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फूलदेई
अनुयायी उत्तराखंड
तिथि 14 - 15 मार्च

फूलदेई (अंग्रेज़ी: Phuldei) [1] [2][3]त्योहार मुख्यतः छोटे छोटे बच्चो द्वारा मनाया जाता है। यह उत्तराखंड का प्रसिद्ध लोक पर्व है।[4] फूलदेई त्योहार बच्चों द्वारा मनाए जाने के कारण इसे लोक बाल पर्व भी कहते हैं।[5][6] प्रसिद्ध त्योहार फूलदेई  चैैत्र मास के प्रथम तिथि को मनाया जाता है। अर्थात प्रत्येक वर्ष मार्च 14 या 15 तारीख को यह त्योहार मनाया जाता है। फूल सग्यान ,फूल संग्रात या मीन संक्रांति उत्तराखंड के दोनों मंडलों में मनाई जाती है। कुमाऊं गढ़वाल में इसे फूलदेई और जौनसार में गोगा कहा जाता है। उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में सौर कैलेंडर का उपयोग किया जाता है। इसलिए इन  क्षेत्रों में  हिन्दू नव वर्ष का प्रथम दिन मीन संक्रांति अर्थात फूल देइ से शुरू होता है। चैत्र मास में बसंत ऋतु का आगमन हुआ रहता है। प्रकृति अपने सबसे बेहतरीन रूप में विचरण कर रही होती है। प्रकृति में विभिन्न प्रकार के फूल खिले रहते हैं । नववर्ष के स्वागत की परम्परा विश्व के सभी सभ्य समाजों में पाई जाती है। चाहे अंग्रेजी समाज का न्यू ईयर डे हो ,या पडोसी तिब्बत का लोसर उत्सव हो। या पारसियों का नैरोज हो या सनातन समाज की चैत्र प्रतिपदा। फूलदेइ पर्व के रूप में  देवतुल्य बच्चों द्वारा प्रकृति के सुन्दर फूलों से नववर्ष का स्वागत किया जाता है.

फूलदेई मनाने की विधि -

उत्तराखंड के मानसखंड कुमाऊं क्षेत्र में उत्तराखंड के प्रसिद्ध लोकपर्व एवं बाल पर्व फूलदेई पर छोटे छोटे बच्चे पहले दिन अच्छे ताज़े फूल वन से तोड़ के लाते हैं। जिनमे विशेष प्योंली  के फूल  और बुरॉश के फूल का प्रयोग करते हैं। इस दिन गृहणियां सुबह सुबह उठ कर साफ सफाई कर चौखट को ताजे गोबर मिट्टी से लीप कर शुद्ध कर देती है। फूलदेई के दिन सुबह सुबह छोटे छोटे बच्चे अपने वर्तनों में फूल एवं चावल रख कर घर घर जाते हैं । और सब के दरवाजे पर फूल चढ़ा कर फूलदेई के गीत , 'फूलदेई छम्मा देई  दैणी द्वार भर भकार !! " गाते हैं। और लोग उन्हें बदले में चावल गुड़ और पैसे देते हैं। छोटे छोटे देवतुल्य बच्चे सभी की देहरी में फूल डाल कर शुभता और समृधि की मंगलकामना करते हैं। इस पर गृहणियां उनकी थाली में ,गुड़ और पैसे रखती हैं। बच्चों को फूलदेई में जो आशीष और प्यार स्वरूप में जो भेंट मिलती है ,उससे अलग अलग स्थानों में अलग अलग पकवान बनाये जाते हैं। फूलदेई से प्राप्त चावलों को भिगा दिया जाता है। और प्राप्त गुड़ को मिलाकर ,और पैसों से घी / तेल खरीदकर ,बच्चों  के लिए हलवा ,छोई , शाइ , नामक स्थानीय पकवान बनाये जाते हैं। कुमाऊं के भोटान्तिक क्षेत्रों में चावल की पिठ्ठी और गुड़ से साया नामक विशेष पकवान बनाया जाता है।

