पाश्चात्य दर्शन में सर्वस्वतंत्र, सर्वस्वाधीन, सर्वोपरि, तथ्यात्मक, स्वयंभू, आत्मनिर्भर, आत्मपूर्ण और वैयक्तिक विचार एवं खोज पर न निर्भर एकमात्र परमनिरपेक्ष सत्य अथवा, मूल्य अर्थात् अर्थ की धारणा प्रचलित रही है। परमनिरपेक्ष को प्राय: समस्त वास्तवता का अंतिम आधारभूत अनन्त पदार्थ और विश्व तथा ईश्वर से अभिन्न माना गया है। इसके स्वरूप की व्याख्या में इसे कभी तथ्यात्मक जगत् से पूर्णतया समन्वित द्वंद्वात्मक तर्क बुद्धि, कभी संकल्प, कभी सर्जनात्मक एवं विकासशील जीवनशक्ति, कभी चेतना, कभी अनुभव और कभी स्वप्रकाश व्यक्तित्व कहा गया है।