परिसीमा अधिनियम 1963 वादों और अन्य कार्यवाहियों की परिसीमा और तत्सम्पृक्त प्रयोजनों से सम्बन्धित विधि का समेकन और संशोधन करने के लिए महत्वपूर्ण अधिनियमभारत गणराज्य के चौदहवें वर्ष में संसद् द्वारा निम्नलिखित रूप में यह अधिनियमित है : -


भाग 1 - प्रारंभिक

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धारा - १ - संक्षिप्त नाम, विस्तार और प्रारम्भ

  1. यह अधिनियम परिसीमा अधिनियम, 1963 कहा जा सकेगा ।
  2. इसका विस्तार जम्मू-कश्मीर राज्य के सिवाय सम्पूर्ण भारत पर है ।
  3. यह उस तारीख को प्रवृत्त होगा जिसे केन्द्रीय सरकार, शासकीय राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, नियत करे ।

धारा - २ - परिभाषाएं इस अधिनियम में, जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो-

(क) आवेदक" के अन्तर्गत आता है-

  1. अर्जीदार;
  2. वह व्यक्ति, जिससे या जिसके माध्यम से आवेदक आवेदन करने का अपना अधिकार व्युत्पन्न करता है;
  3. वह व्यक्ति जिसकी सम्पदा का प्रतिनिधित्व आवेदक द्वारा निष्पादक, प्रशासक या अन्य प्रतिनिधि के तौर पर किया जाता है;

(ख) आवेदन" के अन्तर्गत अर्जी आती है;

(ग) विनिमय पत्र" के अन्तर्गत हुण्डी और चेक आते हैं;

(घ) बन्धपत्र" के अन्तर्गत ऐसी कोई लिखत आती है जिसके द्वारा कोई व्यक्ति किसी अन्य को धन देने के लिए अपने को इस शर्त पर बाध्यता के अधीन कर लेता है कि यदि कोई विनिर्दिष्ट कार्य किया जाए या न किया जाए, जैसी भी स्थिति हो, तो वह बाध्यता शून्य हो जाएगी;

(ङ) प्रतिवादी" के अन्तर्गत आता है-

  1. वह व्यक्ति जिससे या जिसके माध्यम से प्रतिवादी यह दायित्व व्युत्पन्न करता है कि उस पर वाद लाया जा सके;
  2. वह व्यक्ति जिसकी सम्पदा का प्रतिनिधित्व प्रतिवादी द्वारा निष्पादक, प्रशासक या अन्य प्रतिनिधि के रूप में किया जाता है;

(च) सुखाचार" के अन्तर्गत आता है संविदा से उद्भूत न होने वाला ऐसा अधिकार जिसके द्वारा कोई व्यक्ति किसी अन्य की मृदा के किसी भाग को या किसी अन्य की भूमि में उगी हुई या उससे संलग्न या उस पर अस्तित्ववान् किसी चीज को हटाने और अपने लाभ के लिए विनियोजित करने का हकदार होता है;

(छ) विदेश" से अभिप्रेत है भारत से भिन्न कोई भी देश;

(ज) सद्भाव"-कोई भी बात, जो सम्यक् सतर्कता और ध्यान से नहीं की गई है सद्भावपूर्वक की गई नहीं समझी जाएगी;

(झ) वादी" के अन्तर्गत आता है-

  1. वह व्यक्ति जिससे या जिसके माध्यम से वाद लाने का अपना अधिकार व्युत्पन्न करता है।
  2. वह व्यक्ति जिसको सम्पदा का प्रतिनिधित्व वादी द्वारा निष्पादक , प्रशासक या अन्य प्रतिनिधि के रूप में किया जाता है

(ञ) परिसीमा काल" से वह परिसीमा काल अभिप्रेत है, जो किसी वाद, अपील या आवेदन के लिए अनुसूची द्वारा विहित है और विहित काल" से वह परिसीमा काल अभिप्रेत है जो उस अधिनियम के उपबंधों के अनुसार संगणित परिसीमा काल हो;

(ट) वचनपत्र" से ऐसी लिखत अभिप्रेत है जिसके द्वारा उसका रचयिता किसी अन्य को धन की कोई विनिर्दिष्ट राशि उसमें परिसीमित समय पर या मांग की जाने पर या दर्शन पर देने के लिए आत्यन्तिकतः वचनबद्ध होता है;

(ठ) वाद" के अन्तर्गत अपील या आवेदन नहीं आता है;

(ड) अपकृत्य" से ऐसा सिविल दोष अभिप्रेत है जो केवल संविदा भंग या न्यासभंग न हो;

(ढ) न्यासी" के अन्तर्गत बेनामीदार, बंधक की तुष्टि हो जाने के पश्चात् कब्जे में बना रहने वाला बंधकदार या हक के बिना सदोष कब्जा रखने वाला व्यक्ति नहीं आता ।

भाग 2 - वादों, अपीलों और आवेदनों की परिसीमा

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धारा - 3 - परिसीमा द्वारा वर्जन (1) धारा 4 से 24 तक (जिनके अन्तर्गत ये दोनों धाराएं आती हैं), अन्तर्विष्ट उपबंधों के अध्यधीन यह है कि विहित काल के पश्चात् हर संस्थित वाद, की गई अपील और किया गया आवेदन खारिज कर दिया जाएगा यद्यपि प्रतिरक्षा के तौर पर परिसीमा की बात उठाई न गई हो ।

(2) इस अधिनियम के प्रयोजनों के लिए यह है कि-

(क) वाद की स्थिति -

(i) मामूली दशा में तब होती है, जब वादपत्र उचित आफिसर के समक्ष उपस्थित किया जाता है;

(ii) अकिंचन की दशा में तब होती है, जब अकिंचन के तौर पर वाद लाने की इजाजत के लिए उसके द्वारा आवदेन किया जाता है; तथा

(iii) उस कम्पनी के विरुद्ध दावे की दशा में जिसका न्यायालय द्वारा परिसमापन किया जा रहा हो तब होती है जब दावेदार के दावे का परिदान शासकीय समापक को पहली बार कारित किया जाता है;


(ख) मुजरा या प्रतिदावे के तौर का दावा एक पृथक् वाद माना जाएगा, और यह समझा जाएगा कि ऐसा दावा-

(i) मुजरे की दशा में, उसी तारीख को, जिसको वह वाद संस्थित किया गया हो जिसमें मुजरे का अभिवचन किया गया है;

(ii) प्रतिदावे की दशा में उस तारीख को जिसको न्यायालय में प्रतिदावा किया गया हो, संस्थित किया गया समझा जाएगा;


(ग) उच्च न्यायालय में प्रस्ताव की सूचना द्वारा आवेदन तब होता है, जब आवेदन उस न्यायालय के लिए उचित आफिसर के समक्ष उपस्थित किया जाता है ।

इन्हें भी देखें

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