पतंग एक धागे के सहारे उड़ने वाली वस्तु है जो धागे पर पडने वाले तनाव पर निर्भर करती है। पतंग तब हवा में उठती है जब हवा (या कुछ मामलों में पानी) का प्रवाह पतंग के ऊपर और नीचे से होता है, जिससे पतंग के ऊपर कम दबाव और पतंग के नीचे अधिक दबाव बनता है। यह विक्षेपन हवा की दिशा के साथ क्षैतिज खींच भी उत्पन्न करता है। पतंग का लंगर बिंदु स्थिर या चलित हो सकता है।

योकाइची विशाल पतंग महोत्सव्स, जो हर वर्ष मई के चौथे रविवार को जापान के हिगाशियोमी में मनाया जाता है।

पतंग आमतौर पर हवा से भारी होती है, लेकिन हवा से हल्की पतंग भी होती है जिसे हैलिकाइट कहते है। ये पतंगें हवा में या हवा के बिना भी उड़ सकती हैं। हैलिकाइट पतंगे अन्य पतंगों की तुलना में एक अन्य स्थिरता सिद्धांत पर काम करती हैं क्योंकि हैलिकाइट हीलियम-स्थिर और हवा-स्थिर होती हैं।

माना जाता है कि पतंग का आविष्कार ईसा पूर्व तीसरी सदी में चीन में हुआ था। दुनिया की पहली पतंग एक चीनी दार्शनिक "हुआंग थेग"ने बनाई थी।[उद्धरण चाहिए] इस प्रकार पतंग का इतिहास लगभग २,३०० वर्ष पुराना है। पतंग बनाने का उपयुक्त सामान चीन में उप्लब्ध था जैसे:- रेशम का कपडा़, पतंग उडाने के लिये मज़बूत रेशम का धागा और पतंग के आकार को सहारा देने वाला हल्का और मज़बूत बाँस।

चीन के बाद पतंगों का फैलाव जापान, कोरिया, थाईलैंड, बर्मा, भारत, अरब, उत्तर अफ़्रीका तक हुआ।

संस्कृतियों में पतंग

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हवा में डोलती अनियंत्रित डोर थामने वालों को आसमान की ऊंचाइयों तक ले जाने वाली पतंग अपने २,००० वर्षों से अधिक पुराने इतिहास में अनेक मान्यताओं, अंधविश्वासों और अनूठे प्रयोगों का आधार भी रही है। अपने पंखों पर विजय और वर्चस्व की आशाओं का बोझ लेकर उड़ती पतंग ने अपने अलग-अलग रूपों में दुनिया को न केवल एक रोमांचक खेल का माध्यम दिया, बल्कि एक शौक के रूप में यह विश्व की विभिन्न सभ्यताओं और संस्कृतियों में रच-बस गई।

पतंग भारत समेत दुनिया के अनेक देशों में एक शौक का माध्यम बनने के साथ-साथ आशाओं, आकांक्षाओं और मान्यताओं को पंख भी देती है।

पतंग का अंधविश्वासों में भी विशेष स्थान है। चीन में किंन राजवंश के शासन के दौरान पतंग उड़ाकर उसे अज्ञात छोड़ देने को अपशकुन माना जाता था। साथ ही किसी की कटी पतंग को उठाना भी बुरे शकुन के रूप में देखा जाता था।

पतंग धार्मिक आस्थाओं के प्रदर्शन का माध्यम भी रह चुकी है। थाइलैंड में हर राजा की अपनी विशेष पतंग होती थी जिसे जाड़े के मौसम में भिक्षु और पुरोहित देश में शांति और खुशहाली की आशा में उड़ाते थे।

थाइलैंड के लोग भी अपनी प्रार्थनाओं को भगवान तक पहुंचाने के लिए वर्षा ऋतु में पतंग उड़ाते थे। दुनिया के कई देशों में २७ नवम्बर को पतंग उडा़ओ दिवस (फ्लाई ए काइट डे) के रूप में मनाते हैं।