उत्तराखंड के केदारखंड अर्थात गढ़वाल मंडल में यह त्यौहार पुरे महीने चलता है। यहाँ बच्चे फाल्गुन के अंतिम दिन अपनी फूल कंडियों में युली ,बुरांस ,सरसों ,लया ,आड़ू ,पैयां ,सेमल ,खुबानी और भिन्न -भिन्न प्रकार के फूलों को लाकर उनमे पानी के छींटे डालकर खुले स्थान पर रख देते हैं। अगले दिन सुबह उठकर प्योली के पीताम्भ फूलों के लिए अपनी कंडियां लेकर निकल पड़ते हैं। और मार्ग में आते जाते वे ये गीत गाते हैं।  ''फुलारी घौर। झै माता का भौंर। क्यौलिदिदी फुलकंडी गौर । " प्योंली और बुरांश के फूल अपने फूलों में मिलकर सभी बच्चे ,आस पास के दरवाजों ,देहरियों को सजा देते है। और सुख समृद्धि की मंगल कामनाएं करते हैं। फूल लाने और दरवाजों पर सजाने का यह कार्यक्रम पुरे चैत्र मास में चलता रहता है।

अंतिम दिन बच्चे घोघा माता की डोली की पूजा करके विदाई करके यह त्योहार सम्पन्न करते हैं। वहाँ फूलदेई खेलने वाले बच्चों को फुलारी कहा जाता है। गढ़वाल क्षेत्र में बच्चो को जो गुड़ चावल मिलते हैं,उनका अंतिम दिन भोग बना कर घोघा माता को भोग लगाया जाता है। घोघा माता  को फूलों की देवी माना जाता है। घोघा माता की पूजा केवल बच्चे ही कर सकते हैं। फुलारी त्योहार के अंतिम दिन बच्चे घोघा माता का डोला सजाकर, उनको भोग लगाकर उनकी पूजा करते हैं।

फूलदेई की कहानी –

फूलदेई के अवसर पर एक विशेष पीले फूल का प्रयोग किया जाता है। जिसे प्योली का फूल कहते हैं। यह फूल पहाड़ों में बसंत के मौसम में खिलता है। इस पर एक लोककथा प्रचलित है। कहते पहले हिमालय के पहाड़ों में एक राजकुमारी रहती थी। जिसका नाम प्योली था। उसको एक दूसरे देश के राजकुमार से प्रेम हो गया था। वह राजकुमार उसे शादी करके अपने देश ले गया। उसके जाते ही पहाड़ के पेड़ पौधे मुरझाने लगे। पंछी उदास रहने लगे। क्योंकि वो पहाड़ में सबकी लाडली राजकुमारी थी।उधर प्योंली की सास भी उसे अपने मायके वालों से मिलने नहीं आने देती थी। जिस कारण प्योंली उदास रहने लगी। उदास रहते रहते वो बीमार हो गई।और एक दिन प्योली बीमारी में ही मर गई। प्योली को उससे ससुरालियों ने पास में ही जंगल में दफना दिया।

कुछ समय बाद जिस स्थान पर प्योली को दफनाया था वहां एक पीला फूल उग गया ,जिसका नाम प्योली के नाम पर रख दिया गया। और उस दिन से प्याेली की याद में फूलदेई त्यौहार मनाया जाने लगा।

सन्दर्भ संपादित करें

  1. "Uttarakhand Phool Dei2023: कल मनाया जाएगा फूलदेई का पर्व, जानिए इसकी खासियत और कहानी". Navbharat Times. अभिगमन तिथि 2023-03-20.
  2. Candana cauka: Uttara Pradeśa ke lokagītoṃ kā saṅkalana. Uttara Pradeśa Saṅgīta Nāṭaka Akādamī. 1989.
  3. "Phool Dei: Uttarakhand's festival of flowers to teach kids environmental conservation". www.downtoearth.org.in (अंग्रेज़ी में). अभिगमन तिथि 2023-03-20.
  4. "फूलदेई का पर्व मनाया जाएगा कल, जानिए इसकी खासियत और पूजा का शुभ मुहूर्त". NDTVIndia. अभिगमन तिथि 2023-03-20.
  5. "Phooldei 2023: सीएम धामी ने बच्चों संग मनाया लोकपर्व फूलदेई, कहा- बाल पर्व के रूप में मनाया जाएगा अब हर साल". Amar Ujala. अभिगमन तिथि 2023-03-20.
  6. "Phooldei festival celebrated at Uttarakhand Vidhan Sabha". ANI News (अंग्रेज़ी में). अभिगमन तिथि 2023-03-20.