फासीवाद या फ़ासिस्टवाद (फ़ासिज़्म) इटली में बेनितो मुसोलिनी द्वारा संगठित "फ़ासिओ डि कंबैटिमेंटो" का राजनीतिक आंदोलन था जो मार्च, 1919 में प्रारंभ हुआ। इसकी प्रेरणा और नाम सिसिली के 19वीं सदी के क्रांतिकारियों- "फासेज़"-से ग्रहण किए गए। मूल रूप में यह आंदोलन समाजवाद या साम्यवाद के विरुद्ध नहीं, अपितु उदारतावाद के विरुद्ध था।

नेशनल फैसिस्ट पार्टी का लोगो

उद्भव तथा विकास संपादित करें

इसका उद्भव 1914 के पूर्व के समाजवादी आंदोलन (सिंडिकैलिज़्म) में ही हो चुका था , जो फ्रांसीसी विचारक जाज़ेंज सारेल के दर्शन से प्रभावित था। सिंडिकैलिस्ट पार्टी उस समय पूँजीवाद और संसदीय राज्य का विरोध कर रही थी। 1919 में प्रथम विश्वयुद्ध के बाद पार्टी के एक सदस्य मुसोलिनी ने अपने कुछ क्रांतिकारी साथियों के साथ एक नई क्रांति की भूमिका बना डाली। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इटली को सम्मानित स्थान, गृहनीति में मजदूरों और सेना का सम्मान तथा सभी लोकतांत्रिक और संसदीय दलों तथा पद्धतियों का दमन आदि उसके घोषणापत्र की प्रमुख बातें थीं। प्रथम विश्वयुद्ध में इटली मित्रराष्ट्रों का पक्ष लेकर लड़ा और उसमें उसने सैनिक तथा आर्थिक दृष्टियों से बड़ी हानि उठाई। युद्धोत्तर परिस्थितियों ने फ़ासिस्टवादी आंदोलन के लिए सुदृढ़ पृष्ठभूमि तैयार की। मुसोलिनी ने अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए रोसोनी की नेशनल सिंडिकैलिस्ट पार्टी को भी मिला लिया। क्रांति और पुनरुत्थान के तीखे नारों ने निर्धन जनता को बहुत प्रभावित किया और बहुसंख्यक कृषकों तथा मजदूरों में फ़ासिस्टवाद की जड़ें, बड़ी गहराई तक फैल गईं। सिंडिकैलिस्ट पार्टी तब तक कम्युनिस्ट पार्टी के रूप में उभर चुकी थी, उसे भी मुसोलिनी के क्रूर दमन का शिकार होना पड़ा।

कम्युनिस्टों से निपटने के दौरान अनेक भिन्न-भिन्न मनोवृत्तियों के तत्त्व इस आंदोलन में सम्मिलित हुए, जिसके कारण फ़ासिस्टों का कोई संतुलित राजनीतिक दर्शन नहीं बन पाया। कुछ व्यक्तियों की सनकों और प्रतिक्रियावादी दुराग्रहों से ग्रस्त इस आंदोलन को इटली की तत्कालीन अनिश्चय और अराजकता की परिस्थितियों से बहुत पोषण मिला। अंततोगत्वा 20 अक्टूबर 1922 को काली कमीज़ें पहने हुए फ़ासिस्टों ने रोम को घेर लिया तो सम्राट् विक्टर इमैनुएल को विवश होकर मुसोलिनी को मंत्रिमंडल बनाने की स्वीकृत देनी पड़ी। फ़ासिस्टों ने इटली के संविधान में अनेक परिवर्तन किए। ये परिवर्तन, पार्टी और राष्ट्र दोनों को मुसोलिनी के अधिनायकवाद में जकड़ते चले गए। फ़ासिस्टों का यह निरंकुशतंत्र द्वितीय विश्वयुद्ध तक चला। इस बार मुसोलिनी के नेतृत्व में इटली ने "धुरी राष्ट्रों" का साथ दिया। जुलाई, 1943 में "मित्रराष्ट्रों" ने इटली पर आक्रमण कर दिया। फ़ासिस्टों का भाग्यचक्र बड़ी तेजी से उलटकर घूम गया। पार्टी की सर्वोच्च समिति के आक्रोशपूर्ण आग्रह पर मुसोलिनी को त्यागपत्र देना पड़ा और फ़ासिस्ट सरकार का पतन हो गया।

प्रथम विश्वयुद्ध के बाद अपने आरंभिक दिनों में फ़ासिस्टवादी आंदोलन का ध्येय राष्ट्र की एकता और शक्ति में वृद्धि करना था। 1919 और 1922 के बीच इटली के कानून और व्यवस्था को चुनौती सिंडिकैलिस्ट, कम्युनिस्ट तथा अन्य वामपंथी पार्टियों द्वारा दी जा रही थी। उस समय फ़ासिस्टवाद एक प्रतिक्रियावादी और प्रतिक्रांतिवादी आंदोलन को समझा जाता था। स्पेन, जर्मनी आदि में भी इसी प्रकृति के आंदोलनों ने जन्म लिया और फ़ासिस्टवाद, साम्यवाद के प्रतिपक्ष (एंटीथीसिस) के अर्थ में लिया जाने लगा। 1935 के पश्चात् हिटलर-मुसोलिनी-संधि से इसके अर्थ में अतिक्रमण और साम्राज्यवाद भी जुड़ गए। युद्ध के दौरान मित्रराष्ट्रों ने फ़ासिज्म को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बदनाम कर दिया।

मुसोलिनी की प्रिय उक्ति थी : 'फ़ासिज्म निर्यात की वस्तु नहीं है'। फिर भी, अनेक देशों में, जहाँ समाजवाद और संसदीय लोकतंत्र के विरुद्ध कुछ तत्त्व सक्रिय थे, यह आदर्श के रूप में ग्रहण किया गया। इंग्लैंड में "ब्रिटिश यूनियन आव फ़ासिस्ट्स" और फ्रांस में "एक्शन फ्रांकाइसे" द्वारा इसकी नीतियों का अनुकरण किया गया। जर्मनी (नात्सी), स्पेन (फैलंगैलिज़्म) और दक्षिण अमरीका में इसके सफल प्रयोग हुए। हिटलर तो फ़ासिज्म का कर्ता ही था। नात्सीवाद के अभ्युदय के पूर्व स्पेन के रिवेरा और आस्ट्रिया के डालफ़स को मुसोलिनी का पूरा सहयोग प्राप्त था। सितंबर, 1937 में "बर्लिन-रोम धुरी" बनने के बाद जर्मनी ने फ़ासिस्टवादी आंदोलन की गति को बहुत तेज किया। लेकिन 1940 के बाद अफ्रीका, रूस और बाल्कन राज्यों में इटली की लगातार सैनिक पराजय ने फ़ासिस्टवादी राजनीति को खोखला सिद्ध कर दिया। जुलाई, 1943 का सिसली पर ऐंग्लो-अमरीकी-आक्रमण फ़ासिस्टवाद पर अंतिम और अंतकारी प्रहार था।

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