वैद्यरत्नम पन्नियिनपल्ली सनकुन्नी वार्यर ( P. S. Warrier ; 1869 - 1944) भारत के आयुर्वेदाचार्य थे। उन्होने आयुर्वैदिक चिकित्सा पद्धति के पुनर्जागरण का अभियान चलाया। उन्होंने आयुर्वेद की शिक्षा और औषधि निर्माण को आधुनिक, सेकुलर और वैज्ञानिक रूप दिया। आज केरल का सबसे बड़ा ब्रांड केरल-आयुर्वेद इन्हीं वैद्य पी.एस. वारियर की ही विरासत है।

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वैद्यरत्नम पी एस वारियर

केरल के कालीकट शहर के निकट कोट्टक्कल कस्बे में 16 मार्च, 1869 को एक प्रतिष्ठित परिवार में पन्नियिन्पल्ली संकुन्नी वारियर का जन्म हुआ। इस परिवार के सदस्यों की चित्रकारी, संगीतसंस्कृत साहित्य में बहुत रूचि थी। संकुन्नी वारियर की माँ स्वयं भी संस्कृत तथा शास्त्रीय संगीत में पारंगत थीं। वारियर परिवार ने अपनी प्रतिष्ठा आयुर्वेदिक चिकित्सकों के रूप में अर्जित की थी। अपने घर के कलात्मक, धार्मिक और चिकित्सकीय वातावरण ने बालक संकुन्नी वारियर के मन पर स्थायी प्रभाव डाला। वारियर ने अपने समय के प्रतिष्ठित विद्वानों से संस्कृत सीखी। कोनथ अचुत्य वारियर से आयुर्वेद की आरम्भिक शिक्षा प्राप्त की और बाद में पारम्परिक गुरुकुल पद्धति में चार साल तक उस समय के प्रसिद्ध अष्टवैद्य कुट्टनचेरि वासुदेवनमूस के पास रहकर आयुर्वेद की उच्च शिक्षा प्राप्त की।

वारियर ने 20 वर्ष के आयु में अपनी आयुर्वेद की शिक्षा पूर्ण करके जब कोट्टक्कल में अपना चिकित्सालय आरम्भ किया तो उन्होंने अनुभव किया कि भारत में पश्चिमी चिकित्सा पद्धति बहुत तेज़ी से लोकप्रिय होती जा रही थी। जिज्ञासु होने के नाते वारियर इस नयी चिकित्सा प्रणाली के बारे में सीखने-जानने को बहुत उत्सुक थे किन्तु अंग्रेज़ी भाषा की अज्ञानता वारियर के लिए बहुत बड़ी बाधा थी। वारियर ने अपनी साधनों से निजी तौर पर अंग्रेज़ी सीखना शुरू किया और जल्दी ही इस भाषा में पारंगत हो गये। पश्चिमी चिकित्सा से उनका व्यक्तिगत साक्षात्कार तब हुआ जब अपनी आँखों की एक तकलीफ़ के लिए वारियर को एक सरकारी अस्पताल के सहायक सर्जन डॉ॰ वी. वर्गीज से परामर्श करने का अवसर मिला। उपचार पूरा होने पर डॉ॰ वी. वर्गीज ने वारियर को पश्चिमी चिकित्सा सिखाने की पेशकश की जिसे वारियर ने पूरी कृतज्ञता से स्वीकार किया और अगले तीन साल तक अस्पताल में प्रशिक्षण प्राप्त किया। अपने प्रशिक्षण में वारियर ने रोग के लक्षणों व निदान के तरीके, मरीज़ों को पश्चिमी दवाओं की खुराक व वितरण के तरीके, संज्ञाहरण (अनेस्थेसिया) देने की विधि और मामूली शल्य क्रिया जैसी विद्याएँ सीखीं। समकालीन वैद्यों से अलग हट कर एलोपैथी चिकित्सा पद्धति का भी अध्ययन करके वारियर ने अपने ज्ञान में स्वदेशी और पश्चिमी प्रणालियों को समा लिया, बावजूद इसके कि उनकी मुख्य दक्षता आयुर्वेद में थी। लेकिन पश्चिमी चिकित्सा-ज्ञान, विशेष रूप से शल्य चिकित्सा, शरीर-रचना विज्ञान और शरीर-विज्ञान ने उनके दृष्टिकोण को बहुत प्रभावित किया।

