प्रियप्रवास, अयोध्यासिंह "हरिऔध" की हिन्दी काव्य रचना है। हरिऔध जी को काव्यप्रतिष्ठा "प्रियप्रवास" से मिली। इसका रचनाकाल सन् 1909 से सन् 1913 है। यह खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्य है

भाषा, छन्द एवं शैली संपादित करें

इसके पहले से ही हिंदी कविता में ब्रजभाषा के स्थान पर खड़ी बोली की स्थापना हो गई थी। मैथिलीशरण गुप्त का "जयद्रथवध" (खंडकाव्य) प्रकाशित हो चुका था। फिर भी खड़ी बोली में भाषा, छंद और शैली का नवीन प्रयोग किया जा रहा था। "प्रियप्रवास" भी ऐसा ही काव्यप्रयोग है। यह 'भिन्न तुकांत' अथवा अतुकांत महाकाव्य है। इसके पूर्व खड़ी बोली में महाकाव्य के रूप में अतुकांत का अभाव था। हरिऔध जी ने "प्रियप्रवास" की विस्तृत भूमिका में अपने महाकाव्य के लिए अतुकांत की आवश्यकता और उसके लिए उपयुक्त छंद पर विचार किया है। अतुकांत उनके लिए "भाषासौंदर्य" का "साधन" है। छंद और भाषा के संबंध में उन्होंने कहा हैं - "भिन्न तुकांत कविता लिखने के लिए संस्कृत वृत्त बहुत ही उपयुक्त हैं - कुछ संस्कृत वृत्तों के कारण और अधिकतर मेरी रुचि के कारण इस ग्रंथ की भाषा संस्कृतगर्भित है"।

"प्रियप्रवास" यद्यपि संस्कृतबहुल और समासगुंफित है, तथापि इसकी भाषा में यथास्थान बोलचाल के शब्दों का भी समावेश है। अतुकांत होते हुए भी इसके पदप्रवाह में प्राय: सानुप्रास कविता जैसा संगीत है, छंद और भाषा में लयप्रवाह है, फिर भी वर्णिक छंद के कारण यत्रतत्र भाषा हिंदी की पष्टि से कृत्रिम हो गई है, जकड़ सी गई है।

"प्रियप्रवास" द्विवेदी युग में प्रकाशित हुआ था। खड़ी बोली की काव्यकला (भाषा, छंद, अतुकांत, इत्यादि) में बहुत परिवर्तन हो चुका है। किंतु एक युग बीत जाने पर भी खड़ी बोली के काव्य-विकास में "प्रियप्रवास" का ऐतिहासिक महत्व है।

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