पुरुरवा उर्वशी संवाद सूक्त
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ऋग्वेद में आयी वैदिक संस्कृति की पहली कथा उर्वशी और राजा पुरुरवा की कथा है। इसका काल विद्वानों ने 6000 ई.पू. माना है। दो भिन्न संस्कृतियों की टकहराट की प्रतीक बन गयी है यह मार्मिक प्रणय-गाथा।
उर्वशी स्वर्गलोक की मुख्य अप्सरा थी। वह देवों के राजा इन्द्र की कृपापात्र थी। वह उनके दरबार में प्रत्येक सन्ध्या नृत्य किया करती थी। वह सुन्दर थी। उसने अपना हृदय किसी को अर्पित नहीं किया था। उसे किसी ने भी बालिका, किशोरी अथवा माता के रूप में मानना स्विकार नहीं था। उर्वशी सभी पुरुषौं की महिला मित्र के रूप में ही जानी-मानी जाती थी।
एक बार वह तथा उसकी सखी अन्य अप्सरा, चित्रलेखा दोनों भूलोक पर भ्रमण के लिए गयीं। वहाँ एक असुर की उन पर दृष्टि जा पड़ी और उसने उनका अपहरण कर लिया। वह उन्हें एक रथ में लिये चला जा रहा था और वे जोर-जोर से विलाप कर रही थीं कि भूलोक के एक राजा पुरुरवा ने उनका चीत्कार सुन लिया। पुरुरवा सिंह के समान निर्भीक था। उसने बिना किसी हिचकिचाहट के असुर पर आक्रमण कर दिया। अन्ततः उसने असुर को तलवार से काटकर मौत के घाट उतार दिया।
उर्वशी विजेता पुरुरवा के प्रेम में पड़ गयी और उर्वशी के मन मे कामवासना जागृत हुआ। किन्तु उर्वशी को स्वर्गलोक लौटना पड़ा और पुरुरवा भी उसके लिए बेचैन रहने लगा। पुरुरवा की समझ में न आया कि वह क्या करे। उसने अपने बचपन के मित्र राजविदूषक को अपनी व्यथा कह सुनायी। एक दिन वह अपने उद्यान में बैठा उर्वशी के सम्बन्ध में सोच रहा था कि उर्वशी उसके पीछे आ खड़ी हुई। उर्वशी ने पुरुरवा को पिछे से आलिंगन किया और दोनों परस्पर आलिंगन में बँध गये। ठीक उसी समय स्वर्गलोक से एक दूत आया और उसने उर्वशी को देवराज इन्द्र का सन्देश सुनाया। इन्द्र ने उसे आज्ञा दी थी कि वह तत्काल स्वर्गलोक पहुँचकर एक विशेष नृत्यनाटिका में भाग ले। लाचार हो उर्वशी को लौट जाना पड़ा।
किन्तु उर्वशी का मन नृत्य-नाटिका में न लग पाया। कामवासना से युक्त उर्वशी ने अनजाने में ही वह पुरुरवा को पुकार बैठी। नृत्यनाटिका के रचयिता भरत मुनि ने क्रुद्ध हो तुरन्त उसे शाप दे दिया :
‘‘तुमने मेरी नाटिका में चित्त नहीं रमाया। तुम भूलोक जाकर वहाँ पुरुरवा के साथ मनुष्य की भाँति ही रहो।’’
उर्वशी पुरुरवा से सम्बन्ध बनाना चाहती तो थी। किन्तु मृत्युलोक में नहीं रहना चाहती थी। अतएव देवराज इन्द्र के पास पहुँचकर घुटनों के बल गिड़गिड़ाने लगी कि वह उसको शाप-मुक्त कर दें। इन्द्र को अपनी प्रिय अप्सरा पर दया आयी। वह बोले, ‘‘उर्वशी, तुम भूलोक जाओ, किन्तु तुम अधिक समय वहाँ नहीं रहोगी। उ
