पनोप्टिकॉन
पनोप्टिकॉन (Panopticon) जेरेमी बेन्थम द्वारा १८वीं शताब्दी में अभिकल्पित एक प्रकार की संस्थानिक भवन है।
परिचय
संपादित करें'पनोप्टिकॉन' शब्द दो घटकों से मिल कर बना है : पन और ऑप्टीकॉन। पन का मतलब है कैदी और ऑप्टीकॉन का मतलब है कैदियों पर नज़र रखने वाला निगरानीकर्त्ता। एक ऐसी जगह जहाँ कैदियों पर निगाह रखी जाती हो, जेल ही हो सकती है। इस पद और इससे जुड़ा सिद्धांत गढ़ने का श्रेय अंग्रेज दार्शनिक और सामाजिक सिद्धांतकार जेरेमी बेंथम को जाता है। उन्होंने 1785 में एक कारागार की डिजाइन के रूप में इसका इमारती ब्लूप्रिंट बनाया था। वे एक गोलाकार इमारत बनाना चाहते थे जिसके बीच में एक ऊँचा टॉवर बनाया जाना था। टावर और उसके चारों ओर कुछ दूर बनी चारदीवारी के बीच कैदियों या पागलों को रखने वाली कोठरियाँ बननी थीं। बेंथम की योजना थी कि इन कोठरियों में हमेशा रोशनी रखी जाए ताकि उसमें रहने वालों की गतिविधियों पर टॉवर से नजर रखी जा सके। बेंथम का मकसद था कि कैदियों या पागलों को अपनी निगरानी का पता नहीं लगना चाहिए। बेंथम उपयोगितावादी दर्शन के पैरोकार थे और उनकी मान्यता थी कि अगर जेल को इस प्रकार बनाया जाए कि उसमें बंद कैदी अपने ऊपर निगरानी रखने वाले को देख ही न सकें तो निगरानी का ख़र्चर् बहुत कम हो जाएगा। चूँकि कैदियों को पता ही नहीं होगा कि उन पर नजर रखी जा रही है या नहीं, इसलिए निगरानीकर्त्ता को हमेशा ड्यूटी पर रहने की ज़रूरत नहीं होगी। समाज-विज्ञान के लिए पनोप्टिकॉन का महत्त्व केवल इसीलिए नहीं है। उसके लिए तो पनोप्टिकॉन का विचार एक रूपक की हैसियत प्राप्त कर चुका है। फ़्रांसीसी चिंतक मिशेल फ़ूको ने अपनी रचना 'डिसिप्लिन ऐंड पनिश' में बेंथम की इस अवधारणा के इस्तेमाल के जरिये दिखाया कि किस तरह आधुनिक समाज में कारागार ही नहीं, बल्कि सेना, विद्यालय, अस्पताल और कारखानों जैसी कोटिक्रम आधारित संरचनाओं का विकास ऐतिहासिक रूप से पनोप्टिकॉन के तर्ज पर ही हुआ है। फ़ूको के अनुसार आधुनिक समाज अनुशासन लागू करना चाहता है, जिसके लिए उसे अपने हर सदस्य पर हर हालत में निगरानी करने की आवश्यकता पड़ती है। निगरानी की यह प्रक्रिया कुछ इस तरह चलती है जैसे कि कुछ हो ही न रहा हो, सब कुछ सामान्य हो। यही पनोप्टिकॉन का उद्देश्य है।
ऐसी बात नहीं कि पनोप्टिकॉन के विचार में निहित सत्ताकेंद्रीयता के प्रबल आग्रहों से बेंथम भी अपरिचित थे। इसलिए उन्होंने इसे एक ऐसी अभूतपूर्व विधि के रूप में भी परिभाषित किया था जिसके ज़रिये एक मस्तिष्क दूसरे पर अपनी सत्ता स्थापित कर सकता है। वे इसे जेल के अलावा एक व्यापक फलक पर भी दखते थे। उनकी मान्यता थी कि अगर पनोप्टिकॉन जैसे स्थापत्य के तहत काम किया जाए तो लोगों को नैतिक दृष्टि से सुधारा जा सकेगा, उनकी तंदरुस्ती ठीक रहेगी, उद्योगों में नयी जान पड़ जाएगी, शिक्षा का प्रसार हो सकेगा, जनता के ऊपर बोझ कम होगा, अर्थव्यवस्था का आधार