड़क मार्ग के जुड़ा हुआ है।
पिल्ललमार्री
संपादित करेंयह एक गांव है जहां बहुत सारे प्राचीन मंदिर हैं। यह मंदिर ककातिया काल के वास्तुशिल्प की याद दिलाते हैं। खूबसूरती से तराशे गए खंबों की शोभा देखते ही बनती है। यहां शिलालेखों से काकतिया वंश के बारे में जानकारी मिलती है। कन्नड़, तेलगु में लिखा एक शिला लेख 1208 ईसवी में राजा गणपति के बारे में बताता है। इस जगह कुछ प्राचीन सिक्के भी मिले हैं। पिल्ललमार्री प्रसिद्ध तेलगु कवि पिल्लमार्री पिना वीरभद्रदु का जन्म स्थान भी है। इस गांव का केवल ऐतिहासिक महत्व ही नहीं बल्कि सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व भी है। यहां भगवान चेन्नाकेसवस्वामी का मंदिर है जहां फरवरी-मार्च के महीने में उत्सव आयोजित किया जाता है जिसमें बड़ी संख्या में श्रद्धालु भाग लेते हैं।
पोचमपल्लै
संपादित करेंइस स्थान का महत्व इसलिए अधिक है क्योंकि इसी जगह आचार्य विनोबा भावे ने 1950 में भूदान आंदोलन की शुरुआत की थी। इसके अंतर्गत दान की गई जमीनें गरीब भूमिहीन किसानों को दान करने की अपील की गई थी।
नागार्जुनसागर बांध
संपादित करेंकृष्णा नदी पर बना यह बांध्ा सिंचाई के लिए प्रयुक्त होने वाला एक प्रमुख बांध है। पत्थरों से बना यह दुनिया का सबसे बड़ा और सबसे ऊंचा बांध है। यह बांध दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी मानवनिर्मित झील बनाता है। झील के पास बने टापू, जिसे नागार्जुनकोडा कहा जाता है, पर तीसरी ईसवी के बौद्ध सभ्यता के कुछ अवशेष्ा भी मिले हैं। महाचैत्य के ब्रह्मी में लिखे गए संकेतों से इन अवशेषों का सबंध भगवान बुद्ध से जोड़ा जाता है। नागार्जुनसागर बांध की खुदाई करते समय एक विश्वविद्यालय के अवशेष मिले थे। यह विश्वविद्यालय आचार्य नागार्जुन द्वारा संचालित किया जाता था। आचार्य नागार्जुन बहुत बड़े बौद्ध संत, विद्वान और दार्शनिक थे। वे बौद्ध धर्म के संदेशों का प्रचार करने नागार्जुनकोडा से अमरावती गए थे।
पंगल
संपादित करेंपंगल मंदिर दक्षिण भारतीय मंदिर को सुंदर उदाहरण है। मंदिर परिसर का मुख्य मंदिर भगवान शिव को समर्पित है जिसके सामने नंदी मंडप स्थित है। मंदिर का वास्तुशिल्प अतिउत्तम है। मंदिर परिसर में कुल 66 खंबे हैं जिनमें से मंडप बीच में लगे चार खंबों पर नक्काशी से बहुत की खूबसूरती के साथ सजाया गया है। इनपर रामायण और महाभारत के चित्र उकेरे गए हैं। पंगल में एक और मंदिर है- चयाला सोवेश्वर मंदिर। यह मंदिर शिवलिंग की अद्भुत छाया के लिए जाना जाता है जिसके बारे में कहते हैं कि यह छाया सूर्योदय से सूर्यास्त तक एक जैसी ही रहती है। मंदिर का वास्तुशिल्प एकदम अलग है। इसे काकतिया वास्तु का सबसे कल्पनापूर्ण कार्य माना जाता है। चयाला सोवेश्वर मंदिर में रुद्रंबा के समय के बहुमूल्य शिलालेख भी देखे जा सकते हैं।
श्री लक्ष्मीनरसिम्हा स्वामी मंदिर
संपादित करेंयदगिरीगुट्टा श्री लक्ष्मी नरसिम्हा स्वामी का निवास स्थान है। इनकी उपस्थिति को यहां आने वाले श्रद्धालु महसूस करते हैं। यह स्थान दूसरी तिरुपति के रूप में जाना जाता है। इसकी महिमा से आकर्षित इसकी महिमा से आकर्षित होकर प्रतिवर्ष हजारों भक्तजन यहां दर्शनों के लिए आते हैं। कई वर्ष पहले यदऋषि से यहां पर तप किया था। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान श्री नरसिम्हा स्वामी ने उन्हें यहां दर्शन दिए। जिस पहाड़ी पर वे प्रकट हुए थे उसे यदगिरी कहा जाता है। ब्रह्मोत्सव और नरसिम्हा जयंति यहां हर्षोल्लास के साथ मनाई जाती है।
