अजमेर शरीफ़ की दरगाह

तारागढ़ पहाड़ी की तलहटी में स्थित ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह शरीफ वास्तुकला की दृष्टि से भी अभूतपूर्व है। यहाँ ईरानी और हिन्दुस्तानी वास्तुकला का सुंदर संगम दिखता है। दरगाह का निर्माण हुमायूँ के शासनकाल में हुआ था। दरगाह का प्रवेश द्वार और गुंबद बेहद खूबसूरत है। प्रवेशद्वार के निकट मस्जिद का निर्माण अकबर के शासनकाल में हुआ था तथा मजार के ऊपर की आकर्षक गुंबद शाहजहां के शासनकाल में निर्मित की गई। माना जाता है कि दरगाह को पक्का करवाने का काम मांडू के सुल्तान गयासुद्दीन खिलजी ने करवाया था। दरगाह के अंदर बेहतरीन नक्काशी किया हुआ एक चाँदी का कटघरा है। इस कटघरे के अंदर ख्वाजा साहब की मज़ार है। यह कटघरा जयपुर के महाराजा राजा जयसिंह ने बनवाया था। दरगाह में एक सुंदर महफिलखाना तथा कई दरवाजे हैं, जहाँ कव्वाल ख्वाजा की शान में कव्वाली गाते हैं। दरगाह के आस-पास कई अन्य ऐतिहासिक इमारतें भी स्थित हैं। दरगाह के आंगन में दो विशालकाय देग रखी हैं, जो अकबर और जहांगीर द्वारा भेंट की गई थीं। इनमें एक साथ कई मन चावल पकाया जाता है, जो गरीबों में बांटा जाता है।

हजरत ख्वाजा मोईनुद्‍दीन चिश्ती रहमतुल्ला अलैह (फ़ारसी: خواجہ معین الدین چشتی ) (११४१-१२३०) सूफ़ी संत थे। उन्होंने १२वीं शताब्दी में अजमेर में चिश्ती परंपरा की स्थापना की। ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती का जन्म ईरान में हुआ था।