नागराज नागप्पा (१९१२ - 02 जुलाई २००९) भारत के प्रसिद्ध हिन्दीसेवी थे। गाँधीजी के आह्वान पर उन्होने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय आकर हिन्दी सीखी और दक्षिण भारत में इसका प्रचार-प्रसार किया। उन्हें 'हिन्दी नागप्पा' के नाम से जाना जाता है। उनकी सेवाओं के लिये केन्द्रीय हिन्दी संस्थान ने उन्हें १९८९ में 'सुब्रह्मण्यम भारती पुरस्कार' से सम्मानित किया।

परिचय संपादित करें

बेलगाँव सम्मलेन में नवयुवक नागप्पा जी ने गांधीजी के दर्शन किये और फिर हिन्दी के होकर रह गये। उस समय युवक नागराज नागप्पा गणित ( सांख्यिकी ) में बी ए कर चुके थे तथा कहीं भी अच्छी नौकरी पा सकते थे परन्तु उन्होंने दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा से राष्ट्र भाषा परीक्षा पास की तथा काशी जाकर वनारस हिन्दू वि वि से हिन्दी में एम् ए किया, जहां उन्होंने आचार्य रामचंद्र शुक्ल, श्यामसुन्दर दास जैसे हिन्दी के महारथियों के चरणों में बैठकर हिन्दी सीखी। इस प्रकार वे दक्षिण भारत में हिन्दी से एम् ए करने वाले प्रथम विद्वान् बने।

१९३५ में इंदौर सम्मलेन में गांधीजी व आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी के परामर्श पर वे पुनः दक्षिण लौटे एवं तत्कालीन मद्रास प्रान्त में हिन्दी प्रचारक के रूप में कार्य प्रारम्भ किया। धारवाड़ , मैसूर आदि कर्नाटक के सभी कालेजों में हिन्दी पठन पाठन, शोध आदि प्रारम्भ करने में उन्हीं का योगदान था। यद्यपि कन्नड के कवि-कुल गुरु व राष्ट्र कवि के वी पुटप्पा ( कु वें पु ) हिन्दी के पक्षधर नहीं थे परन्तु नागप्पा जी ने उन्हें भी मना कर हिन्दी का ध्वज फहराया। इस प्रकार सारे कर्नाटक व दक्षिण भारत में अपने अथक परिश्रम से जन जन में हिन्दी के प्रसार-प्रचार के प्रणेता बन कर वे 'हिन्दी नागप्पा" के नाम से प्रसिद्ध हुए।

उनके शिष्य-शिष्याओं, प्रसंशकों की संख्या समस्त दक्षिण भारत कर्नाटक व देश भर में फैली है। सेवा निवृत्ति के बाद भी वे कर्नाटक हिन्दी प्रचार समिति से जुड़े रहे एवं 'भाषा पीयूष' नामक पत्रिका प्रारम्भ की। वे भारत सरकार के विभिन्न संस्थानों के अध्यक्ष, परामर्श समितियों के सदस्य व केन्द्रीय हिन्दी संस्थान आगरा के अध्यक्ष रहे। उन्हें देश भर से तमाम पुरस्कार व सम्मान भी प्राप्त हुए। २००२ ई में ९० वर्ष की आयु में पूर्ण करने पर उन्हें 'पूर्ण-कुंभ’ अभिनन्दन ग्रन्थ भी समर्पित किया गया।

नागप्पा जी तुलसी दास के अनन्य भक्त व प्रशंसक थे। उनके मुंह से दोहेचौपाई धड़ाधड़ निकलते थे। अतः उन के बारे में 'नागप्पा जी व हिन्दी : कहियत भिन्न न भिन्न' कहा जाता है। एसे 'हिन्दी नागप्पा' ०६-०७-२००९ को स्मृति-शेष हो गए।

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