निर्मला पुतुल (जन्मः 6 मार्च 1972) बहुचर्चित संताली लेखिका, कवयित्री और सोशल एक्टिविस्स्ट हैं।[1] दुमका, संताल परगना (झारखंड) के दुधानी कुरुवा गांव में जन्मी निर्मला पुतुल हिंदी कविता में एक परिचित आदिवासी नाम है। पिता सिरील मुरमू (नहीं रहे) व मां कांदिनी हांसदा की पुत्री निर्मला ने राजनीतिशास्त्र में ऑनर्स हैं और नर्सिंग में डिप्लोमा किया है। [2]

इनकी प्रमुख कृतियों में ‘नगाड़े की तरह बजते शब्द’ और ‘अपने घर की तलाश में’ हैं।[3] इनकी कविताओं का अनुवाद अंग्रेजी, मराठी, उर्दू, उड़िया, कन्नड़, नागपुरी, पंजाबी, नेपाली में हो चुका है।

कविता लेखन के साथ-साथ पिछले 15 वर्षों से भी अधिक समय से निर्मला शिक्षा, सामाजिक विकास, मानवाधिकार और आदिवासी महिलाओं के समग्र उत्थान के लिए व्यक्तिगत और संस्थागत स्तर पर लगातार सक्रिय हैं। अनेक राज्य स्तरीय और राष्ट्रीय सम्मान हासिल कर चुकी निर्मला फिलहाल निर्वाचित मुखिया हैं। [4][5]

सन्दर्भ संपादित करें

  1. निर्मला पुतुल का संक्षिप्त परिचय | निर्मला पुतुल का जन्म एक आदिवासी परिवार में 1972 ई. में दुमका (झारखंड) में हुआ था। इनका आरंभिक जीवन बहुत संघर्षमय रहा। घर में शिक्षा का माहौल होने (पिता और चाचा शिक्षक थे) के बावजूद रोटी की समस्या से जूझने के कारण नियमित अध्ययन बाधित होता रहा। नर्स बनने पर आर्थिक कष्टों से मुक्ति मिल जाएगी, यह विचार कर इन्होंने नर्सिंग में डिप्लोमा किया और काफी समय बाद इग्नू से स्नातक की डिग्री प्राप्त की। संथाली समाज और उसके राग-बोध से गहरा जुड़ाव पहले से था, नर्सिंग की शिक्षा के समय बाहर की दुनिया से भी परिचय हुआ। दोनों समाजों की क्रिया-प्रतिक्रिया से वह बोध विकसित हुआ जिससे वह अपने परिवेश की वास्तविक स्थिति को समझने में सफल हो सकीं। इन्होंने आदिवासी समाज की विसंगतियों को तल्लीनता से उकेरा है-कड़ी मेहनत के बावजूद खराब दशा, कुरीतियों के कारण बिगड़ती पीढ़ी, थोड़े लाभ के लिए बड़े समझौते, पुरुष वर्चस्व, स्वार्थ के लिए पर्यावरण की हानि, शिक्षित समाज का दिक्कुओं और व्यवसायियों के हाथों की कठपुतली बनना आदि वे स्थितियाँ हैं जो पुतुल की कविताओं के केंद्र में हैं। वे आदिवासी जीवन के कुछ अनछुए पहलुओं से कलात्मकता के साथ हमारा परिचय कराती हैं और संथाली समाज के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलुओं को बेबाकी से सामने रखती हैं। संथाली समाज में जहाँ एक ओर सादगी, भोलापन, प्रकृति से जुड़ाव और कठोर परिश्रम करने की क्षमता जैसे सकारात्मक तत्त्व हैं, वहीं दूसरी ओर उस समाज में अशिक्षा, कुरीतियाँ और शराब की ओर बढ़ता झुकाव भी है। निर्मला पुतुल की प्रमुख रचनाएँ : नगाड़े की तरह बजते शब्द, अपने घर की तलाश में।
  2. लेखक निर्मला पुतुल का परिचय |
    

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    निर्मला पुतुल / परिचय

    नाम : निर्मला पुतुल

    जन्म : 06 मार्च 1972 ई.

