पाइक विद्रोह (1817 ई.) ओडिशा में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के शोषणकारी नीतियों के विरुद्ध उड़ीसा में पाइक जाति के लोगों द्वारा किया गया एक सशस्त्र, व्यापक आधार वाला और संगठित विद्रोह था। इस विद्रोह ने पूर्वी भारत में कुछ समय के लिए ब्रिटिश राज की जड़े हिला दी थीं।

बक्शी जगबन्धु

पाइक ओड़ीसा की एक पारंपरिक भूमिगत रक्षक सेना थी। वे योद्धाओं के रूप में वहाँ के लोगों की सेवा भी करते थे। पाइक लोगों ने भगवान जगन्नाथ को ओड़िया एकता का प्रतीक मानकर बख्शी जगबन्धु के नेतृत्व में 1817 ई. में यह विद्रोह शुरू किया था। शीघ्र ही यह आन्दोलन पूरे उड़ीसा में फैल गया किन्तु अंग्रेजों ने निर्दयतापूर्वक इस आन्दोलन को दबा दिया। बहुत से वीरों को पकड़ कर दूसरे द्वीपों पर भेज कर कारावास का दण्ड दे दिया गया। बहुत दिनों तक वन में छिपकर बक्सि जगबन्धु ने संघर्ष किया किन्तु बाद में आत्मसमर्पण कर दिया।

कुछ इतिसकार इसे 'भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम' की संज्ञा देते हैं। पाइक विद्रोह को ओडिशा में बहुत उच्च दर्जा प्राप्त है और बच्चे अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई में वीरता की कहानियां पढ़ते हुए बड़े होते हैं, लेकिन दुर्भाग्य से इस विद्रोह को राष्ट्रीय स्तर पर वैसा महत्व नहीं मिला जैसा कि मिलना चाहिए था।

सन २०१७ में इस विद्रोह के २०० वर्ष पूरा होने पर भारत सरकार ने घोषणा की कि 1817 के पाइका विद्रोह को अगले शैक्षिक सत्र से इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में ‘प्रथम स्वतंत्रता संग्राम’ के रूप में स्थान दिया जाएगा। साथ ही केंद्र सरकार ने देश भर में इसकी 200वीं वर्षगाँठ मनाने के लिये 200 करोड़ रुपए आवंटित किये।

मूल रूप से पाइक ओडिशा के उन गजपति शासकों के किसानों का असंगठित सैन्य दल था, जो युद्ध के समय राजा को सैन्य सेवाएं मुहैया कराते थे और शांतिकाल में खेती करते थे। इन लोगों ने 1817 में बक्शी जगबन्धु बिद्याधर के नेतृत्व में ब्रिटिश राज के विरुद्ध बगावत का झंडा उठा लिया।

खुर्दा के शासक परम्परागत रूप से जगन्नाथ मंदिर के संरक्षक थे और धरती पर उनके प्रतिनिधि के तौर पर शासन करते थे। वो ओडिशा के लोगों की राजनीतिक और सांस्कृतिक स्वतंत्रता का प्रतीक थे। ब्रिटिश राज ने ओडिशा के उत्तर में स्थित बंगाल प्रांत और दक्षिण में स्थित मद्रास प्रांत पर अधिकार करने के बाद अंग्रेजों ने 1803 में ओडिशा को भी अपने अधिकार में कर लिया था। उस समय ओडिशा के गजपति राजा मुकुन्ददेव द्वितीय अवयस्क थे और उनके संरक्षक जय राजगुरु द्वारा किए गए शुरुआती प्रतिरोध का क्रूरता पूर्वक दमन किया गया। जयगुरु के शरीर के जिंदा रहते हुए ही टुकड़े कर दिए गए।

पलिक पञ्चसखा : दाएं से बाएं - कृतिबास पटसनी, माधव चन्द्र राउतराय, बक्शी जगबन्धु, जयी राजगुरु, और पिण्डिकी बाहुबलेन्द्र

कुछ सालों के बाद गजपति राजाओं के असंगठित सैन्य दल के वंशानुगत मुखिया बक्शी जगबन्धु के नेतृत्व में पाइक विद्रोहियों ने आदिवासियों और समाज के अन्य वर्गों का सहयोग लेकर बगावत कर दी। पाइक विद्रोह 1817 में आरम्भ हुआ और बहुत ही तेजी से फैल गया। हालांकि ब्रिटिश राज के विरुद्ध विद्रोह में पाइक लोगों ने अहम भूमिका निभाई थी, लेकिन किसी भी मायने में यह विद्रोह एक वर्ग विशेष के लोगों के छोटे समूह का विद्रोह भर नहीं था।

घुमसुर जो कि वर्तमान में गंजम और कन्धमाल जिले का हिस्सा है, वहां के आदिवासियों और अन्य वर्गों ने इस विद्रोह में सक्रिय भूमिका निभाई। वास्तव में पाइका विद्रोह के विस्तार का सही अवसर तब आया, जब घुमसुर के 400 आदिवासियों ने ब्रिटिश राज के खिलाफ बगावत करते हुए खुर्दा में प्रवेश किया। खुर्दा, जहां से अंग्रेज भाग गए थे, वहां की तरफ कूच करते हुए पाइका विद्रोहियों ने ब्रिटिश राज के प्रतीकों पर हमला करते हुए पुलिस थानों, प्रशासकीय कार्यालयों और राजकोष में आग लगा दी।

पाइक विद्रोहियों को कनिका, कुजंग, नयागढ़ और घुमसुर के राजाओं, जमींदारों, ग्राम प्रधानों और आम किसानों का समर्थन प्राप्त था। यह विद्रोह बहुत तेजी से प्रांत के अन्य इलाकों जैसे पुर्ल, पीपली और कटक में फैल गया। विद्रोह से पहले तो अंग्रेज चकित रह गए, लेकिन बाद में उन्होंने आधिपत्य बनाए रखने की कोशिश की लेकिन उन्हें पाइका विद्रोहियों के कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। बाद में हुई कई लड़ाइयों में विद्रोहियों को विजय मिली, लेकिन तीन महीनों के अंदर ही अंग्रेज अन्ततः उन्हें पराजित करने में सफल रहे।

इसके बाद दमन का व्यापक दौर चला जिसमें कई लोगों को जेल में डाला गया और अपनी जान भी गंवानी पड़ी। बहुत बड़ी संख्या में लोगों को अत्याचारों का सामना करना पड़ा। कई विद्रोहियों ने 1819 तक गुरिल्ला युद्ध लड़ा, लेकिन अन्त में उन्हें पकड़ कर मार दिया गया। बक्शी जगबन्धु को अंततः 1825 में गिरफ्तार कर लिया गया और कैद में रहते हुए ही 1829 में उनकी मृत्यु हो गई।

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