पेट्रोलियम निष्कर्षण
पेट्रोलियम निष्कर्षण (extraction of petroleum) से तात्पर्य धरती के अन्दर से उपयोगी पेट्रोलियम निकालने की प्रक्रिया से है।
परिचय
संपादित करेंपेट्रोलियम वेधन पेट्रोलियम धरती के नीचे ५०० फुट से ५,००० फुट, या इससे अधिक, गहराई तक पाया जाता है। पेट्रोलियमवाले स्थलों पर कूप खोदकर पेट्रोलियम निकाला जाता है। किस स्थान पर पेट्रोलियम निकलेगा, इसका निश्चित रूप से बताना कठिन है। जहाँ पेट्रोलियम होने की संभावना समझी जाती है, वहाँ यत्र तत्र कूप खोदकर जानकारी प्राप्त की जाती है। कई स्थानों पर कूप खोदने पर ही किसी एक स्थान से पेट्रोलियम निकल आता है। पेट्रोलियम के विशेषज्ञों को जाँच पड़ताल करने से कुछ आभास मिलता है कि कहाँ पेट्रोलियम निकल सकता है। इसके लिये कुछ प्रयोग और सूक्ष्म निरीक्षण करना पड़ता है।
यदि किसी स्थान से प्राकृतिक गैस निकलती है, तो संभव कि वहाँ पेट्रोलियम नहीं पाया जाता। धरती के अंदर पेट्रोलियमवाला स्तर है या नहीं, इसके अध्ययन के लिये वैज्ञानिकों को कुछ विधियाँ मालूम हैं। ऐसी रीति अपनत सिद्धांत (anticlinal theory) है जिसके अनुसार पेट्रोलियम तेल और प्राकृतिक गैस तल के सर्वोपरि भाग पर इकट्ठे होते हैं। अपनत अक्ष (anticlinal axis) का पता लगाने के लिये आस पास के कूपों के ताप, स्थान का गुरुत्व और चुंबकत्व नापा जाता है। इसमें भूकंपलेखी (seismic) यंत्र का भी उपयोग होता है। भूकंपलेखी यंत्र जो ज्ञान प्राप्त होता है, उसे भूकंपीय परावर्तन (scismic reflection) रीति कहते हैं। इस रीति से डायनेमाइट के विस्फोट से कृत्रिम कंपन उत्पन्न किया जाता है। एक हलका भूकंपलेखी जमीन में दृढ़ता से बैठाया जाता है। विस्फोट की अनेक कृत्रिम प्रतिध्वनि के समय से, ध्वनि की दिशा के सहारे, एक वक्र बनाकर क्षेत्र का प्रांकण करते हैं, जिससे पेट्रोलियमवाले स्थल का पता लगता है। अधिक आधुनिक रीतियों में, प्रभामंडल रीति (Halo method) और वैद्युत रीति का, जिसको एनट्रान (Entran) रीति कहते हैं, उपयोग करते हैं पहली रीति में स्थान की मिट्टी का सर्वेक्षण कर, नीचे की मिट्टी के प्रत्येक १० करोड़ भाग में हाइड्रोकार्बन की मात्रा निर्धारित कर प्राकंण करते हैं। यदि इससे ऐसा प्रतिरूप (patern) प्राप्त होता है जिसमें आभामंडल (aureole) या प्रभामंडल (halo) है, तो उस क्षेत्र में पेट्रोलियम अवश्य विद्यमान है। खनिज अंकों के प्रांकण से भी पेट्रोलियम का पता लगता है।
पता लगने पर, ऐसे स्थानों पर कूपों की खुदाई करते हैं। ऐसी खोदाई के लिये बड़े बड़े वेधन यंत्र बने हैं। ये बेधन यंत्र बड़े होने के साथ साथ कीमती और पेचीदे भी होते हैं। वेधन से धरती की मिट्टी निकाली जाती है और यंत्र धीरे धीरे नीचे खसकाया जाता है। यहाँ अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है। यदि मिट्टी का घनत्व सामान्य है तो कोई कठिनाई नहीं होती, पर कहीं कहीं मिट्टी का घनत्व इतना ऊँचा होता है और वहाँ की मिट्टी इतनी श्यान होती है कि बेधन में बड़ी कठिनाई नहीं होती है। कठिनता को दूर करने में तनुकारक पदार्थो (diluents) का उपयोग आवश्यक हो जाता है। तनुकारक मिट्टी के कणों द्वारा अवशोषित हो कर, उन्हें प्रबल विद्युदाविष्ट बना देते हैं, जिसके प्रतिकर्षण (repulsion) से कण अलग अलग हो जाते हैं। कभी कभी केवल ०.१ प्रतिशत तनुकारक की उपस्थिति से श्यानता में ९० प्रतिशत की कमी हो जाती है। ऐसे तनुकारकों में सोडियम सिलिकेट, केसीन और ट्रैगेकंथ गोंद है। कभी कभी यह काम अधिक घनत्ववाले पदार्थो, जैसे बेरियम सिलिकेट या लोहे का ऑक्साइड को डालकर भी संपन्न किया जाता है। इन पदार्थो में कोलायडल गुण नहीं होता, जैसा मिट्टी में होता है। अत: ये मिट्टी की श्यानता को कम करते हैं।
यदि मिट्टी में कैल्सियम कार्बोनेट अधिक है तो हाइड्रोक्लोरिक अम्ल सदृश अम्लों से उपचारित कर उसे दूर करते हैं। कभी कभी कूपों में पानी निकल आता है। ऐसे पानी के आने को रोकने के लिये कूप के किनारे स्रोत चढ़ाने की आवश्यकता पड़ती है। ऐसा खोल साधारणतया सीमेंट का बना होता है, पर अन्य पदार्थ, जैसे नैफ्थेलीन, सोडियम सिलिकेट, सिलिसिक अम्ल जेल आदि भी उपयुक्त सिद्ध हुए हैं।