निशान सिंह
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निशान सिंह भारत के लिए कुर्बान होने वाले वीर सपूत थे जिन्होने सन् १८५७ से स्वतंत्रता के प्रथम संग्राम में अपनी वीरता का परिचय दिया था। निशान सिंह की स्मृति में गांव में एक विद्यालय व एक पुस्तकालय संचालित हो रहा है।
परिचय
संपादित करेंबिहार के शिवसागर प्रखंड के बड्डी गांव के रहने वाले जमीनदार रघुवर दयाल सिंह के पुत्र निशान सिंह सैन्य संचालन में माहिर थे। 1857 के सिपाही विद्रोह में निशान सिंह ने सैनिकों का नेतृत्व किया था। आरा जेल की फाटक तोड़ बंदियों को मुक्त कराने के बाद बांदा, काल्पी की लड़ाई में भी अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए। उस समय लखनऊ के नवाब ने उनके अदम्य साहस को देखते हुए 1230 रुपये के पुरस्कार के साथ आजमगढ़ के शासन का फरमान भी जारी कर दिया। आजमगढ़ किले पर धावा बोल अंग्रेजों को परास्त किया। बिहार में बाबू कुंवर सिंह के दाहिने हाथ माने जाने वाले बाबू निशान सिंह ने कदम-कदम पर उनका साथ दिया।
आजमगढ़ के बाद जगदीशपुर का सफर
संपादित करेंआजमगढ़ में सफलता के बाद बाबू कुंवर सिंह ने निशान सिंह और दो हजार सैनिकों के साथ जगदीशपुर की तरफ प्रस्थान किया। 26 अप्रैल 1858 को कुंवर सिंह के निधन के बाद निशान सिंह खुद को कमजोर महसूस करने लगे। अंग्रेजों द्वारा गांव की संपत्ति जब्त किये जाने के बाद वे डुमरखार के समीप जंगल की एक गुफा में रहने लगे। जिसे आज निशान सिंह मान के नाम से जाना जाता है। आने-जाने वाले सभी लोगों से वे अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई जारी रखने का आह्वान करते थे।
5 जून 1858 को गिरफ्तारी
संपादित करेंपांच जून 1858 को सासाराम लेवी के डिप्टी सुपरिटेंडेंट कैप्टन नोलन द्वारा उन्हें गिरफ्तार किया गया। 6 जून को सासाराम ला आफिसर कमांडिंग कर्नल स्टार्टेन के सिपुर्द किया गया। जहां कोर्ट मार्शल द्वारा मुकदमा चलाने और गिरफ्तारी के 36 घंटे के अंदर उन्हें तोप से उड़ाने का आदेश दिया गया। 7 जून 1858 को, सुबह गौरक्षणी मुहल्ले में तोप के मुंह पर बांधकर अंग्रेजों ने उन्हें उड़ा दिया। कोर्ट मार्शल के दौरान उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई जारी रखने का आह्वान किया।