श्री मीनाक्षी अगस्तेश्वर स्वामी, वडापल्ली
संपादित करेंकरीब 6000 साल पहले महर्षि अगस्त्य ने कृष्णा और मूसी नदी के संगम पर वडेपल्ली गांव में श्री मीनाक्षी अगस्तेश्वरा और श्री लक्ष्मी नरसिम्हा की प्रतिमाएं स्थापित की थी। हजारों सालों तक यह मंदिर सुनसुना जंगल के बीच स्थ्ति रहा। बाद में मंदिर के आसपास खुदाई करते समय यहां शिवजी की प्रतिमा मिली जिसे इसी मंदिर में स्थापित कर दिया गया। यहां एक शिवलिंग है जिसपर दस छेद हैं जहां से पानी निकलता है। इसके बारे में एक जनश्रुति प्रचलित है कि एक बार शिकारी से बचने के लिए एक चिडि़या शिवजी की मूर्ति के पीछे छिप गई। शिवजी ने प्रकट होकर शिकारी से कहा कि वे यदि वह चिडि़या को छोड़ देगा तो वे अपना मस्तिष्क उसे दे देंगे। शिकारी मान गया और शिवजी का मस्तिष्क निकाल लिया। जहां जहां शिवजी के सिर में छेद हुए थे, वहां से गंगा की धार निकल पड़ी। आज भी यहां से पानी निकलता है जिसे लेने पर भी जलस्तर कम नहीं होता।
श्री जैन मंदिर
संपादित करेंकोलनुपका गांव में स्थित जैन मंदिर करीब 2000 साल पुराना है। यहां पर भगवान आदिनाथ, नेमीनाथ और भगवान महावीर समेत 21 तीर्थंकरों की प्रतिमाएं रखी गई हैं। प्रथम जैन तीर्थंकर आदिनाथ्ा, जिन्हें स्थानीय लोग माणिक्य देव कहते हैं, की प्रतिमा कोलनुपका में स्थापित की गई थी। वर्तमान मंदिर भी करीब 800 साल पुराना है। माना जाता है कि जैन इस क्षेत्र में चौथी शताब्दी से पहले आए थे और कोलनुपका उनका मुख्य केंद्र था।
श्री सीता राम चंद्र स्वामी देवस्थानम
संपादित करेंश्री सीता राम चंद्र स्वामी देवस्थानम मूल रूप से मलबोली में स्थित था। एक दिन भगवान ने कम्मामेटु शेशा चरयुलु और उनके भाई को सपने में दर्शन देकर कहा कि इसकी स्थापना और किसी स्थान पर की जाए। जिस स्थान पर बाद में इसे स्थापित किया गया उसे रामगिरी नाम दिया गया। करीब 200 साल पहले हुई इस घटना के बाद यहां का निरंतर विस्तार होता गया। बाद में यहां गोडादेवी की प्रतिमा भी स्थापित की गई। अंडालु कल्याणम यहां बड़े पैमाने पर मनाया जाता है।
मेल्लाचुरवु
संपादित करेंइसे दक्षिण काशी भी कहा जाता है। इसे गांव में स्वयंभू शंभूलिंगेश्वर स्वामी का प्रसिद्ध मंदिर है जहां काकतिय वास्तुशिल्प को देखा जा सकता है। यहां का प्रमुख आकर्षण एक शिवलिंग है जिसके ऊपर दो इंच गहरा छेद है जो हमेशा पानी से भरा रहता है। इस शिवलिंग के बारे में स्थानीय लोगों का मानना है कि इसकी ऊंचाई निरंतर बढ़ती रहती है और 0.305 मीटर बढ़ने पर इसमें गोल लाइन बन जाती है। महाशिवरात्रि के अवसर पर यहां कल्याणोत्सव मनाया जाता है जिसमें हजारों की संख्या में श्रद्धालु हिस्सा लेते हैं।
आवागमन
संपादित करें- वायु मार्ग: नजदीकी हवाई अड्डा हैदराबाद 149 किलोमीटर की दूर
- रेल मार्ग: नजदीकी रेलवे स्टेशन मचरला नागार्जुनसागर से 29 किलोमीटर की दूरी पर
- सड़क माग: हैदराबाद से यहां के लिए नियमित बस सेवा उपलब्ध है।
इन्हें भी देखें
संपादित करेंसन्दर्भ
संपादित करें- ↑ "Lonely Planet South India & Kerala," Isabella Noble et al, Lonely Planet, 2017, ISBN 9781787012394
- ↑ "Hand Book of Statistics, Andhra Pradesh," Bureau of Economics and Statistics, Andhra Pradesh, India, 2007
- ↑ "Contemporary History of Andhra Pradesh and Telangana, AD 1956-1990s," Comprehensive history and culture of Andhra Pradesh Vol. 8, V. Ramakrishna Reddy (editor), Potti Sreeramulu Telugu University, Hyderabad, India, Emesco Books, 2016