बर्कलैंड तथा आइड प्रक्रिया

बर्कलैंड तथा आइड प्रक्रिया (Birkland and Eyde process), नाइट्रिक अम्ल के औद्योगिक उत्पादन की एक विधि है जो अब प्रयोग में नहीं ली जाती है क्योंकि अब इससे कम खर्चीली विधि (ओस्टवाल्ड विधि) का उपयोग किया जाने लगा है। नाइट्रोजन आधारित उर्वरकों के उत्पादन के आरम्भिक काल में बर्कलैंड तथा आइड प्रक्रिया दूसरी विधियों से प्रतिस्पर्धा करती थी, किन्तु अब नहीं। विद्युत् का अत्यधिक व्यय और अम्ल की न्यून प्राप्ति के कारण इस प्रक्रिया को अब काम में नहीं लाते।

रिएक्टर भवन-२ जिसमें बर्कलैंड तथा आइड प्रक्रिया पर आधारित 35 रिएक्टर लगे थे। प्रत्येक रिएक्तर 3 मेगावाट बिजली खाता था। (कुल विद्युत १०० मेगावाट से अधिक)। इसलिए यह फैक्ट्री एक जलविद्युत संयंत्र के पीछे लगाया गया था।

बर्कलैंड तथा आइड प्रक्रिया अनेक चरणों में पूरी होती है और यह विद्युत आर्क का उपयोग करके वायुमण्डलीय नाइट्रोजन एवं आक्सीजन की अभिक्रिया कराती है। अन्ततः नाइट्रिक अम्ल और जल उत्पन्न होता है। पूर्व काल में इसी नाइट्रिक अम्ल का उपयोग नाइट्रेट (NO3−) बनाने में किया जाता था।

HNO3 + H2O ⟶ H3O + + NO3

यह अभिक्रिया जल या किसी अन्य प्रोटॉन स्वीकर्ता की उपस्थिति में होती है।

यह प्रक्रिया नार्वे के उद्योगपति एवं वैज्ञानिक क्रिस्टिअन बर्कलैण्ड तथा उनके व्यापार के पार्टनर साम आइड (Sam Eyde) द्वारा सन १९०३ में विकसित की गयी थी। यह प्रक्रिया हेनरी कैवेन्डिश द्वारा १७८४ में विकसित एक विधि पर आधारित थी। इस विधि पर आधारित एक फैक्ट्री नार्वे में स्थापित की गयी थी।

बर्कलैंड तथा आइड प्रक्रिया के लिए बहुत अधिक बिजली लगती है। वास्तव में इसके लिए इतनी बिजली लगती है कि इस प्रक्रिया पर बनी नार्वे की फैक्ट्रियाँ बिजलीघरों के पास ही स्थापित की गयीं थीं। इसकी इस कमी के कारण ही १९१० और १९२० के दशक में इस प्रक्रिया के स्थान पर धीरे-धीरे हैबर प्रक्रम एवं ओस्टवाल्ड प्रक्रिया की मिलीजुली प्रक्रिया का उपयोग आरम्भ कर दिया गया। हैबर प्रक्रम द्वारा आणविक नाइट्रोजन एवं हाइड्रोजन का उपयोग करके अमोनिया (NH3) बनायी जाती है। इसके बाद जो अमोनिया बनती है उसे ओस्टवाल्ड प्रक्रिया द्वारा नाइट्रिक अम्ल (HNO3) में बदल दिया जाता है।