    जन्म स्थान : गाँव - दुधनी कुरूवा, जिला - दुमका (संताल परगना, झारखंड)

    पिता : स्वर्गीय सिरील मुर्मू

    माता : श्रीमती कान्दनी हाँसदा

    शिक्षा : प्रारंभिक शिक्षा (दुमका), दुधनी कुरूवा एवं दुमका (जिला दुमका) से

         स्नातक (राजनीति शास्त्र में प्रतिष्ठा)

    अन्य योग्यता : नर्सिंग में डिप्लोमा

    भाषा ज्ञान  : संताली, हिन्दी, नागपुरी, बांग्ला, खोरठा, भोजपुरी, अंगिका, अंग्रेजी

    सामाजिक कार्य एवं भागीदारी

    विगत 15 वर्षों से भी अध्कि समय से शिक्षा, सामाजिक विकास, मानवाधिकार और आदिवासी महिलाओं के समग्र उत्थान के लिए व्यक्तिगत, सामूहिक एवं संस्थागत स्तर पर सतत सक्रिय। अनेक राज्य स्तरीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के साथ जुड़ाव। आदिवासी, महिला, शिक्षा और साहित्यिक विषयों पर आयोजित सम्मेलनों, आयोजनों, कार्यशालाओं एवं कार्यक्रमों में व्याख्यान व मुख्य भूमिका के लिए आमंत्रित। अनेक संगठनों व संस्थाओं की संस्थापक सदस्या। स्वास्थ्य परिचायिका के रूप में संताल परगना के ग्रामीण क्षेत्रों में विशेष कार्य।

    मुद्दों पर कार्य

    आदिवासी महिलाओं का विस्थापन, पलायन, उत्पीड़न, स्वास्थ्य, शिक्षा, जेन्डर संवेदनशीलता, मानवाधिकार एवं सम्पत्ति पर अधिकार

    शिक्षा क्षेत्र में भागीदारी

    ग्रामीण, पिछड़ी, दलित, आदिवासी, आदिम जनजाति महिलाओं के बीच शिक्षा एवं जागरूकता के लिए विशेष प्रयास।

    सामाजिक क्षेत्र में भागीदारी, कार्य एवं संबद्धता

    जीवन रेखा ट्रस्ट, संताल परगना (झारखंड) की संस्थापक-सचिव

    झारखंड नेशनल एलायंस ऑफ वीमेन, संताल परगना (झारखंड)

    झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा (झारखंड)

    जन संस्कृति मंच, उपाध्यक्ष, केन्द्रीय समिति, दिल्ली

         

    साहित्यिक योगदान

    मातृभाषा संताली (आदिवासी भाषा) में प्रकाशित पुस्तकें

    लेखन, संकलन एवं संपादन

    ईं×ााक् ओडाक् सेंदरा रे, (हिन्दी-संताली, रमणिका फाउण्डेशन, नई दिल्ली)

    ओनोंड़हें (संताली कविता संग्रह) शीघ्र प्रकाश्य

         

    हिन्दी में प्रकाशित कविता-संग्रह

    नगाड़े की तरह बजते शब्द (भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली)

    अपने घर की तलाश में (रमणिका फाउण्डेशन, नई दिल्ली)

    फूटेगा एक नया विद्रोह (शीघ्र प्रकाश्य)

         

    पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ

               - आदिवासी - झारखंड इनसाइक्लोपीडिया

               - जोहार - चाणक्या टुडे

               - चौमासा - द बुक एशिया

               - अरावली उद्घोष - प्रभात खबर

               - शाल-पत्र - हिन्दुस्तान

               - युद्धरत आम आदमी - दैनिक जागरण

               - देशज स्वर - हूल जोहार

               - कांची - सहयात्री

               - झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा - जोहार सहिया

               - गोतिया - वागर्थ

               - नया ज्ञानोदय - समकालीन भारतीय

               - लम्ही, द बुक एशिया के अलावा कई अन्य प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं व आलेखो का प्रकाशन।

               - आकाशवाणी एवं दूरदर्शन, रांची, भागलपुर व दिल्ली से अनेक कहानियाँ, कविताएँ और आलेखों का प्रसारण

               - एन.सी.ई.आर.टी, नई दिल्ली द्वारा झारखंड, बिहार, जम्मू-कश्मीर के ग्यारहवीं तथा एस.सी.ई.आर.टी.,केरल द्वारा नवीं कक्षा की पाठ्य पुस्तक में कविताएं शामिल

               - अंग्रेजी, मराठी, उर्दू, उड़िया, कन्नड़, नागपुरी, पंजाबी, नेपाली में कविताएँ अनुदित

