फूलडोल मेला कोरी जाति के लोगों द्वारा होली के आठवे दिन आयोजित करने की परंपरा है । यह मेला शोभायात्रा के रूप में गांव-नगर में भ्रमण करता है तथा भारतीय संस्कृति व सभ्यता का गौरव गान करता है । माना जाता है कि अब से 120 वर्ष पूर्व सन् १९०० में इसकी शुरुआत हिंदू जुलाहे यानी हिंदू धर्म की कोरी जाति के लोगों द्वारा चैत्र कृष्ण अष्टमी के दिन की गई थी ; तब यह शोभा यात्रा पैदल, डोली में तथा बैल गाड़ियों में चलती थी हिंदू धर्म के देवी देवताओं तथा अन्य महापुरुषों के रूप में बच्चों को सजाया जाता था और उन्हें बैल गाड़ियों व डोली में बिठाकर नगर भ्रमण कराया जाता था । लोगों का ध्यान आकर्षण करने के लिए नगाड़े तथा ढोल-ताशों का प्रयोग किया जाता था । शोभायात्रा में कुछ लोग ढोलक-बाजा गले में लटका कर गाते हुए चलते और कुछ लोग उन पर थिरकते हुए चलते हैं[1]

फूलडोल कि इस शोभा यात्रा को होली से आठवें दिन यानी चैत्र कृष्ण अष्टमी को मनाए जाने की परंपरा है । दरअसल होली का त्यौहार बीत जाने के बाद गांवों में फसलों का कटान और शहरों में उद्योग व्यापार की पुनः शुरुआत पूरे उत्साह के साथ हो जाती है । मौसम में परिवर्तन आता है तथा नवसंवत्सर यानी हिंदू नव वर्ष प्रारंभ होता है । फूल डोल मेले का आयोजन भी इन्हीं सब वजहों से होता है । त्यौहार बीत जाने के बाद मेले में लोग एक दूसरे को नवोत्साह के साथ पुनः शुरुआत की मंगलकामनाएं देते हैं - त्यौहार हो चुका है अब सभी अपने अपने कर्तव्य में फिर से जुट जाएं ।

इस मेले की एक और अत्यंत महत्वपूर्ण और खास प्रथा है- इसे चौपाई गायन कहते हैं । मेला आयोजन के दिन कोरी समाज के लोगों के कुछ समूह ढोल-ताशे साथ लेकर अलग-अलग स्थानों पर जाते हैं और जिन घरों में बीते वर्ष कोई मृत्यु हुई थी उन घरों में सांत्वना, मंगलकामना और प्रार्थनाओं की चौपाइयां (एक प्रकार का काव्य) गाते हैं; ताकि वे अपने दुखों को भूलकर फिर से अपने कार्यों एवं सामान्य जीवन यापन को शुरू करें । कहते हैं कि फूल डोल मेले की इस प्रथा चौपाई गायन के बाद ही शोकाकुल परिवारों में त्योहार की खुशियां मनाना शुरू होता था ।       फूल डोल की ऐतिहासिक व प्राचीन परंपराओं से युक्त इस शोभायात्रा में पुराने समय से ही फूलों के प्रयोग का विशेष महत्व रहा है । बताया जाता है कि प्राचीन काल में केमिकल युक्त रंगों का प्रयोग होली खेलने में नहीं होता था । तब टेसू के फूलों से होली खेली जाती थी । बड़े बड़े बर्तन टेसू के फूलों से भर कर डोलियों में रख लिए जाते थे और शोभायात्रा मे सभी एक दूसरे के ऊपर टेसू के फूल डालते थे । यही कारण था कि इस आयोजन को फूलडोल के मेले के रूप में जाना गया । भले ही वर्तमान में अनेक प्रकार के रंग गुलाल आ चुके हैं मगर इस शोभायात्रा में किसी न किसी रूप में फूलों का प्रयोग जरूर होता है ।

दोपहर से लेकर शाम तक शोभायात्रा में शामिल होने के बाद सभी लोग एक स्थान पर एकत्रित होते हैं तथा रात्रि काल मे यहां ब्रज की प्राचीन परंपरा रसिया दंगल का आयोजन होता है । रसिया गायन उत्तर भारत की एक प्राचीन परंपरा है जिसमें दो दल एक दूसरे के जवाब में गाते हैं । दोनों दल एक दूसरे के ऊपर अप्रत्यक्ष रूप से टीका-टिप्पणी करते हैं और भोर की बेला में जाकर इस प्रतियोगितानुमा गायन शैली का समापन होता है । आयोजन समिति दोनों दलों में से एक को विजेता तथा एक को उपविजेता घोषित करती है और दोनों को पुरस्कार देकर विदा किया जाता है ।

समय के साथ परिवर्तन होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जिससे यह ऐतिहासिक मेला भी अछूता नहीं है । फूल डोल के मेले ने अब आधुनिक रूप धारण कर लिया है । शोभायात्रा तो अब भी उसी धूमधाम से निकलती है, मगर डोल और बैल गाड़ियों की जगह अब मोटर वाहन युक्त रथ-बग्गी तथा ढोल ताशों की जगह पर बैंड आ चुके हैं । अब यह शोभायात्रा रंग-बिरंगी रोशनी के बीच में डीजे साउंड के साथ लोगों का ध्यान आकर्षित करती है । शानो-शौकत के साथ ६० से ७० झाकिया होती हैं और अलग-अलग स्थानों पर मेले का स्वागत होता है । शोभा यात्रा पूरी होने पर सभी झांकियों को मिठाई व मोमेंटो देकर सम्मानित किया जाता है । इसके बाद रात के समय ब्रज के प्राचीन रसिया दंगल का आयोजन होता है ।

फूल डोल के आयोजन में पिछले १० से १२ वर्ष पूर्व एक नई प्रथा जोड़ दी गई है- मेधावी छात्र-छात्राओं का सम्मान । गत वर्ष जिन विद्यार्थियों ने १०वीं तथा १२वीं की परीक्षा में ६०% अथवा उससे अधिक अंक प्राप्त किए हैं उन्हें स्मृति चिन्ह व प्रशस्ति पत्र देकर सम्मानित किया जाता है, ताकि छात्रों का आत्मविश्वास बढ़े और वह आगामी परीक्षा में और भी बेहतरीन अंक लेकर आएं । ऐतिहासिक फूल डोल मेले का आयोजन लोगों को खुशियां, स्वस्थ मनोरंजन, गौरवशाली इतिहास और महापुरुषों का स्मरण तथा भाईचारा कायम रखने के लिए किया जाता है । यह एक अवसर है जब समाज के लोग एक दूसरे से एक ही स्थान पर मिल जाते हैं और एक दूसरे के सुख दुख को समझ पाते हैं । इस मेले को आपसी सामंजस्य, सांप्रदायिक एकता और भाईचारे का प्रतीक माना गया है ।


सन्दर्भ संपादित करें

  1. "भीलवाड़ा में वाणीजी की थाल के साथ शुरू होता है शाहपुरा का फूलडोल मेला | Fooldol fair history in bhilwara". Patrika News. अभिगमन तिथि 2022-05-05.