साधु का स्वभाव परोपकारी होता है, जैसे वृक्ष कभी अपना फल स्वंय नहीं खाता है और नदी जिस प्रकार से स्वंय के नीर का संचय नहीं करती है। लोक कल्याण के हेतु बहती रहती है। वैसे ही साधु और संत भी अपने ज्ञान का उपयोग परमार्थ के लिए ही करते हैं, स्वंय के कल्याण के लिए नहीं। साधु भी अपने सुखदुःख कष्टो की चिंता न करके अन्य के लिए अपने शरीर मन आत्मा से कल्याण का भाव रखता है।कबीर साहेब की इससे प्रकृतिवादी द्रष्टिकोण का भी पता चलता है। प्रकृति सदा देने का भाव रखती है वह बदलें में कुछ भी नहीं चाहती है। कबीर साहेब का जीवन भी प्रकृति के आस पास ही नजर आता है।

वृक्ष कबहुँ नहिं फल भखै, नदी न संचै नीर।

परमारथ के कारने, साधुन धरा सरीर।।

वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते हैं और सरोवर(तालाब)भी अपना पानी स्वयं नहीं पीती है। इसी तरह अच्छे और सज्जन व्यक्ति वो हैं जो दूसरों के कार्य के लिए संपत्ति को संचित करते हैं।

तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहि न पान॥

कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहि सुजान॥

मैथिलीशरण गुप्त ने तो अपना स्वार्थ साधने वाले मनुष्य को पशु कहा है।  

यही पशु–प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे¸

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

काकभुशुण्डिजी ने कहा हे गरुड़जी मन,वचन और शरीर से परोपकार करना, यह तो संतों का सहज स्वभाव है।

पर उपकार बचन मन काया। संत सहज सुभाउ खगराया॥

जिसने अपना उपकार नहीं किया ऐसा व्यक्ति पराया उपकार कर ही नहीं सकता सभी में परोपकार करने की पात्रता नहीं होती है! जिनको अपना कोई स्वार्थ नहीं है और जो पूर्ण काम है वे ही परोपकार कर सकते है !जो ना के बराबर है मानस में तो साफ साफ कहा है !

स्वारथ मीत सकल जग माहीं। सपनेहुँ प्रभु परमारथ नाहीं॥

सुर नर मुनि सब कै यह रीती। स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती।।

पर परोपकारी कौन है?

हेतु रहित जग जुग उपकारी। तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी॥

वचन मन काया मन वाणी और कर्म का एक रंग होना संत का लक्षण है अगर मन वाणी और कर्म में भेद है तो यह कुटिलता है! (तुलसी जी कृत वैराग्य-संदीपनी)

सरल बरन भाषा सरल, सरल अर्थमय मानि,

तुलसी सरले संतजन, ताहि परी पहिचानि॥

तन करि मन करि बचन करि, काहू दुखत नाहिं,

तुलसी ऐसे संत जन रामरूप जग माहिं ॥

संत सहज सुभाउ भाव यह कि संत पैदा होते है !संत बनाये नहीं जाते जो गर्भ ज्ञानी है ,पूर्ण काम है ! जिनका जन्म किसी पूर्व जन्म के संस्कार शेष रहने के कारण  हुआ! ऐसे व्यक्ति ही वचन मन कर्म से परोपकार करने की योग्यता रखते है! और वे ही संत है जो पहले द्रोही रहे और बाद में सत्संग द्वारा जिनकी बुद्धि सुधर गई और परोपकार रत हुए वे सब के संत सामान है। प्रभु राम ने स्वयं कहा –

जौं नर होइ चराचर द्रोही। आवे सभय सरन तकि मोही।।

तजि मद मोह कपट छल नाना। करउँ सद्य तेहि साधु समाना।।

भूर्ज तरू भोज पत्र का पेड़ यह हिमालय क्षेत्र में उगने वाला एक वृक्ष है। जो 4500 से14000  फ़ीट की ऊँचाई तक उगता है।यह बहुपयोगी वृक्ष है इसका छाल सफेद रंग की होती है जो प्राचीन काल से ग्रंथों की रचना के लिये उपयोग में आती थी। दरअसल,भोजपत्र भोज नाम के वृक्ष की छाल का नाम है, पत्ते का नहीं। इस वृक्ष की छाल ही सर्दियों में पतली-पतली परतों के रूप में निकलती हैं, जिन्हे मुख्य रूप से कागज की तरह इस्तेमाल किया जाता था। तांत्रिक लोग इसे पवित्र मानते है और इस पर प्रायः यंत्र मन्त्र लिखते है पहले लोग इसको वस्त्र की जगह पहनते थे और इससे मकान भी छाते थे! संत दूसरों की भलाई के लिए दुःख सहते हैं और अभागे असंत दूसरों को दुःख पहुँचाने के लिए दुःख सहते हैं । कृपालु संत भोज के वृक्ष के समान दूसरों के हित के लिए भारी विपत्ति सहते हैं। (अपनी खाल तक उधड़वा लेते हैं) (भूर्ज तरू=भोज के वृक्ष)