                   संपादन

               - समय-समय पर स्थानीय व राष्ट्रीय स्तर के अनेक पत्र-पत्रिकाओं के संपादन, सह संपादन से संबद्ध

       

           सम्मान

               - साहित्य अकादमी, नई दिल्ली द्वारा ‘साहित्य सम्मान’ 2001 में

               - झारखंड सरकार द्वारा ‘राजकीय सम्मान’, 2006 में

               - झारखंड सरकार के कला-संस्कृति, खेलकूद एवं युवा कार्य विभाग द्वारा

                   सम्मानित व पुरस्कृत, 2006 में

               - हिन्दी साहित्य परिषद्, मैथन द्वारा सम्मानित, 2006 में

               - ‘मुकुट बिहारी सरोज स्मृति सम्मान’, ग्वालियर द्वारा, 2006 में

               - ‘भारत आदिवासी सम्मान’, मिजोरम सरकार द्वारा 2006 में

               - ‘विनोबा भावे सम्मान’ नगरी लिपि परिषद्, दिल्ली द्वारा 2006 में

               - ‘हेराल्ड सैमसन टोपनो स्मृति सम्मान’, झारखण्ड, 2006 में,

               - ‘बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान’, बिहार, 2007 में

               - ‘शिला सिद्धान्तकर स्मृति सम्मान’, नई दिल्ली, 2008 में

               - महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी द्वारा सम्मानित, 2008 में

               - हिमाचल प्रदेश हिन्दी साहित्य अकादमी्, द्वारा सम्मानित, 2008 में

               - ‘राष्ट्रीय युवा पुरस्कार’, भारतीय भाषा परिषद्, कोलकत्ता द्वारा, 2009 में

           फेलोशिप/रिसर्च

               - एन.एफ.आई. मीडिया फेलोशिप, नई दिल्ली, 2006 में

               - पेनोस मीडिया फेलोशिप, नई दिल्ली, 2007 में

               - एरगेनियन असिस्टेन्ट संस्था, दुमका द्वारा महिला हिंसा पर फेलोशिप

               - जे.एन.यू (नई दिल्ली), दिल्ली विश्वविद्यालय, (नई दिल्ली), संस्कृत विश्वविद्यालय, (केरल), विलासपुर विश्वविद्यालय, (मध्यप्रदेश) हैदराबाद हिन्दी विश्वविद्यालय (हैदराबाद) के रिसर्च छात्रों एवं प्राध्यापकों द्वारा कविताओं पर विशेष शोध अध्ययन एवं शोध प्रबंध प्रकाशित

                   ऑडियो-विजुवल

               - जीवन पर आधरित फिल्म ‘बुरू-गारा’, जिसे 2010 में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्राप्त हुआ।

           सम्प्रति

               - सचिव, जीवन रेखा, अपना पूरा समय लेखन, सामाजिक एवं शैक्षणिक कार्यों को समर्पित

    सम्पर्क पता:

