पशुओं में पागलपन या हलकजाने का रोग (रेबीज़) को पैदा करने वाले विषाणु हलकाये कुत्ते , बिल्ली , बन्दर, गीदड़, लोमड़ी या नेवले के काटने से स्वस्थ पशु के शरीर में प्रवेश करते हैं तथा नाड़ियों के द्वारा मष्तिस्क में पहुंच कर उसमें बीमारी के लक्षण पैदा करते हैं। रोग ग्रस्त पशु की लार में यह विषाणु बहुतायत में होता है तथा रोगी पशु द्वारा दूसरे पशु को काट लेने से अथवा शरीर में पहले से मौजूद किसी घाव के ऊपर रोगी की लार लग जाने से यह बीमारी फैल सकती है। यह बीमारी रोग ग्रस्त पशुओं से मनुष्यों में भी आ सकती है अतः इस बीमारी का जन स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत महत्व है। एक बार पशु अथवा मनुष्य में इस बीमारी के लक्षण पैदा होने के बाद उसका फिर कोई इलाज नहीं है तथा उसकी मृत्यु निश्चित है। विषाणु के शरीर में घाव आदि के माध्य्म से प्रवेश करने के बाद 10 दिन से 210 दिनों तक की अवधि में यह बीमारी हो सकती है। मस्तिष्क के जितना अधिक नजदीक घाव होता है उतनी ही जल्दी बीमारी के लक्षण पशु में पैदा हो जाते हैं जैसे कि सिर अथवा चेहरे पर काटे गए पशु में एक हफ्ते के बाद यह रोग पैदा हो सकता है।

रेबीज़ मुख्यतः दो रूपों में देखी जाती है, पहला जिसमें रोग ग्रस्त पशु काफी भयानक होजाता है तथा दूसरा जिसमें वह बिल्कुल शान्त रहता है। पहले अथवा उग्र रूप में पशु में रोग के सभी लक्षण स्पष्ट दिखायी देते हैं लेकिन शान्त रूप में रोग के लक्षण बहुत कम अथवा लगभग नहीं के बराबर ही होते हैं।

कुत्तों में इस रोग की प्रारम्भिक अवस्था में व्यवहार में परिवर्तन हो जाता है तथा उनकी आंखें अधिक तेज नजर आती हैं। कभी-कभी शरीर का तापमान भी बढ़ जाता है। 2-3 दिन के बाद उसकी बेचैनी बढ़ जाती है तथा उसमें बहुत ज्यादा चिड़-चिड़ापन आ जाता है। वह काल्पनिक वस्तुओं की ओर अथवा बिना प्रयोजन के इधर-उधर काफी तेजी से दौड़ने लगता है तथा रास्ते में जो भी मिलता है उसे वह काट लेता है। अन्तिम अवस्था में पशु के गले में लकवा हो जाने के कारण उसकी आवाज बदल जाती है, शरीर में कपकपी तथा चाल में लड़खड़ाहट आजाती है तथा वह लकवा ग्रस्त होकर अचेतन अवस्था में पड़ा रहता है। इसी अवस्था में उसकी मृत्यु हो जाती है। गाय व भैंसों में इस बीमारी के भयानक रूप के लक्षण दिखते हैं। पशु काफी उत्तेजित अवस्था में दिखता है तथा वह बहुत तेजी से भागने की कोशिश करता है। वह जोर-जोर से रम्भाने लगता है तथा बीच-बीच में जम्भाइयाँ लेता हुआ दिखाई देता है। वह अपने सिर को किसी पेड़ अथवा दीवाल के साथ टकराता है। कई पशुओं में मद के लक्षण भी दिखायी दे सकते हैं। रोग ग्रस्त पशु शीघ्र ही दुर्बल हो जाता है और उसकी मृत्यु हो जाती है। मनुष्यों में इस बीमारी के प्रमुख लक्षणों में उत्तेजित होना, अधिक चिन्तित हो जाना, पानी अथवा कोई खाद्य पदार्थ को निगलने में काफी तकलीफ महसूस करना तथा अन्त में लकवा होना आदि शामिल हैं।

उपचार तथा रोकथाम

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एक बार लक्षण पैदा होजाने के बाद इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है। जैसे ही किसी स्वस्थ पशु को इस बीमारी से ग्रस्त पशु काट लेता है उसे तुरन्त नजदीकी पशु चिकित्सालय में ले जाकर इस बीमारी से बचाव का टीका लगवाना चाहिए। इस कार्य में ढील बिल्कुल नहीं बरतनी चाहिए क्योंकि ये टीके तब तक ही प्रभावकारी हो सकते हैं जब तक कि पशु में रोग के लक्षण पैदा नहीं होते। पालतू कुत्तों को इस बीमारी से बचाने के लिए नियमित रूप से टीके लगवाने चाहिए तथा सड़क के कुत्तों को भी गली और मोहल्ले के लोग टीके लगवाते रहे, सबको जीने का सामान हक है । पालतू एवम् सड़क के कुत्तों का पंजीकरण स्थानीय संस्थाओं द्वारा करवाना चाहिए तथा उनके नियमित टीकाकरण का दायित्व निष्ठापूर्वक मालिक को निभाना चाहिए।

इन्हें भी देखें

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