पादप रोगविज्ञान या फायटोपैथोलोजी (plant pathology या phytopathology) शब्द की उत्पत्ति ग्रीक के तीन शब्दों जैसे पादप, रोग व ज्ञान से हुई है, जिसका शाब्दिक अर्थ है "पादप रोगों का ज्ञान (अध्ययन)"। जीव विज्ञान की वह शाखा है, जिसके अन्तर्गत रोगों के लक्ष्णों, कारणों, हेतु की, रोगचक्र, रागों से हानि एवं उनके नियंत्रण का अध्ययन किया जाता हैं। इसकी सफलता निम्न परिस्थितियों पर निर्भर करती है। (1)परपोषी का सुग्राही होना, (2)परजीवी का बीमारी फैलाने की क्षमता रखना।

चूर्णिल आसिता (Powdery mildew) का रोग एक बायोट्रॉफिक कवक के कारण होता है
कृष्ण विगलन (ब्लैक रॉट) रोगजनक का जीवनचक्र

उद्देश्य

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इस विज्ञान के निम्नलिखित प्रमुख उद्देश्य है:

  • पादप-रोगों के संबंधित जीवित, अजीवित एवं पर्यावरणीय कारणों का अध्ययन करना ;
  • रोगजनकों द्वारा रोग विकास की अभिक्रिया का अध्ययन करना ;
  • पौधों एवं रोगजनकों के मध्य में हुई पारस्परिक क्रियाओं का अध्ययन करना ;
  • रोगों की नियंत्रण विधियों को विकसित करना जिससे पौधों में उनके द्वारा होने वाली हानि न हो या कम किया जा सके।

पादप रोग विज्ञान एक व्यावहारिक विज्ञान है, जिसके अन्तर्गत पौध रोग के कारक एवं उनके प्रायोगिक समाधान आते है। चूंकि पौधे में रोग कवक, जीवाणु, विषाणु, माइकोप्लाज्मा, सूत्रकृमि, पुष्पधारी आदि के अतिरिक्त अन्य निर्जीव कारणों जैसे जहरीली गैसों आदि से होता है। अत: पादप रोग विज्ञान का संबंध अन्य विज्ञान जैसे कवक विज्ञान, जीवाणु विज्ञान, माइकोप्लाज्मा विज्ञान, सूक्ष्म जीव विज्ञान, सूत्र-कृमि विज्ञान, सस्य दैहिकी, अनुवांशिकी एवं कृषि रसायन विज्ञान से संबंधित है। पृथ्वी पर जब से मनुष्य ने खेती करना आरम्भ किया है, उस समय से ही पादप रोग भी फसलों पर उत्पन्न होते रहे हैं। प्राचीन धर्मग्रन्थों जैसे - वेद एवं बाइबिल आदि में भी पादप रोगों द्वारा होने वाले फसलों के विनाश के अनेक वर्णन मिलते हैं।

पादप रोग का महत्व, उनके द्वारा होने वाली हानियों के कारण बहुत ही ब़ढ़ गया है। रोगों द्वारा हानि खेत से भण्डारण तक अथवा बीज बोने से लेकर फसल काटने के बीच किसी भी समय हो सकती है पौधे के जीवन काल में बीज सड़न, आर्द्रमारी, बालपौध झुलसा, तना सडन, पर्णझुलसा, पर्ण-दाग, पुष्प झुलसा तथा फल सड़न ब्याधियॉ उत्पन्न होती है।

यद्यपि भारत में पादप रोगों द्वारा होने वाली हानि का सही - सही मूल्यांकन नहीं किया गया है। परन्तु अनुसंधान द्वारा कुछ भीषण बीमारियां जैसे धान को झोंका एवं भूरा पर्णदाग, गेहूं का करनाल बंट तथा आलू के पिछेता झुलसा के उग्र विस्तार से संबंधित विभिन्न कारकों को अध्ययन कर पूर्वानुमान माडल विकसित किया गया है।

 
नेमाटोड

फसलों के अनेक विनाशकारी रोगों के कारण प्रतिवर्ष फसलों की उपज को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से अत्यधिक हानि होती है। इन रागों के मुख्य उदाहारण -

  • गन्ने में का लाल सड़न रोग - उत्तर प्रदेश के पूर्वी भागों तथा बिहार के निकटस्थ क्षेत्रों में,
  • गन्ने का लाल सड़न या कंड - समस्त भारत में,
  • आम का चूर्णिल आसिता व गुच्छा शीर्ष रोग
  • अमरूद का उकठा
  • मध्य एवं दक्षिणी भारत में सुपारी को महाली अथवा कोलिरोगा रोग,
  • गेहूं के किटट,
  • अरहर तथा चने का उकठा,
  • नेमाटोड से उत्पन्न गेहूं को गेगला या सेहूं रोग
  • सब्जियों का जडग्रन्थि व मोजेक,
  • काफी एवं चाय का किटट,
  • धान का झोंका तथा भूरा पर्णचित्ती रोग,
  • पटसन का तना विगलन,
  • केले का गुच्छ शीर्ष रोग,
  • कपास को शकाणु झुलसा, म्लानि एवं श्यामव्रण इज्यादि हैं।

भंडारित अनाज पर जब विभिन्न प्रकार के कवक आक्रमण करते हैं तो इनके विनष्टीकरण के साथ उनमें कुछ विषैले पदार्थ भी उत्पन्न होते हैं जो मनुष्यों एवं पशुओं उन्माद, लकवा, आमाशय कष्ट इत्यादि रोगों का कारण बनते हैं। पादप रोगों के नियंत्रण पर जो रुपया व्यय किया जाता है वह भी एक प्रकार की हानि ही है और यदि इस रूपये को दूसरे कृषि कार्यों में लगाया जाये तो उत्पादन और भी अधिक बढाया जा सकता है। इसी प्रकार पादप रोगों द्वारा हुये कम उत्पादन के कारण उन पर आधारित कारखाने भी कठिनाई में पड़ जाते हैं जो कृषि में उत्पन्न कच्चे माल जैसे - कपास, तिलहन, गन्ना, जूट इत्यादि पर निर्भर करते है। कच्चे माल में कमी के कारण यातायात उद्योग भी प्रभावित होता है।

बाहरी कड़ियाँ

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