                   निर्मला पुतुल

                   सचिव

                   जीवन रेखा

                   दुधनी कुरूवा, दुमका - 814101 झारखंड

  3. निर्मला पुतुल की कविताएँ | मेरा सब कुछ अप्रिय है उनकी नज़र में निर्मला पुतुल वे घृणा करते हैं हमसे हमारे कालेपन से हँसते हैं, व्यंग्य करते हैं हम पर हमारे अनगढ़पन पर कसते हैं फब्तियाँ मज़ाक़ उड़ाते हैं हमारी भाषा का हमारे चाल-चलन रीति-रिवाज कुछ पसंद नहीं उन्हें पसंद नहीं है, हमारा पहनावा-ओढ़ावा जंगली, असभ्य, पिछड़ा कह हिक़ारत से देखते हैं हमें और अपने को सभ्य श्रेष्ठ समझ नकारते हैं हमारी चीज़ों को वे नहीं चाहते हमारे हाथों का छुआ पानी पीना हमारे हाथों का बना भोजन सहज ग्राह्य नहीं होता उन्हें वर्जित है उनके घरों में हमारा प्रवेश वे नहीं चाहते सीखना हमारे बीच रहते, हमारी भाषा चाहते हैं, उनकी भाषा सीखें हम और उन्हीं की भाषा में बात करें उनसे उनका तर्क है कि सभ्य होने के लिए ज़रूरी है उनकी भाषा सीखना उनकी तरह बोलना-बतियाना उठना-बैठना ज़रूरी है सभ्य होने के लिए उनकी तरह पहनना-ओढ़ना मेरा सब कुछ अप्रिय है उनकी नज़र में प्रिय है तो बस मेरे पसीने से पुष्ट हुए अनाज के दाने जंगल के फूल, फल, लकड़ियाँ खेतों में उगी सब्ज़ियाँ घर की मुर्ग़ियाँ उन्हें प्रिय है मेरी गदराई देह मेरा मांस प्रिय है उन्हें! स्रोत : पुस्तक : नगाड़े की तरह बजते शब्द (पृष्ठ 72) रचनाकार : निर्मला पुतुल प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण : 2005 क्या तुम जानते हो निर्मला पुतुल क्या तुम जानते हो पुरुष से भिन्न एक स्त्री का एकांत? घर, प्रेम और जाति से अलग एक स्त्री को उसकी अपनी ज़मीन के बारे में बता सकते हो तुम? बता सकते हो सदियों से अपना घर तलाशती एक बेचैन स्त्री को उसके घर का पता? क्या तुम जानते हो अपनी कल्पना में किस तरह एक ही समय में स्वयं को स्थापित और निर्वासित करती है एक स्त्री? सपनों में भागती एक स्त्री का पीछा करते कभी देखा है तुमने उसे रिश्तों के कुरुक्षेत्र में अपने आपसे तड़ते? तन के भूगोल से परे स्त्री के मन की गाँठें खोल कर कभी पढ़ा है तुमने उसके भीतर का खौलता इतिहास? पढ़ा है कभी उसकी चुप्पी की दहलीज़ पर बैठ शब्दों की प्रतीक्षा में उसके चेहरे को? उसके अंदर वंशबीज बाते क्या तुमने कभी महसूसा है उसकी फैलती जड़ों को अपने भीतर? क्या तुम जानते हो एक स्त्री के समस्त रिश्ते का व्याकरण? बता सकते हो तुम एक स्त्री को स्त्री-दृष्टि से देखते उसके स्त्रीत्व की परिभाषा? अगर नहीं! तो फिर जानते क्या हो तुम रसोई और बिस्तर के गणित से परे एक स्त्री के बारे में...? स्रोत : पुस्तक : नगाड़े की तरह बजते शब्द (पृष्ठ 7) रचनाकार : निर्मला पुतुल प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण : 2005 संबंधित विषय स्त्री मेरे एकांत का प्रवेश-द्वार निर्मला पुतुल यह कविता नहीं मेरे एकांत का प्रवेश-द्वार है यहीं आकर सुस्ताती हूँ मैं टिकाती हूँ यहीं अपना सिर ज़िंदगी की भाग-दौड़ से थक-हारकर जब लौटती हूँ यहाँ आहिस्ता से खुलता है इसके भीतर एक द्वार जिसमें धीरे से प्रवेश करती मैं तलाशती हूँ अपना निजी एकांत यहीं मैं वह होती हूँ जिसे होने के लिए मुझे कोई प्रयास नहीं करना पड़ता पूरी दुनिया से छिटककर अपनी नाभि से जुड़ती हूँ यहीं! मेरे एकांत में