न्याय(बौद्ध)
अयुर्वेद कि परिभासा : साधारन शब्दो मे अयुर्वेद से आशय मनुस्य के मनसिक एवम शारिरीक स्वास्थ्य को बनाये रखने के लिये व व्यधि ग्रस्त होने पर व्यधि विनाश हेतु जिस ग्यान कि आवश्यकता होती है उसका नाम ही अयुर्वेद है,; शास्त्रोनुसार अयुर्वेद कि परिभासा : अयुरसिम्न विधते अने वायूर्विन्दति इत्यायुर्वेद:। आयु कि परिभासा : शरिरेन्द्रियसत्वात्म्सयोगो आयुरुच्चयते, अर्थात शरिर, इन्द्रिय, मन तथा आत्मा के सयोग को आयु कहते है। पुरुष कि परिभासा : भारतीय दर्शन मे चेतना तत्व को पुरुष कहा है "पुरिवसति इति पुरुष्" अर्थात जो शरिर मे रहेता है उसे पुरुष कहते है से किया गया है पर अयुर्वेद के अनुसार अकाश, वायु, जल, तेज तथा प्रुथ्वि के पच्भुतात्मक शरिर एवम चेतना के उतपन्न करने वाली चेतना (आत्मा) से युक्त इन ६ धातुओ के समुदाय को पुरुष कहा गया है। कर्म पुरुष के गुनः सुख, दुख, इच्क्षा, दुवेष्, प्रय्तन, प्रान, अपान, उन्मेष्, निमेष्, बुद्दि, मन, विचारन स्मुर्ति, विग्यान्, अध्यवसाय्, विषयोप्लब्धि ये सोलहा गुन है। दोषो कि पारिभासः दुषयनतिती दोषा:। जो शरिर (शरिरगत धअतुओ) को दुषित करे उसे दोष कह्ते है शरिर दोष तीन है : वात्, पित्, कफ, शरिर मे नभि के नीचे वात का स्थान है मध्य अर्थात नाभि तथा ह्र्दय के मध्य पित का स्थान है तथा ह्र्दय से उपर कफ का स्थान है। मुख्यतः दोषो का कार्य क्षेत्र समस्त शरिर है। शरिर मे इनकी क्रियाये निरन्तर अबाध गति से होति रहती है। दोषो कि साम्यावस्था इनकी सुक्ष्मावस्था है, इस समय शरिर मे इनकी क्रियाओ का भान नही होता यधपि ये क्रियाये निरन्तर चलती रहती है। जिस समय इनकी असाम्य क्रियाओ का प्रभाव शरिर मे प्रकत हो जाता है यह दोषो की स्थुलावस्था होती है इस अवस्था मे शरिर के जिन स्थानो पर दोषो कि क्रियाशीलता का पता चलता है उन स्थानो को दोषो का स्थान कहते है। वात के स्थान : वस्ति -मुत्राशय, पुरिषाधान्, श्रोनि भाग, सकिथनी, पाद्, ओर अस्थिया वात के स्थान है। --वात के गुन : वात रुक्ष्, शीत्, लघु, सुक्ष्म्, चल विशद्, ओर खर गुन युक्त समस्त शरिर मे विचरन करने वाला है वात के ये गुन अव्यक्त रूप से उपस्थित रहते है इनकि व्यक्त्तता वात के कर्मो से प्रकत होति है वात मे अकाश ओर् वायु के गुन होते है तथा रजो गुन प्रधान होता है। पित के स्थान : स्वेद, रस, लसीका, रक्त्, ओर अमाशय ये पित के स्थान है इनमे से भी अमाशय पित का मुख्य स्थान है।--पित के गुन : ईषत् इस्नग्ध्, उस्न, द्र्व, सर, कत्तु, रुक्ष, लघु, विशद्, पीत्, नील्, तथा अम्ल ये पित के गुन है मानसिक गुन मे सत्व गुन प्रधान होता है कफ् के स्थान :उर्, सिर, ग्रिवा, पर्व, अमाशय, तथा मेद ये कफ् के स्थान है।--कफ् के गुनः गुरु, शीत्, म्रुदु, स्थिर, शवेत्, मन्द्, प्राक्र्तावस्था मे मधुर रस तथा वेक्रतावस्था मे लवन रस तथा तमो गुन प्रधान होता है। प्रान :अयुर्वेद मे निम्न वर्नित बारहा को प्रान कहा गया है कियोकी इनके द्दारा प्रानो का रक्षन होता है : (अग्नि: सोमो वायु:सत्वम्, रज्स्तमःपचेन्द्रियानी भुतात्मेति प्राना:) अर्थात अग्नि, सोम्, वायु, सत्व, रज्, तम्, पाच ग्यानेद्रिय ओर भुतात्मा ये प्रान है।