पटौला साड़ी, हथकरघे से बनी एक प्रकार की साड़ी है जो गुजरात के पाटण में बनायी जाती है। यह प्रायः रेशम की बनती है। 'पटोला' शब्द बहुवचन का शब्द है जिसका एकवचन 'पटोलू' है। पटोला साड़ियाँ बहुत कीमती होतीं हैं। किसी समय ये वस्त्र राजघराने या धनाढ्य लोग ही पहनने की क्षमता रखते थे।

१८वीं शताब्दी के अन्त का या १९वीं शताब्दी के आरम्भ का पटोला वस्त्र

इसे दोनों तरफ से बनाया जाता है। यह काफी महीन काम है। पूरी तरह सिल्क से बनी इस साड़ी को वेजिटेबल डाई या फिर कलर डाई किया जाता है। यह काम करीब सात सौ साल पुराना है। हथकरघे से बनी इस साड़ी को बनाने में करीब एक साल लग जाता है। यह साड़ी मार्केट में भी नहीं मिलती।

पटोला साड़ियां बनाने के लिए रेशम के धागों पर डिजाइन के मुताबिक वेजीटेबल और केमिकल कलर से रंगाई की जाती है। फिर हैंडलूम पर बुनाई का काम होता है। पूरी साड़ी की बुनाई में एक धागा डिजाइन के अनुसार विभिन्न रंगों के रूप में पिरोया जाता है। यही कला क्रास धागे में भी अपनाई जाती है। इस कार्य में ज्यादा मेहनत की जरूरत होती है। अलग-अलग रेज की साड़ियों को दो बुनकर कम से कम 15 से 20 दिन और अधिकतम एक वर्ष में पूरा कर पाते है। इन साड़ियों की कीमत भी बुनकरों के परिश्रम व माल की लागत के हिसाब से पांच हजार रुपये से लेकर दो लाख रुपये तक होती है।

सस्ती साड़ियों में केवल एक साइड के बाने में बुनाई की जाती है, जबकि महंगी साड़ी के ताने-बाने में दोनों तरफ के धागों पर डिजाइन कर बुनाई की जाती है। दोनों साइड वाली महंगी साड़ियां 80 हजार रुपये से दो लाख रुपये तक की लागत में तैयार हो पाती है। डबल इकत पटौला साड़ी के रूप में जानी जाने वाली यह बुनकरी कला अब लुप्त होने के कगार पर है। मुगल काल के समय गुजरात में इस कला को लगभग 250 परिवारों ने अपनाया था। लागत के हिसाब से बाजार में कीमत न मिल पाना इस कला के सिमटने का प्रमुख कारण है।