देवता नहीं होते न ही उनके लिए कोई प्रार्थना होती है मेरे पास दूर तक पसरी रेत जीवन की बाधाएँ कुछ स्वप्न और प्राचीन कथाएँ होती हैं होती है— एक धुँधली-सी धुन हर देश-काल में जिसे अपनी-अपनी तरह से पकड़ती स्त्रियाँ बाहर आती हैं अपने आपसे मैं कविता नहीं शब्दों में ख़ुद को रचते देखती हूँ अपनी काया से बाहर खड़ी होकर अपना होना! स्रोत : पुस्तक : नगाड़े की तरह बजते शब्द (पृष्ठ 88) रचनाकार : निर्मला पुतुल प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण : 2005 संबंधित विषय कविता स्त्री एकांत उतनी दूर मत ब्याहना बाबा! निर्मला पुतुल बाबा! मुझे उतनी दूर मत ब्याहना जहाँ मुझसे मिलने जाने ख़ातिर घर की बकरियाँ बेचनी पड़े तुम्हें मत ब्याहना उस देश में जहाँ आदमी से ज़्यादा ईश्वर बसते हों जंगल नदी पहाड़ नहीं हों जहाँ वहाँ मत कर आना मेरा लगन वहाँ तो क़तई नहीं जहाँ की सड़कों पर मन से भी ज़्यादा तेज़ दौड़ती हों मोटरगाड़ियाँ ऊँचे-ऊँचे मकान और बड़ी-बड़ी दुकानें उस घर से मत जोड़ना मेरा रिश्ता जिस में बड़ा-सा खुला आँगन न हो मुर्ग़े की बाँग पर होती नहीं हो जहाँ सुबह और शाम पिछवाड़े से जहाँ पहाड़ी पर डूबता सूरज न दिखे मत चुनना ऐसा वर जो पोचई और हड़िया में डूबा रहता हो अक्सर काहिल-निकम्मा हो माहिर हो मेले से लड़कियाँ उड़ा ले जाने में ऐसा वर मत चुनना मेरी ख़ातिर कोई थारी-लोटा तो नहीं कि बाद में जब चाहूँगी बदल लूँगी अच्छा-ख़राब होने पर जो बात-बात में बात करे लाठी-डंडा की निकाले तीर-धनुष, कुल्हाड़ी जब चाहे चला जाए बंगाल, असम या कश्मीर ऐसा वर नहीं चाहिए हमें और उसके हाथ में मत देना मेरा हाथ जिसके हाथों ने कभी कोई पेड़ नहीं लगाए फ़सलें नहीं उगाईं जिन हाथों ने जिन हाथों ने दिया नहीं कभी किसी का साथ किसी का बोझ नहीं उठाया और तो और! जो हाथ लिखना नहीं जानता हो ‘ह’ से हाथ उसके हाथ मत देना कभी मेरा हाथ! ब्याहना हो तो वहाँ ब्याहना जहाँ सुबह जाकर शाम तक लौट सको पैदल मैं जो कभी दुख में रोऊँ इस घाट तो उस घाट नदी में स्नान करते तुम सुनकर आ सको मेरा करुण विलाप महुआ की लट और खजूर का गुड़ बनाकर भेज सकूँ संदेश तुम्हारी ख़ातिर उधर से आते-जाते किसी के हाथ भेज सकूँ कद्दू-कोहड़ा, खेखसा, बरबट्टी समय-समय पर गोगो के लिए भी मेला-हाट-बाज़ार आते-जाते मिल सके कोई अपना जो बता सके घर-गाँव का हाल-चाल चितकबरी गैया के बियाने की ख़बर दे सके जो कोई उधर से गुज़रते ऐसी जगह मुझे ब्याहना! उस देश में ब्याहना जहाँ ईश्वर कम आदमी ज़्यादा रहते हों बकरी और शेर एक घाट पानी पीते हों जहाँ वहीं ब्याहना मुझे! उसी के संग ब्याहना जो कबूतर के जोड़े और पंडुक पक्षी की तरह रहे हरदम हाथ घर-बाहर खेतों में काम करने से लेकर रात सुख-दुख बाँटने तक चुनना वर ऐसा जो बजाता हो बाँसुरी सुरीली और ढोल-माँदल बजाने में हो पारंगत वसंत के दिनों में ला सके जो रोज़ मेरे जूड़े के ख़ातिर पलाश के फूल जिससे खाया नहीं जाए मेरे भूखे रहने पर उसी से ब्याहना मुझे! स्रोत :पुस्तक : नगाड़े की तरह बजते शब्द (पृष्ठ 49) रचनाकार : निर्मला पुतुल प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण : 2005 संबंधित विषय पिता स्त्री बेटी आदिवासी विवाह अपने घर की तलाश में निर्मला पुतुल अंदर समेटे पूरा का पूरा घर मैं बिखरी हूँ पूरे घर में पर यह घर मेरा नहीं है बरामदे पर खेलते