यूरोप में पतंग उड़ाने का चलन नाविक मार्को पोलो के आने के बाद आरंभ हुआ। मार्को पूर्व की यात्रा के दौरान प्राप्त हुए पतंग के कौशल को यूरोप में लाया। माना जाता है कि उसके बाद यूरोप के लोगों और फिर अमेरिका के निवासियों ने वैज्ञानिक और सैन्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए पतंग का प्रयोग किया।

ब्रिटेन के प्रसिद्ध वैज्ञानिक डाक्टर नीडहम ने अपनी चीनी विज्ञान एवँ प्रौद्योगिकी का इतिहास (ए हिस्ट्री ऑफ चाइनाज साइंस एण्ड टेक्नोलोजी) नामक पुस्तक में पतंग को चीन द्वारा यूरोप को दी गई एक प्रमुख वैज्ञानिक खोज बताया है। यह कहा जा सकता है कि पतंग को देखकर मन में उपजी उड़ने की लालसा ने ही मनुष्य को विमान का आविष्कार करने की प्रेरणा दी होगी।[1]

 
लखनऊ में पतंगों की एक दुकान।

पतंग उड़ाने का शौक चीन, कोरिया और थाइलैंड समेत दुनिया के कई अन्य भागों से होकर भारत में पहुंचा। देखते ही देखते यह शौक भारत में एक शगल बनकर यहां की संस्कृति और सभ्यता में रच-बस गया। खाली समय का साथी बनी पतंग को खुले आसमान में उड़ाने का शौक बच्चों से लेकर बूढ़ों तक के सिर चढ़कर बोलने लगा। भारत में पतंगबाजी इतनी लोकप्रिय हुई कि कई कवियों ने इस साधारण सी हवा में उड़ती वस्तु पर भी कविताएँ लिख डालीं।[2][3]

एक समय में मनोरंजन के प्रमुख साधनों में से एक, लेकिन समय के साथ-साथ पतंगबाज़ी का शौक भी अब कम होता जा रहा है। एक तो समय का अभाव और दूसरा खुले स्थानों की कमी जैसे कारणों के चलते इस कला का, जिसने कभी मनुष्य की आसमान छूने की महत्वकांक्षा को साकार किया था, अब इतिहास में सिमटने को तैयार है।[4] अब तो केवल कुछ विशेष दिनों और पतंगोत्सवों में ही पतंगों के दर्शन हो पाते हैं।

पतंग उत्सव

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राजस्थान में तो पर्यटन विभाग की ओर से प्रतिवर्ष तीन दिवसीय पतंगबाजी प्रतियोगिता होती है जिसमें जाने-माने पतंगबाज भाग लेते हैं। राज्य पर्यटन आयुक्त कार्यालय के सूत्रों के अनुसार राज्य में हर वर्ष मकर संक्रांति के दिन परंपरागत रूप से पतंगबाजी प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता है जिसमें राज्य के पूर्व दरबारी पतंगबाजों के परिवार के लोगों के साथ-साथ विदेशी पतंगबाज भी भाग लेते हैं।

इसके अतिरिक्त दिल्ली और लखनऊ में भी पतंगबाजी के प्रति आकर्षण है। दीपावली के अगले दिन जमघट के दौरान तो आसमान में पतंगों की कलाबाजियां देखते ही बनती हैं। दिल्ली में स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर भी पतंग उडा़ने का चलन है।

यद्यपि आज के भागमभाग पूर्ण जीवन में खाली समय की कमी के कारण यह शौक कम होता जा रहा है, लेकिन यदि अतीत पर दृष्टि डालें तो हम पाएँगे कि इस साधारण सी पतंग का भी मानव सभ्यता के विकास में कितना महत्वपूर्ण योगदान है।