एक वैद्य के रूप में वारियर ने देखा कि उनके द्वारा तजवीज़ की गयी आयुर्वैदिक औषधियों का शुद्ध तथा उचित अनुपात में मिलना असम्भव था। उन्होंने समझ लिया कि उपचार और औषधियों के मानकीकरण के बग़ैर आयुर्वेद पद्धति बिलकुल नष्ट हो जाएगी। उन्हें लगा कि एलोपैथी दवाएँ जब नियत खुराक और टिकाऊ पैकिंग में मिल रही हैं और एलोपैथिक पद्धति उपचार की एक निश्चित प्रक्रिया अपना रही हो तो आयुर्वेद को भी अपने उपचार व औषधियों में पारदर्शिता अपनानी होगी। इसी के बाद वारियर ने आयुर्वेद के मानकीकरण के लिए सबसे पहले 1902 में कोट्टक्कल में औषधि निर्माण हेतु आर्य वैद्यशाला की स्थापना की जहाँ उनकी देखरेख में प्रामाणिक आयुर्वेदिक ग्रंथों के आधार पर दवाएँ बनायी जाने लगीं। अंग्रेज़ी दवाओं की भाँति ही पहली बार आर्य वैद्यशाला ने आयुर्वैदिक औषधियों को मानक खुराक व पैकिंग में लम्बे समय तक उपयोगी रहने योग्य बनाया। आयुर्वैदिक औषधियों ने निर्माण के क्षेत्र में यह एक बहुत बड़ा परिवर्तन था।

1907 में वारियर ने आयुर्वेद वैद्य समाजम की स्थापना की। इसके पीछे वारियर का उद्देश्य एलोपैथी और आयुर्वेद में सामंजस्य तलाशना था। एक विद्वान चिकित्सक के रूप में वारियर जानते थे कि आयुर्वेद को एलोपैथी के कुछ नवीनतम तरीकों को अपनाना होगा। एक आयुर्वेद चिकित्सक के रूप में वारियर अन्य वैद्यों को बेहतर प्रशिक्षण देना चाहते थे। वारियर ने आयुर्वेद वैद्य समाजम में ट्रावनकोर, कोचीन तथा मालाबार के आयुर्वेदिक चिकित्सकों को जोड़ा था। इसके 50 साल बाद इन्हीं क्षेत्रों का विलय कर आधुनिक केरल राज्य की रचना हुई। देखा जाए तो वारियर ने एक सम्पूर्ण केरल राज्य की कल्पना अपने समय के बहुत पहले कर ली थी। पी.एस. वारियर ने आयुर्वेद के प्रचलित ज्ञान के संहिताकरण और प्रसार के लिए आयुर्वेदिक दवाओं के उपयोग, खुराक और अन्य जानकारीको सूचीबद्ध स्वरूप में प्रकाशित किया ताकि कोई भी सामान्य व्यक्ति चिकित्सक के पर्चे के बिना दवाओं का प्रयोग करने में सक्षम हो सके। आम लोगों को आयुर्वेद से परिचित करने के लिए उन्होंने मलयालम में 'चिकित्सा समग्रहम्' नामक एक पुस्तक भी लिखी। इसी प्रकार वारियर ने अष्टांग हृदयम नमक पुस्तक का मलयालम संस्करण प्रकशित किया तथा अपने चचेरे भाई पी.वी. कृष्णा वारियर के साथ मिलकर आयुर्वेद के इतिहास पर मलयालम में एक पुस्तक तैयार की।