बच्चे मेरे हैं घर के बाहर लगी नेम-प्लेट मेरे पति की है मैं धरती नहीं पूरी धरती होती है मेरे अंदर पर यह नहीं होती मेरे लिए कहीं कोई घर नहीं होता मेरा बल्कि मैं होती हूँ स्वयं एक घर जहाँ रहते हैं लोग निर्लिप्त गर्भ से लेकर बिस्तर तक के बीच कई-कई रूपों में... धरती के इस छोर से उस छोर तक मुट्ठी भर सवाल लिए मैं छोड़ती-हाँफती-भागती तलाश रही हूँ सदियों से निरंतर अपनी ज़मीन, अपना घर अपने होने का अर्थ! स्रोत : पुस्तक : नगाड़े की तरह बजते शब्द (पृष्ठ 30) रचनाकार : निर्मला पुतुल प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण : 2005 संबंधित विषय स्त्री घर उतनी ही जनमेगी निर्मला पुतुल! निर्मला पुतुल यह तो लगी है आग इस छोर से उस छोर तक तुम्हारी व्यवस्था में उसमें जल रही हूँ मैं और रह-रहकर भड़क रही है मेरे भीतर आग... इसलिए चुप नहीं रहूँगी अब उगलूँगी तुम्हारे विरुद्ध आग तुम मना करोगे जितना उतनी ही ज़ोर से चीख़ूँगी मैं मुझे पता है झल्लाकर उठाओगे पत्थर और दे मारोगे सिर पर मेरे पर याद रहे नहीं टूटूँगी इस बार बिखरूँगी नहीं तिनके की भाँति तुम्हारे भय की आँधी से अबकी फूटेगा नहीं मेरा सिर चकनाचूर हो जाएँगे बल्कि तुम्हारे हाथ के पत्थर और अगर किसी तरह हारी इस बार भी तो कर लो नोट दिमाग़ की डायरी में आज की तारीख़ के साथ कि गिरेंगी जितनी बूँदें लहू की धरती पर उतनी ही जनमेगी निर्मला पुतुल हवा में मुट्ठी-बँधे हाथ लहराते हुए! स्रोत : पुस्तक : नगाड़े की तरह बजते शब्द (पृष्ठ 90) रचनाकार : निर्मला पुतुल प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण : 2005 संबंधित विषय स्त्री प्रतिरोध आदिवासी आदिवासी स्त्रियाँ निर्मला पुतुल उनकी आँखों की पहुँच तक ही सीमित होती उनकी दुनिया उनकी दुनिया जैसी कई-कई दुनियाएँ शामिल हैं इस दुनिया में नहीं जानतीं वे वे नहीं जानतीं कि कैसे पहुँच जाती हैं उनकी चीज़ें दिल्ली जबकि राजमार्ग तक पहुँचने से पहले ही दम तोड़ देतीं उनकी दुनिया की पगडंडियाँ नहीं जानतीं कि कैसे सूख जाती हैं उनकी दुनिया तक आते-आते नदियाँ तस्वीरें कैसे पहुँच जातीं हैं उनकी महानगर नहीं जानतीं वे! नहीं जानतीं!! स्रोत :पुस्तक : नगाड़े की तरह बजते शब्द (पृष्ठ 11) रचनाकार : निर्मला पुतुल प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण : 2005 संबंधित विषय स्त्री आदिवासी आदिवासी लड़कियों के बारे में निर्मला पुतुल ऊपर से काली भीतर से अपने चमकते दाँतों की तरह शांत धवल होती हैं वे वे जब हँसती हैं फेनिल दूध-सी निश्छल हँसी तब झर-झराकर झरते हैं... पहाड़ की कोख में मीठे पानी के सोते जूड़े में खोंसकर हरी-पीली पत्तियाँ जब नाचती हैं क़तारबद्ध माँदल की थाप पर आ जाता जब असमय वसंत वे जब खेतों में फ़सलों को रोपती-काटती हुई गाती हैं गीत भूल जाती हैं ज़िंदगी के दर्द ऐसा कहा गया है किसने कहे हैं उनके परिचय में इतने बड़े-बड़े झूठ? किसने? निश्चय ही वह हमारी जमात का खाया-पीया आदमी होगा... सच्चाई को धुँध में लपेटता एक निर्लज्ज सौदागर ज़रूर वह शब्दों से धोखा करता हुआ कोई कवि होगा मस्तिष्क से अपाहिज! स्रोत : पुस्तक : नगाड़े की तरह बजते शब्द (पृष्ठ 17) रचनाकार : निर्मला पुतुल प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण : 2005 संबंधित विषय स्त्री आदिवासी बिटिया मुर्मू के लिए