भूर्ज तरू सम संत कृपाला। पर हित निति सह बिपति बिसाला॥

संत सहहिं दु:ख पर हित लागी। पर दु:ख हेतु असंत अभागी॥

संत दुःख क्यों सहते है?

संत हृदय नवनीत समाना। कहा कबिन्ह परि कहै न जाना।।

निज परिताप द्रवइ नवनीता। पर दुख द्रवहिं संत सुपुनीता।।

संत का हृदय माखन के समान होता है ऐसा कवियों ने कहा है परंतु कहना उन्होंने नहीं जाना (अर्थात ठीक उपमा देते ना बनी) माखन तो अपने परताप लगने से ही पिघलता है और परम पुनीत संत जन पराये दुःख से देखकर द्रवीभूत होते है! "कहा कबिन्ह" का भाव यह की कवियों को संत के ह्रदय की अगाधता का क्या पता? यथार्थ में माखन और संत हृदय में समानता नहीं है माखन जब स्वयं तपाया जाता है तब पिघलता है इस तरह अपने दुःख में दुखी होना तो दुष्टो में तो होता ही है! पर संतो में यह विलक्षणता है कि वे अपना दुःख ईश्वर का न्याय समझ कर सह लेते है! पर दूसरों के दुःख को नहीं सह सकते द्रवीभूत हो जाते है! जैसे

नारद देखा बिकल जयंता। लगि दया कोमल चित संता॥

शंकर जी ने भी संत की महिमा कही हे उमा! संत की यही बड़ाई (महिमा) है कि वे बुराई करने पर भी (बुराई करने वाले की) भलाई ही करते हैं। (विभीषणजी ने भी रावण से कहा) आप मेरे पिता के समान हैं, मुझे मारा सो तो अच्छा ही किया, परंतु हे नाथ! आपका भला श्री रामजी को भजने में ही है।

उमा संत कइ इहइ बड़ाई। मंद करत जो करइ भलाई॥

तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा। रामु भजें हित नाथ तुम्हारा॥

क्योकि विभीषणजी संत है।

संत बिटप सरिता गिरि धरनी। पर हित हेतु सबन्ह कै करनी।।

तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा।विभीषण यही कहता है आपका हित रामजी के भजन से ही होगा! विभीषण जी पिछले जन्म में भी धरमरुचि नामक मंत्री के रूप में रावण के परम हितेषी थे! यथाः राजा का हित करने वाला और शुक्राचार्य के समान बुद्धिमान धर्मरुचि नामक उसका मंत्री था।

नृप हितकारक सचिव सयाना। नाम धरमरुचि सुक्र समाना॥s

गरुड़जी प्रेमसहित वचन बोले॥ हे भुशुण्डि जी

पूरन काम राम अनुरागी। तुम्ह सम तात न कोउ बड़भागी।।

संत बिटप सरिता गिरि धरनी। पर हित हेतु सबन्ह कै करनी॥

हे भुशुण्डि जी आप पूर्ण काम (जिनको किसी प्रकार की कामना नहीं रह गई सर्व कामना पूर्ण) आपको तो यह आशीर्वाद भी है!

