बगदाद का युद्ध (१२५८)

(बगदाद का घेरा से अनुप्रेषित)

हलाकु ख़ान के नायकत्व में मंगोल सेनाओं ने २९ जनवरी से १० फरवरी तक अब्बासी ख़िलाफ़त की राजधानी बगदाद को घेरे रखा और अन्ततः इस पर अधिकार करके खलीफा की हत्या कर दी।


मंगोल फ़ौज ने पिछले 13 दिन से बग़दाद को घेरे में ले रखा था. जब प्रतिरोध की तमाम उम्मीदें दम तोड़ गईं तो 10 फ़रवरी सन 1258 को समर्पण के दरवाज़े खुल गए.

37वें अब्बासी ख़लीफ़ा मुस्तआसिम बिल्लाह अपने मंत्रियों और अधिकारियों के साथ मुख्य दरवाज़े पर आए और हलाकू ख़ान के सामने हथियार डाल दिए.

हलाकू ने वही किया जो उसके दादा चंगेज़ ख़ान पिछली आधी सदी से करते चले आए थे. उसने ख़लीफ़ा के अलावा तमाम आला ओहदेदारों को मौत के घाट उतार दिया और मंगोल सेना बग़दाद में दाख़िल हो गई.

इसके अगले चंद दिन तक जो हुआ उसका कुछ अंदाज़ा इतिहासकार अब्दुल्ला वस्साफ़ शिराज़ी के शब्दों से लगाया जा सकता है.

वह लिखते हैं, "वो शहर में भूखे गधों की तरह घुस गए और जिस तरह भूखे भेड़िये भेड़ों पर हमला करती हैं वैसा करने लगे. बिस्तर और तकिए चाकूओं से फाड़ दिए गए. महल की औरतें गलियों में घसीटी गईं और उनमें से हर एक तातरियों का खिलौना बनकर रह गईं."

दजला नदी के दोनों किनारों पर आबाद बग़दाद, अलीफ़ लैला का शहर, ख़लीफ़ा हारून अलरशीद का शहर था. इस बात का सही अंदाजा लगाना मुश्किल है कि कितने लोग इस क़त्लेआम का शिकार हुए. इतिहासकारों का अंदाज़ा है कि दो लाख से लेकर 10 लाख लोग तलवार, तीर या भाले से मार डाले गए थे.

इतिहास की किताबों में लिखा है कि बग़दाद की गलियां लाशों से अटी पड़ी थीं. चंद दिनों के अंदर-अंदर उनसे उठने वाली सड़ांध की वजह से हलाकू ख़ान को शहर से बाहर तम्बू लगाने पर मजबूर होना पड़ा.

इसी दौरान जब विशाल महल को आग लगाई गई तो इसमें इस्तेमाल होने वाली आबनूस और चंदन की क़ीमती लकड़ी की ख़ुशबू आसपास के इलाके के वातावरण में फैली बदबू में मिल गई. कुछ ऐसी ही दजला नदी में भी देखने को मिला. कहा जाता है कि उस नदी का मटियाला पानी कुछ दिनों तक लाल रंग में बहता रहा और फिर नीला पड़ गया.

लाल रंग की वजह वो ख़ून था जो गलियों से बह-बहकर नदी में मिलता रहा और सियाही इस वजह से कि शहर के सैंकड़ों पुस्तकालयों में महफ़ूज़ दुर्लभ नुस्खे नदी में फेंक दिए गए थे और उनकी सियाही ने घुल-घुलकर नदी के लाल रंग को हल्का कर दिया था.

फ़ारसी के बड़े शायर शेख़ सादी काफ़ी वक़्त बग़दाद में रहे थे और उन्होंने यहां के मदरसे निज़ामिया में शिक्षा हासिल की थी. इसलिए उन्होंने बग़दाद के पतन पर यादगार नज़्म लिखी जिस का एक-एक शेर दिल को दहला देता है.

हलाकू ख़ान ने 29 जनवरी सन 1257 को बग़दाद की घेराबंदी की शुरुआत की थी. हमले से पहले हलाक़ू ने ख़लीफ़ा को लिखा था, "लोहे के सूए को मुक्का मारने की कोशिश न करो. सूरज को बुझी हुई मोमबत्ती समझने की ग़लती न करो. बग़दाद की दीवारें फ़ौरन गिरा दो. उसकी खाइयां पाट दो, हुकूमत छोड़ दो और हमारे पास आ जाओ. अगर हमने बग़दाद पर चढ़ाई की तो तुम्हें न गहरे पाताल में पनाह मिलेगी और न ऊंचे आसमान में."

37वें अब्बासी ख़लीफ़ा मुसतआसिम बिल्लाह की वो शानो शौकत तो नहीं थी जो उनके पूर्वजों के हिस्से आई थी. लेकिन फिर भी मुस्लिम दुनिया के अधिकतर हिस्से पर उनका सिक्का चलता था और ख़लीफ़ा की यह ताक़त थी कि उन पर हमले की ख़बर सुनकर मराकश से लेकर ईरान तक के सभी मुसलमान उनके समर्थन में खड़े हो जाते थे.

इसलिए ख़लीफ़ा ने हलाकू को जवाब में लिखा, "नौजवान, दस दिन की ख़ुशकिस्मती से तुम ख़ुद को ब्रह्मांड का मालिक समझने लगे हो. मेरे पास पूरब से पश्चिम तक ख़ुदा को मानने वाली जनता है. सलामती से लौट जाओ."

हलाकू ख़ान को अपने मंगोल सिपाहियों की क्षमता पर पूरा भरोसा था वो पिछले चार सालों के दौरान अपने देश मंगोलिया से निकलकर चार हज़ार मील दूर तक आ पहुंचे थे और इस दौरान दुनिया के बड़े हिस्से को अपना बना चुके थे.


बग़दाद पर हमले की तैयारियों के दौरान न सिर्फ़ हलाकू ख़ान के भाई मंगू ख़ान ने नए सैनिक दस्ते भिजवाए थे बल्कि अरमेनिया और जॉर्जिया से ख़ासी संख्या में इसाई फ़ौजें भी उनके साथ आ मिली थीं जो मुसलमानों से सलीबी जंगों में पूरब की हार का बदला लेने के लिए बेताब थीं.

यही नहीं मंगोल फ़ौज तकनीकी लिहाज़ से भी कहीं ज़्यादा बड़ी और आधुनिक थी. मंगोल फ़ौज में चीनी इंजीनियरों की इकाई थी जो बारूद के इस्तेमाल में महारत रखती थी.

बग़दाद के लोग उन तीरों के बारे में जानते थे जिन पर आग लगाकर फेंका जाता था लेकिन बारूद से उनका कभी वास्ता नहीं पड़ा था.

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