निर्मला पुतुल एक उठो कि अपने अँधेरे के ख़िलाफ़ उठो उठो अपने पीछे चल रही साज़िश के ख़िलाफ़ उठो, कि तुम जहाँ हो वहाँ से उठो जैसे तूफ़ान से बवंडर उठता है उठती है जैसी राख में दबी चिनगारी देखो! अपनी बस्ती के सीमांत पर जहाँ धराशायी हो रहे हैं पेड़ कुल्हाड़ियों के सामने असहाय रोज़ नंगी होती बस्तियाँ एक रोज़ माँगेंगी तुमसे तुम्हारी ख़ामोशी का जवाब सोचा— तुम्हारे पसीने से पुष्ट हुए दाने एक दिन लौटते हैं तुम्हारा मुँह चिढ़ाते तुम्हारी ही बस्ती की दुकानों पर कैसा लगता है तुम्हें जब तुम्हारी ही चीज़ें तुम्हारी पहुँच से दूर होती दिखती हैं? दो इन सदियों का क्या है आएँगी... जाएँगी... क्या अब भी विश्वास करने लायक़ बचा है यह समय? तुम्हारे विश्वास की जड़ें आख़िर कितनी गहरी हैं समय के द्वारा लगातार कुतरे जाने के बावजूद? क्या वे पाताल में गई हैं...? जबकि तुम्हारे हिस्से में भूख और थकान के सिवा सिवा एक बेहतर ज़िंदगी की उम्मीद के शायद कुछ भी नहीं है... विडंबना ही है— कि ईश्वर पर सबसे ज़्यादा कैसे करती हो विश्वास...? तीन वे दबे-पाँव आते हैं तुम्हारी संस्कृति में वे तुम्हारे नृत्य  बड़ाई करते हैं वे तुम्हारी आँखों की प्रशंसा में क़सीदे पढ़ते हैं वे कौन हैं...? सौदागर हैं वे... समझो... पहचानो उन्हें बिटिया मुर्मू... पहचानो! पहाड़ों पर आग वे ही लगाते हैं उन्हीं की दुकानों पर तुम्हारे बच्चों का बचपन चीत्कारता है उन्हीं की गाड़ियों पर तुम्हारी लड़कियाँ सब्ज़बाग़ देखने कलकत्ता और नेपाल के बाज़ारों में उतरती हैं नगाड़े की आवाज़ें कितनी असमर्थ बना दी गई हैं जाने उसे...!   स्रोत :पुस्तक : नगाड़े की तरह बजते शब्द (पृष्ठ 14) रचनाकार : निर्मला पुतुल प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण : 2005 संबंधित विषय आदिवासी जो कुछ देखा-सुना, समझा, लिख दिया निर्मला पुतुल बिना किसी लाग-लपेट के तुम्हें अच्छा लगे, ना लगे, तुम जानो चिकनी-चुपड़ी भाषा की उम्मीद न करो मुझसे जीवन के ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर चलते मेरी भाषा भी रूखड़ी हो गई है मैं नहीं जानती कविता की परिभाषा छंद, लय, तुक का कोई ज्ञान नहीं मुझे और न ही शब्दों और भाषाओं में है मेरी पकड़ घर-गृहस्थी सँभालते लड़ते अपने हिस्से की लड़ाई जो कुछ देखा-सुना-भोगा बोला-बतियाया आस-पड़ोस में संगी-साथी से लिख दिया सीधा-सीधा समय की स्लेट पर टेढ़े-मेढ़े अक्षरों में, जैसे-तैसे तुम्हारी मर्ज़ी तुम पढ़ो न पढ़ो! मिटा दो, या कर दो नष्ट पूरी स्लेट ही पर याद रखो। फिर कोई आएगा, और लिखे-बोलेगा वही सब कुछ जो कुछ देखे-सुनेगा भोगेगा तुम्हारे बीच रहते तुम्हारे पास शब्द हैं, तर्क हैं, बुद्धि है पूरी की पूरी व्यवस्था है तुम्हारे हाथों तुम सच को झुठला सकते हो बार-बार बोलकर कर सकते हो ख़ारिज एक वाक्य में सब कुछ मेरा आँखों देखी को ग़लत साबित कर सकते हो तुम जानती हूँ मैं पर मत भूलो! अभी पूरी तरह ख़त्म नहीं हुए सच को सच और झूठ को पूरी ताक़त से झूठ कहने वाले लोग! स्रोत : पुस्तक : नगाड़े की तरह बजते शब्द (पृष्ठ 94) रचनाकार : निर्मला पुतुल प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण : 2005 संबंधित विषय स्त्री आदिवासी अभी खूँटी में टाँगकर रख दो माँदल निर्मला पुतुल ऐ मीता! मत बजाओ जब-तब बाँसुरी कह दो अपने संगी-साथी से बजाए