जो इच्छा कर ही मन माही!हरि प्रसाद  कछु दुर्लभ नाही ।।

यदि किसी को कोई भी कामना है तो वह राम अनुरागी नहीं हो सकता! जिन श्री रामचन्द्रजी का स्मरण करने से ही भक्तजन तमाम भोग-विलास को तिनके के समान त्याग देते हैं, उन श्री रामचन्द्रजी की प्रिय पत्नी और जगत की माता सीताजी के लिए यह (भोग-विलास का त्याग) कुछ भी आश्चर्य नहीं है।

सुमिरत रामहि तजहिं जन तृन सम बिषय बिलासु॥

रामप्रिया जग जननि सिय कछु न आचरजु तासु॥

पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं। जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं॥

(खल=दुष्ट) दूसरे का काम बिगाड़ने के लिये अपना शरीर तक छोड़ देते हें; जेसे ओले खेती का नाश करके स्वयं भी गल जाते है! सन्त दूसरे के 'काज”के लिये,और अकाज की रक्षा में, शरीर तक छोड़ देते हें। जैसे गीधराज जटायु ने किया। उसी के विपरीत (खल=दुष्ट) पर अकाज के लिये तन त्याग देते हैँ जैसे कालनेमि,मारीच ने किया। अपने शरीर की भी परवाह नहीं करते है! वे पराई संपत्ति का नाश करके स्वयं नष्ट हो जाते हैं, जैसे खेती का नाश करके ओले नष्ट हो जाते। (हिमउपल =बर्फ का,ओले) (परिहरहीं=परिहरना=छोड़ देना,त्याग देना) (दलि=दलकर,नाश करके)

पर संपदा बिनासि नसाहीं। जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीं॥

सन इव खल पर बंधन करई। खाल कढ़ाई बिपति सहि मरई॥

जबकि सन का पौधा काट कर पानी में सड़ाया जाता है फिर पटक पटक कर धोया जाता है!फिर उसकी खाल निकली जाती है! फिर उसका रेशा अलग अलग कर बटा जाता है तब वह रस्सी बनकर दूसरो को बांधने में समर्थ होता है !ऐसे ही खल अपनी दुर्दशा सह कर भी दूसरो के काम बिगाड़ते है!

खल बिनु स्वारथ पर अपकारी। अहि मूषक इव सुनु उरगारी॥

हे सर्पो के शत्रु गरुण जी सुनिए,खल बिना स्वार्थ के ही सर्प और मूसे के सामान दूसरो का अपकार करते है! दूसरे की संपत्ति का नाश करके स्वयं भी ऐसे नष्ट हो जाते है। (अपकार=अहित उपकार का उल्टा) (इव=जैसे)

तुलसी ने कहा:- छिद्र का अर्थ छेद भी है और दोष भी है।कपास पक्ष में उसका अर्थ इन्द्रिया का छिद्र होगा और साथु पक्ष में 'दोष' अर्थ होगा। साधु नाना यातनाएँ सहकर भी दूसरे के दोषो पर परदा डालते है! कपास जैसे लोढ़े जाने,काते जाने और बुने जाने का कष्ट सहकर भी वस्त्र के रूप में परिणत होकर दूसरों के गोपनीय स्थानों को ढँकता है, उसी प्रकार संत स्वयं दुःख सहकर दूसरों के छिद्रों (दोषों) को ढँकता है, जिसके कारण उसने जगत में वंदनीय यश प्राप्त किया है। (निरस=जिसमें रस न हो, रसहीन, बेस्वाद)(बिसद=स्वच्छ, निर्मल,उज्ज्वल)

साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू॥

जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा॥

क्योंकि साधु का जीवन तथा उनके कर्म परोपकार के लिये ही होते हैं।

संत बिटप सरिता गिरि धरनी। पर हित हेतु सबन्ह कै करनी॥

यही विचार कामदेव ने देवताओं से कहा (संतत=सदा,निरंतर,बराबर,लगातार)

तदपि करब मैं काजु तुम्हारा। श्रुति कह परम धरम उपकारा॥

चलत मार अस हृदयँ बिचारा। सिव बिरोध ध्रुव मरनु हमारा।।

'शिव से वैर करना कल्याण से वैर करना है! अतः अकल्याण छोड़ और क्या हो सकता है? पर वेदों में परोपकार को ही परम धर्म बतलाया है।

पर हित लागि तजइ जो देही। संतत संत प्रसंसहिं तेही॥

कामदेव ने देवताओं से कहा अभी तक तो वीरों में मेरी गिनती रही, वीरों में ही प्रशंसा होती रही पर संत समाज मेरी प्रशंसा नहीं करते है पर अब मेरी परोपकारियों में प्रशंसा होगी! आज तक मेरी गिनती (षडरिपु=मानव के छह विकार,काम, क्रोध,लोभ,मद, मोह एवं मत्सर)में रही,संत समाज मेरी निंदा करते रहे, पर अब परोपकार के लिये शरीर छोड़ने से संत समाज में भी मेरी प्रशंसा सदा होगी!