पारसी पंथ फारस का राजपंथ हुआ करता था। यह ज़न्द अवेस्ता नाम के गन्थं पर आधारित है। इसके संस्थापक महात्मा ज़रथुष्ट्र हैं, इसलिये इसे ज़रथुष्ट्री पंथ भी कहते हैं। ऐतिहासिक रूप से पारसी पंथ की शुरुआत 6वीं शताब्दी ईसा पूर्व में हुई। पारसी पंथ की शिक्षा हैः हुमत, हुख्त, हुवर्श्त अथवा सुबुद्धि, सुभाष, सुव्यवहार हुआ। प्राचीन फारस (आज का ईरान) जब पूर्वी यूरोप से मध्य एशिया तक फैला एक विशाल साम्राज्य था, तब पैगंबर जरथुस्त्र ने एक ईश्वरवाद का संदेश देते हुए पारसी पंथ की नींव रखी। ज़रथुष्ट्र व उनके अनुयायीयों के बारे में विस्तृत इतिहास ज्ञात नहीं है। कारण यह कि पहले सिकंदर की फौजों ने तथा बाद में अरब के जिहादी आक्रमणकारियों ने प्राचीन फारस का लगभग सारा मज़हबी एवं सांस्कृतिक साहित्य नष्ट कर डाला था। आज हम इस इतिहास के बारे में जो कुछ भी जानते हैं, वह ईरान के पहाड़ों में उत्कीर्ण शिला लेखों तथा वाचिक परंपरा की बदौलत है। सातवीं सदी ईस्वी तक आते-आते फारसी साम्राज्य अपना पुरातन वैभव तथा शक्ति गँवा चुका था। जब अरबों ने इस पर निर्णायक विजय प्राप्त कर ली तो अपने पंथ की रक्षा हेतु अनेक जरथोस्ती धर्मावलंबी समुद्र के रास्ते भाग निकले और उन्होंने भारत के पश्चिमी तट पर शरण ली। यहाँ वे 'पारसी' (फारसी का अपभ्रंश) कहलाए। आज विश्वभर में मात्र सवा से डेढ़ लाख के बीच जरथोस्ती हैं। इनमें से आधे से अधिक भारत में हैं। अधिक पढ़ें…