मान्यताओं, परम्पराओं व अंधविश्वासो में पतंग

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आसमान में उड़ने की मनुष्य की आकांक्षा को तुष्ट करने और डोर थामने वाले की उमंगों को उड़ान देने वाली पतंग दुनिया के विभिन्न भागों में अलग अलग मान्यताओं परम्पराओं तथा अंधविश्वास की वाहक भी रही है।

मानव की महत्त्वाकांक्षा को आसमान की ऊँचाईयों तक ले जाने वाली पतंग कहीं शगुन और अपशकुन से जुड़ी है तो कहीं ईश्वर तक अपना संदेश पहुंचाने के माध्यम के रूप में प्रतिष्ठित है। प्राचीन दंतकथाओं पर विश्वास करें तो चीन और जापान में पतंगों का उपयोग सैन्य उद्देश्यों के लिये भी किया जाता था।

चीन में किंग राजवंश के शासन के दौरान उड़ती पतंग को यूं ही छोड़ देना दुर्भाग्य और बीमारी को न्यौता देने के समान माना जाता था। कोरिया में पतंग पर बच्चे का नाम और उसके जन्म की तिथि लिखकर उड़ाया जाता था ताकि उस वर्ष उस बच्चे से जुड़ा दुर्भाग्य पतंग के साथ ही उड़ जाए।

मान्यताओं के अनुसार थाईलैंड में बारिश के मौसम में लोग भगवान तक अपनी प्रार्थना पहुंचाने के लिये पतंग उड़ाते थे जबकि कटी पतंग को उठाना अपशकुन माना जाता था।

  1. पतंग ने दी मनव को विमान का आविष्कार करने की प्रेरणा[मृत कड़ियाँ]
  2. "राजेंद्र अविरल की रचना - बिटिया पतंग उड़ा रही है (कविता)". मूल से 16 जून 2010 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 13 अगस्त 2009.
  3. "पतंग की डोर (कविता) – सुनीता चोटिया 'शानू'". मूल से 1 अक्तूबर 2009 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 13 अगस्त 2009.
  4. इतिहास में शुमार हुआ पतंगबाजी का शौक[मृत कड़ियाँ]

पतंग की सीख

  • पतंग

पतंग एक महज आसमान में उड़ने वाला कागज का टुकड़ा ही नही। यह वह है जो जिन्दगी जीने का ढंग सिखाती है। पतंग अपने सतरंगी रंगो से जीवन के सम्पूर्ण रंग बताती है और कहती है कि जिंदगी एक कागज का टुकड़ा है जो बुलदिंयों के आसमां को छूना चाहती है। जब वह अपनी मंजिल की सीढ़ियाँ चढ़ने लगती हैं। तब आसमान की अन्य पतंगें उसे रोकती हैं और उसे काटना चाहती हैं। उस समय पतंग के चारो ओर समस्याओं का घेरा बन जाता हैं। वह समस्याओं को काटते हुए आगें बढ़ती हैं। तो उच्चाई पर चलती हवा उसका स्वागत करती हैं। तब उच्चाई पर पहुची अन्य पतंगें उसको विरोध करती हैं और डराती हैं। नीचे पायदान में उड़ रही पतंगें उससे घृणा करती हैं और उसे काटने व गिराने का असंभव प्रयास करती हैं। वह पतंग सबकी प्रवाह किये बगैर आसमां की अंंनत उच्चाइयों तक उड़ती जाती हैं। वह अपने विश्वास, हौसलों व परिवार रूपी डोरी के कारण ही आसमां में उड़ पाती हैं। उसे मालूम हैं कि यदि वह डोरी उसका साथ नहीं देती तो वह बिलकुल भी नहीं उड़ पाती और कचरे में पड़ी होती।

बुलंदियों के आसमां में उड़ती पतंग। अन्नत समस्याओं से लड़ती पतंग।। जो विश्वास व हौसलों की डोरी टूटती, तो कचरे में जाकर गिरती पतंग ।।

सनी लाखीवाल राजपुरा(शाहपुरा)जयपुर साहित्य सचिव "अ.भा.सा.प.शाहपुरा "

बाहरी कड़ियाँ

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