उसन रुरवा से कहा, ‘गइैं तुम्हारे साथ रहूँगी, तुम्हारी औरदफिर सम्भोग सुख आदान प्रदान करेंगेक शर्त पर।’’
‘‘क्या है वह शर्त? निश्चय जानो कि मैं उसका पालन करूँगा।’’
‘‘मैं तुम्हें निर्वस्त्र कभी न देखूँ।’’
‘‘तथास्तु! मुझे यह शर्त मंजूर है।’’
एक वर्ष बाद उर्वशी ने पुरुरवा के पुत्र को जन्म दिया।
उर्वशी ने मेमने पाल रखे थे। उसे उनसे इतना प्रेम था कि सोते-जागते समय वह उन्हें अपने पलँग से बाँधकर रखा करती थी। उधर स्वर्गलोक के संगीतकारों, गन्धर्वों को उसके बिना अपनी कला अधूरी लग रही थी। उन्हें पुरुरवा के साथ उर्वशी की शर्त के बारे में ज्ञात था। अतएव मध्यरात्रि को वे मेमना चुरा ले चले। उन्होंने जानबूझकर आवाज की, जिससे उर्वशी जग गयी। उसने पुरुरवा को कुहनी मारकर कहा, ‘‘इधर आप निद्रा-मग्न हैं, उधर गन्धर्व मेरा मेमना चुराये लिये जा रहे हैं।’’
किन्तु पुरुरवा ने उबासी लेकर करवट बदल ली। अगले दिन उर्वशी कुपित बनी रही। पुरुरवा उसे मना पाया। फिर उर्वशी के साथ समागम हुआ फिर मेमना हुआ।
कुछ दिनों के उपरान्त एक रात को गन्धर्व फिर आये। उर्वशी फिर चिल्लायी, ‘‘गन्धर्व मेरा मेमना चुराये लिये जा रहे हैं!’’
इस बार पुरुरवा तत्काल उठ खड़ा हुआ और उसने गन्धर्वों का पीछा किया। शीघ्रता में उसके रात्रिकालीन वस्त्र शरीर से छूट गये। देखते-ही-देखते गन्धर्वों ने बिजली चमकाने की व्यवस्था की। उर्वशी ने उसे निर्वस्त्र देखा और अन्तर्धान हो गयी।
पुरुरवा ने उसके लिए सारा भूलोक छान मारा। वह पर्वतों, घाटियों में भटकता रहा। विक्षिप्त हो वह कभी-कभी वन की लताओं का आलिंगन कर लेता - उन्हें उर्वशी समझ कर। जब वन में वृक्षों से होकर पानी की बूँदें गिरतीं, तो उसे उनमें उर्वशी के पदचाप सुनाई पड़ते। जब आकाश स्वच्छ होता और चिड़ियाँ चहचहाती होतीं, तो उसे उर्वशी के हँसने और गाने का भ्रम होता। जब आकाश मेघाच्छन्न होता, तो उसे लगता कि उर्वशी छिपी हुई है और सहसा ही उसे मिल जाएगी, किन्तु उसकी खोज व्यर्थ गयी, उर्वशी उसे प्राप्त न हो सकी। अनेक वर्षों के उपरान्त उर्वशी को उस पर दया आयी और उसके सम्मुख प्रकट हुई।
उसने कहा, ‘‘तुम मुझे वर्ष में अन्तिम दिन ही पा सकोगे फिर उसी दिन मुझसे समागम करना।’’
और इस प्रकार वर्ष में एक दिन ही वह पुरुरवा को प्राप्त हो पाती, सिर्फ एक ही बात पुरुरवा और उर्वशी एक दूसरे के साथ संभोग कर पाते। वर्ष के शेष दिनों वह उसकी विरह-वेदना में जला करता, उसकी खोज किया करता, किन्तु कभी नहीं खोज पाता, उस सौन्दर्य, लावण्य, मोहकता और भव्यता के प्रतीक को और फिर यहीं से साहित्य की शुरुआत भी हुई।