चट्टान की तरह ठोस होता चला जाएगा और कानून अपनी कमज़ोरियों के बावजूद सुदृढ़ हो सकेगा। इस कथन से ज़ाहिर है कि बेंथम को पनोप्टिकॉन से बहुत उम्मीदें थीं। शायद इसीलिए उन्होंने अपने जीवन का काफ़ी समय और अपनी धन-सम्पत्ति का एक बड़ा हिस्सा पनोप्टिकॉन की डिज़ाइन पर आधारित कारागार बनवाने की कोशिशों पर ख़र्चर् किया। इस चक्कर में बेंथम को कई तरह की राजनीतिक और वित्तीय कठिनाइयाँ झेलनी पड़ीं। 1811 में ब्रिटिश संसद की तरफ़ से उन्हें ऐसी इमारत खड़ी करने के लिए जगह ख़रीदने की इजाज़त मिली लेकिन इंग्लैण्ड के राजा ने उस पर अपनी मुहर लगाने से इनकार कर दिया। दो साल बाद संसद ने बेंथम को हुई वित्तीय हानि की भरपाई करने के लिए उन्हें 23,000 पाउण्ड का मुआवज़ा दिया। कुल मिला कर बेंथम के जीवनकाल में उनकी डिज़ाइन के आधार पर कोई भी जेलख़ाना नहीं बन सका। बाद में पनोप्टिकॉन के विचार से प्रभावित हो कर ब्रिटेन, अमेरिका, हंगरी, स्पेन, अर्जेंटीना, मैक्सिको, वियतनाम, फ़्रांस, कनाडा, न्यूजीलैण्ड, ऑस्टे्रलिया, क्यूबा और दक्षिण अफ्रीका में कई कारागारों का निर्माण किया गया। इंग्लैण्ड में वूस्टर स्टेट हॉस्पिटल और डर्बीशायर की राउण्ड मिल की इमारतें भी पनोप्टिकॉन से प्रभावित हो कर बनायी गयी मानी जाती हैं।
आज पनोप्टिकॉन स्थापत्य के रूप में फ़ैशन से बाहर हो चुका है। पर समाज और नगारिकों पर निगरानी कायम करने के सिद्धांत के रूप में उसका महत्त्व लगातार बढ़ा है। साहित्यिक और सांस्कृतिक निरूपणों में पनोप्टिकॉन जैसी संरचनाओं का ज़िक्र होता रहता है। इनमें फ़्रेंज़ काफ़्का की विख्यात रचना द कैसेल और गैब्रियल गार्सिया मार्ख़ेज़ की क्रॉनिकल ऑफ़ अ डैथ फ़ोरटोल्ड भी शामिल है। मिशेल फ़ूको पनोप्टिकॉन के विचार का विस्तार करते हुए उसे आधुनिक समाज की उस बुनियादी प्रवृत्ति पर लागू करते हुए ‘पनोप्टीसिज़म’ की धारणा पेश करते हैं जिसके तहत मानवीय आबादियों को कुछ ऐसी ताकतों द्वारा प्रबंधित और नियंत्रित किया जाता है जो अक्सर अदृश्य रह कर बड़ी सफ़ाई और नफ़ासत से यह काम अंजाम देती हैं। फ़ूको लिखते हैं कि अगर पनोप्टिकॉन में रहने वाले कैदी हैं तो उनकी निगरानी का यह तरीका उनके द्वारा की जाने वाली किसी साज़िश, पलायन की किसी सामूहिक योजना, भविष्य में किये जा सकने वाले किसी अपराध या एक-दूसरे पर पड़ने वाले किसी ख़राब प्रभाव की सम्भावनाएँ निरस्त कर देगा। अगर वह इमारत किसी अस्पताल की है तो निगरानी के ज़रिये संक्रामक रोग फैलने से रोका जा सकता है, अगर वह पागलखाना है तो पागलों द्वारा एक-दूसरे के विरुद्ध हिंसा करने का खतरा ख़त्म किया जा सकता है, अगर वह स्कूल है तो बच्चों को नकल करने, शोरगुल करने, बातें करने और वक्त बर्बाद करने से रोका जा सकता है। और, अगर वह कोई फैक्ट्री है तो मजदूरों के बीच अव्यवस्था, चोरी, गुटबाज़ी जैसी गतिविधियों पर नजर रखी जा सकती है जिनसे काम की रक्रतार घटती है या उसका स्तर गिरता है या दुर्घटनाएँ होती हैं।
