पांडव नृत्य
पांडव नृत्य उत्तराखंड राज्य का एक प्रमुख लोकनृत्य के रूप में जाना जाता है। यह नृत्य महाभारत में पांच पांडवों के जीवन से सम्बंधित है। पांडव नृत्य के बारे में हर वो व्यक्ति जानता है, जिसने अपना जीवन उत्तराखंड की सुंदर वादियों, अनेको रीति रिवाजों,सुंदर परम्पराओं के बीच बिताया हो। पांडव नृत्य के माध्यम से पांच पांडवों व द्रोपदी की पूजा अर्चना करने की परंपरा वर्षों से चली आ रही है।उत्तराखंड को पांडवो की धरा भी कहा जाता है। पांडव नृत्य का आयोजन हर साल नवंबर से फरवरी तक गढ़वाल में किया जाता है। इसमें लोग वाद्य यंत्रों की थाप और धुनों पर नृत्य करते हैं। मुख्यतः जिन स्थानों पर पांडव अस्त्र छोड़ गए थे वहां पांडव नृत्य का आयोजन होता है।
पाण्डव नृत्य देवभूमि उत्तराखण्ड का पारम्परिक लोकनृत्य है। पाण्डव गण अपने अवतरण काल में यहाँ वनवास, अज्ञातवास, शिव जी की खोज में और अन्त में स्वर्गारोहण के समय आये थे। महाभारत के युद्ध के बाद पांडवों ने अपने विध्वंसकारी अस्त्र और शस्त्रों को उत्तराखंड के लोगों को ही सौंप दिया था और उसके बाद वे स्वार्गारोहिणी के लिए निकल पड़े थे, इसलिए अभी भी यहाँ के अनेक गांवों में उनके अस्त्र- शस्त्रों की पूजा होती है और पाण्डव लीला का आयोजन होता है। स्व. सर्वेश्वर दत्त काण्डपाल के अतिरिक्त आचार्य कृष्णानंद नौटियाल जी द्वारा गढ़वाली भाषा में रचित महाभारत के चक्रव्यूह, कमल व्यूह आदि के आयोजनों का प्रदर्शन पूरे देश में होता है। सबसे रोमांचक पाण्डव नृत्य रुद्रप्रयाग-चमोली जिलों वाले केदारनाथ- बद्रीनाथ धामों के निकटवर्ती गांवों में होता है। उत्तराखण्ड में पाण्डव नृत्य पूरे एक माह का आयोजन होता है। गढ़वाल क्षेत्र में नवंम्बर और दिसंबर के समय खेती का काम पूरा हो चुका होता है और गांव वाले इस खाली समय में पाण्डव नृत्य के आयोजन के लिए बढ़ चढ़कर भागीदारी निभाते हैं। पाण्डव नृत्य कराने के पीछे गांव वालों द्वारा विभिन्न तर्क दिए जाते हैं, जिनमें मुख्य रूप से गांव में खुशहाली, अच्छी फसल और माना जाता है कि गाय में होने वाला खुरपा रोग पाण्डव नृत्य कराने के बाद ठीक हो जाता है। उत्तराखंड में देवी- देवताओं का ही प्रताप है जो त्रियुगीनारायण से 06 किमी दूर, हिमालय के निकट तोसी गांव के लोग भी विना वैद्य के निरोग रहते हैं। इस भव्य और वृहद् आयोजन के दौरान गढ़वाल में भौगोलिक दृष्टि से दूर दूर रहने वाली पहाड़ की बहू- बेटियां अपने मायके आती हैं, जिससे उनको वहाँ के लोगों को अपना सुख दुःख बताने का अवसर मिल जाता है, अर्थात् पाण्डव नृत्य पहाड़वासियों से एक गहरा संबध भी रखता है। पाण्डव नृत्य के आयोजन में सर्वप्रथम गांव वालों द्वारा पंचायत बुलाकर आयोजन की रूपरेखा तैयार की जाती है। सभी गांव वाले तय की गई तिथि के दिन पाण्डव चौक में एकत्र होते हैं। पाण्डवां चौक उस स्थान को कहा जाता है, जहां पर पाण्डव नृत्य का आयोजन होता है। ढोल एवं दमाऊं जो कि उत्तराखण्ड के पारंपरिक वाद्य यंत्र हैं, जिनमें अलौकिक शक्तियां निहित होती हैं। इन दो वाद्य यंत्रों द्वारा पाण्डव नृत्य में जो पाण्डव बनते हैं, उनको विशेष थाप द्वारा अवतरित किया जाता है और उनको पाण्डव पश्वा कहा जाता है। वे गांव वालों द्वारा तय नहीं किए जाते हैं, प्रत्युत विशेष थाप पर विशेष पाण्डव अवतरित होता है, अर्थात् युधिष्ठिर पश्वा के अवतरित होने की एक विशेष थाप है, उसी प्रकार भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव आदि पात्रों की अपनी अपनी विशेष थाप होती है। पाण्डव पश्वा प्रायः उन्हीं लोगों पर आते हैं, जिनके परिवार में यह पहले भी अडवतरित होते आये हों। वादक लोग ढोल- दमाऊं की विभिन्न तालों पर महाभारत के आवश्यक प्रसंगों का गायन भी करते हैं। इस प्रकार यह उत्तराखंड की सदियों से चली आ रही उत्तराखण्ड की अनुपम सांस्कृतिक धरोहर है।