नहीं असमय ढोल माँदल रसोई में भात पकाते थिरकने लगते हैं मेरे पाँव मन उड़ियाने लगता है रूई के फाहे-सा दसों दिस अभी बहुत सारा काम पड़ा है घर-गृहस्थी का गाय गोहाल के गोबर में फँसी है लानी है जंगल से लकड़ियाँ भी घड़ा लेकर जाना है पानी लाने झरने पर और पहुँचाना है खेत पर बापू को कलेवा देखो सब कुछ गड़बड़ हो जाएगा सुननी पड़ेगी माँ से डाँट इसलिए मेरा कहा मानो अभी रख दो छप्पर में खोंसकर बाँसुरी टाँग दो खूँटी पर माँदल और लाओ अपनी कला अँचरा में बाँधकर रख लूँ मैं लौटा दूँगी वापस बँधना में तब जी भरके बजाना मैं भी मन-भर नाचूँगी संग तुम्हारे तब तक के लिए लाओ तुम्हारी कला अँचरा में बाँधकर रख लूँ मैं! स्रोत : पुस्तक : नगाड़े की तरह बजते शब्द (पृष्ठ 78) रचनाकार : निर्मला पुतुल प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण : 2005 संबंधित विषय आदिवासी संथाल परगना निर्मला पुतुल संथाल परगना अब नहीं रह गया संथाल परगना! बहुत कम बचे रह गए हैं अपनी भाषा और वेशभूषा में यहाँ के लोग बाज़ार की तरफ़ भागते सब कुछ गड्डमड्ड हो गया है इन दिनों यहाँ उखड़ गए हैं बड़े-बड़े पुराने पेड़ और कंक्रीट के पसरते जंगल में खो गई है इसकी पहचान कायापलट हो रही है इसकी तीर-धनुष-माँदल-नगाड़ा-बाँसुरी सब बटोर लिए जा रहे हैं लोक-संग्रहालय समय की मुर्दागाड़ी में लाद कर इसकी बेहतरी के लिए कुकुरमुत्ते की तरह उगी संस्थाओं में तथाकथित समाज-सेवक हैं अफ़सर हैं, चमचे हैं, ठेकेदार हैं, बिचौलिए हैं और वे सबके सब हाथों में खुली रंगीन बोतलें लिए बना रहे हैं राउंड-टेबुल पर योजनाएँ बोतलों में नशा है नशे में तैरती नशे में तैरती गदरई देहवाली कई-कई आदिवासी लड़कियाँ हैं आदिवासी लड़कियों के पास सपने हैं सपनों में अधूरी इच्छाएँ हैं भूख है, भूख में दूर तक पसरी ऊबड़-खाबड़ धरती है धरती पर काले नंगे पहाड़ हैं पहाड़ पर वीरानियाँ... बस!!! और क्या है संथाल परगना में? उतना भी बच नहीं रह गया ‘वह’ संथाल परगना में जितने कि उनकी संस्कृति के क़िस्से! पुस्तक : नगाड़े की तरह बजते शब्द (पृष्ठ 26) रचनाकार : निर्मला पुतुल प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण : 2005 संबंधित विषय आदिवासी
  4. निर्मला पुतुल को युवा पुरस्कार | संथाली भाषा साहित्य की ख्यात कवयित्री निर्मला पुतुल को भारतीय भाषा परिषद ने सन 2008 के युवा पुरस्कार के लिए चयनित किया है। वह पिछले 35 वर्ष से भारतीय भाषा-साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में सक्रिय रही हैं। निर्मला भारत की विविधता में एकता के तत्व ढूंढ़ती रही है और इस क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान करनेवालों को पुरस्कृत करती रही हैं। निर्मला पुतुल समेत इस पुरस्कार के लिए चयनित हिन्दी लेखिका अल्पना मिश्रा, ख्यात तमिल लेखक एस श्रीराम और पंजाबी लेखक मधुमित बावा को 18 अप्रैल को कोलकाता में एक समारोह में पुरस्कार राशि, स्मृति चिह्न और प्रशस्ति पत्र से सम्मानित किया जायेगा। ज्ञातव्य है कि कवयित्री निर्मला पुतुल को 2001 का साहित्य सम्मान समेत अनेक पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। यह जानकारी भारतीय भाषा परिषद की ओर से दी गयी है।
  5. निर्मला पुतुल को शैलप्रिया स्मृति सम्मान | https://www.prabhatkhabar.com/news/64273.aspx[मृत कड़ियाँ]