फ़ूको के अनुसार यह प्रक्रिया निगरानी करने वाले की निगरानीशुदा लोगों पर सत्ता की गारंटी करती है, बावजूद इसके कि निगरानीशुदा लोगों को अपने ऊपर सत्ता आरोपित किये जाने का एहसास नहीं होता। इस लिहाज़ से पनोप्टिकॉन स्वचालित प्रक्रिया का रूप ले लेता है। फ़ूको के मुताबिक निगरानी करने वाला अदृश्य व्यक्ति बिना किसी दिक्कत के निगरानीशुदाओं की व्यवहार-शैली से वाकिफ़ हो जाता है। यह सिलसिला केवल निगरानीकर्त्ता और निगरानीशुदा के बीच संबंध तक ही सीमित नहीं रहता। ‘पनोप्टिक निगाह’ ८४१ प में ढालने की क्षमता होनी चाहिए। इसके लिए एक अभिनेता अपनी निगरानीशुदाओं के लिए इतनी अनापत्तिजनक हो जाती है कि वे व्यक्ति के रूप में उसे आत्मसात कर लेते हैं, इस हद तक कि उनसे ख़ुद अपनी ही निगरानी करायी जा सकती है। वे अपने ही दमन और नियंत्रण के एजेंट हो जाते हैं। अपने विश्लेषण में फ़ूको इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि न केवल उदारतावादी लोकतंत्रों में पनोप्टीसिज़म को आधार बनाया जाता है, बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था ही विकास-दर और मुनाफ़े को लगातार बढ़ाते रहने के लिए पनोप्टीसिज़म को अपनाती है। फ़ूको के अनुसार पनोप्टिकॉन की संरचनाएँ ईसाइयत द्वारा दिये गये श्रम संबंधी मूल्यों, नैतिकताओं और केंद्रीकृत प्राधिकार (ईश्वर) के प्रति निष्ठा की तजवीज़ करती हैं। पूँजीवादी व्यवस्था में ईश्वर जैसे प्राधिकार की जगह आर्थिक जगत के अभिजनों को मिल जाती है।
फ़ूको का यह विश्लेषण इंटरनेट-पूर्व युग का है। लेकिन क्या इंटरनेट की डिजिटल दुनिया की निराकारता पनोप्टिकॉन से मुक्त है? क्लोज़ सरकिट टीवी और वीडियोग्राफी के ज़रिये की जाने वाली निगरानी को तो आसानी से पनोप्टिक निगाह की संज्ञा दी जा सकती है, पर स्लवोज जिज़ेक का तो कहना है कि बेंथम द्वारा प्रतिपादित पनोप्टिकॉन में तो निराकारता (वर्चुअलिटी) अपने शुद्धतम रूप में मिलती है। कोई नहीं जानता कि उस पनोप्टिकॉन के केंद्र में कोई है भी या नहीं। अगर पता हो तो कि वहाँ कोई है तो पनोप्टिकॉन का डरावनापन थोड़ा कम हो जाएगा। लेकिन, बेंथम की भाषा में तो वह एक एक बेहद अँधेरी जगह होती है। कोई पीछा कर रहा है, इस बात का एहसास ज़्यादा डरावना होता है बजाय इसके कि पता हो कि वास्तव में कोई पीछा कर रहा है। ऐसी अनिश्चितता बेहद संत्रासकारी होती है। सम्भवतः यहाँ जिजेक का साफ़ इशारा इंटरनेट संबंधी उन संहिताओं की तरफ़ है जिनके तहत आईएसपी के ज़रिए यूज़र्स और उनकी गतिविधियों का न केवल पता लगाया जा सकता है, बल्कि उनके कामकाज को रिकॉर्ड तक किया जा सकता है।
सन्दर्भ
संपादित करें- (१) जेरेमी बेंथम (1995), पनोप्टिकॉन , मिरन बोज़ोविक (सम्पा.), द पनोप्टिकॉन राइटिंग्स , वरसो, लंदन.
- (२) मिशेल फ़ूको (2008), डिसिप्लिन ऐंड पनिश : द बर्थ ऑफ़ द प्रिज़न, विंटेज बुक्स, न्यूयॉर्क.