1917 में वारियर ने आयुर्वेद की प्रामाणिक शिक्षा के लिए आयुर्वेद पाठशाला की स्थापना की ताकि इस पारम्परिक शिक्षा को आधुनिक, सेकुलर तथा वैज्ञानिक बनाया जा सके। यह अपने समय का एक बड़ा क्रांतिकारी कदम था क्योंकि इस आयुर्वेद पाठशाला में धर्म, जाति, वर्ण भेद के बिना छात्रों को प्रवेश मिलना शुरू हुआ। कई विद्यार्थियों को छात्रवृति भी दी गयी। वारियर ने इस आयुर्वेद पाठशाला की स्थापना का केवल व्यय ही नहीं उठाया बल्कि इसमें चिकित्सा विज्ञान के नवीनतम विषयों को स्वयं पढ़ाने का काम भी किया। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के ऐनाटोमी तथा फ़िज़ियोलॅजी जैसे विषयों को आयुर्वेद पाठशाला में पढ़ाने के लिए उन्होंने अष्टांग शरीरम् तथा बृहत् शरीरम् नमक दो पुस्तकों की रचना भी की। आज यह आयुर्वेद पाठशाला वैद्यरत्नम पी.एस. वारियर शासकीय आयुर्वेद महाविद्यालय के नाम से कालीकट विश्वविद्यालय के साथ अंगीकृत है। आयुर्वेद में वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रसार हेतु वारियर ने धन्वन्तरी नामक एक आयुर्वेद जर्नल का सम्पादन किया। उन्होंने आयुर्वेद को केवल व्यवसाय नहीं माना। उनका उद्देश्य इस गौरवपूर्ण ज्ञान, विद्या, शास्त्र को विलुप्त होने से बचाना और इस विलक्षण आयुर्विज्ञान का जीर्णोद्धार करना था। 1924 में उन्होंने एक धर्मार्थ चिकित्सालय की स्थापना की। इस आयुर्वेद चिकित्सालय में उन्होंने एलोपैथिक उपचार की व्यवस्था भी रखी थी। 1932 में भारत सरकार ने पी.एस. वारियर को वैद्यरत्नम की उपाधि से विभूषित किया। वारियर को आयुर्वेद औषधियों में प्रयुक्त विभिन्न जड़ी-बूटियों की शुद्धता के लिए उन्हें स्वयं उपजाने की व्यवस्था की। आज वैद्यशाला के बाग़ों में करीब एक हज़ार प्रकार की दुर्लभ जड़ी-बूटियाँ उगायी जाती हैं। आयुर्वेद किसी एक रोग का नहीं बल्कि रोगी का सर्वांगीण उपचार करता है। इसीलिए आयुर्वेद में इतने सारे नियम, संयम, आहार, विचार, ध्यान, धारणा पर ज़ोर दिया जाता है। एक उत्कृष्ट वैद्य होने के नाते 1932 में वारियर ने आर्य वैद्यशाला के प्रांगण में एक भव्य मंदिर का निर्माण किया जिससे रोगी अपनी शारीरिक पीड़ा और मानसिक उद्वेलन से ऊपर उठ सके। उस समय की सारी सामजिक रूढ़ियों को नकारते हुए इस मंदिर में हर धर्म, जाति, वर्ण के व्यक्ति को प्रवेश की स्वतन्त्रता थी। वारियर स्वयं संस्कृत के बड़े ज्ञाता थे। उन्हें साहित्य, कविता, नाटक तथा नृत्य में गहरी रुचि थी। 1909 में वारियर ने परम सिवा विलासम नाट्य मण्डली की स्थापना की। 1939 में इस नाट्य मण्डली को पी.एस.वी. नाट्य संघम में परिवर्तित कर दिया गया जो आज केरल का एक प्रमुख कथकली समूह है। 1933 में ही उन्होंने अपनी अपना सारा धन परिवार और कुटुम्ब को देने के बजाय आर्य वैद्यशाला को प्रदान कर दी। 1944 में पी.एस. वारियर का निधन हुआ।

  • (१) गीता कृष्णकुट्टी (2001), अ लाइफ़ ऑफ़ हीलिंग : ए बायोग्राफी ऑफ़ वैद्यरत्नम पी.एस. वारियर, वाइकिंग (इण्डिया), नयी दिल्ली।
  • (२) के.वी. नायर (1954), अ बायोग्राफी ऑफ़ वैद्यरत्नम पी. एस. वारियर, केरल आयुर्वैद्यशाला, कोट्टक्कल।
  • (३) के.एन. पानिक्कर (1992), ‘इंडिजेनस मेडिसिन ऐंड कल्चरल हेजेमनी : अ स्टडी ऑफ़ रेवाऐटिलाइज़ेशन मूवमेंट इन केरलम’, स्टडीज़ इन हिस्ट्री, खण्ड 8, अंक 2।

इन्हें भी देखें

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