साँचा:इब्नबतूता की भारत यात्रा के वृतांत में उल्लेख है दार-उल-अमन की नायाब जानकारी

हम खुशनसीब है कि हमारे भारतवर्ष में ऐसे भी बादशाह गुजरे है जिन्हें फॉलो करके वर्तमान राजनीति में बहुत कुछ सीखा जा सकता है। इनमें सबसे ऊपर दिल्ली सल्तनत के गुलाम वंश के सुल्तान बलबन का नाम है । पहली बार बलबन को गुलाम बनाकर भारत लाया गया जब शमसुद्दीन अल्तमश भारत के शहंशाह थे। बलबन को सुल्तान अल्तमश ने भिश्ती के दल में शामिल कर लिया। भिश्ती बनकर बलबन ने महल के फर्शों को धोया। बाग-बगीचों में पानी डाला। पूरी ईमानदारी से नोकरी की। तरक्की हुई अब बलबन घुड़साल में घोड़ों की देखरेख करता। घोड़ों की लीद उठाता, घोड़ों की मालिश करता।कभी-कभार घोड़ों की पीठ पर बैठकर उन्हें साधने लगता। बलबन की।मेहनत से सुल्तान प्रभावित हुए।उन्होंने बलबन को अस्तबल का मुखिया बना दिया। वफ़ादारी से सारी दिल्ली के महरौली में कुतुबमीनार के पीछे बलबन का मकबरा है । इसे बलबन ने अपने जीवनकाल में बनवाया था । इसे वो दारुल अमन यानी इंसाफ का दरवाजा कहता था। इब्नबतूता ने अपनी दिल्ली यात्रा के दौरान बलबन के मकबरे के दर्शन किये थे । 1343 के आसपास जब इब्नबतूता बलबन के मक़बरे पर आया यहां के रूहानी माहौल को देखकर बहुत रोमांचित हुआ । इब्नबतूता की भारत यात्रा या चौदहवी सदी का भारत' नामक पुस्तक में पेज नम्बर 45/46 में इस जगह की बहुत तारीफ लिखी है इब्नबतूता लिखता है बलबन की मृत्यु रात के समय हुई उसकी वसीयत के अनुसार उसे इसी दारुल अमन में दफ़नाया गया। यह सुल्तान न्यायप्रिय, सदाचारी और विद्वान था । उसने एक घर बनवाया जिसका नाम 'दार-उल-अमन' रखा । इसका अर्थ इंसाफ का दरवाजा होता है । बलबन इस घर में दाखिल होकर फरियाद करने वाले किसी भी व्यक्ति को कभी खाली हाथ और मायूस नही जाने देता था। किसी भी कर्जदार के इस घर में दाखिल होने पर सुल्तान स्वयं उसका समस्त ऋण चुका देता था और अपराध या वध करने के बाद यदि कोई व्यक्ति फरियाद लेकर इस घर में आ घुसता था तो वध किये जाने वाले व्यक्ति के और अन्याय -पीड़ितों के वारिसों को मुआवज़ा देकर संतुष्ट ककर दिया जाता था। बलबन को इस जगह से बहुत प्रेम था। मरने के बाद भी वो यही दफ्न हुआ । लगता है आज भी बलबन उन फरियादी की फरियाद सुनने के लिए कब्र में लेटा आतूर होगा कि कब और कौन उसके दारुल अमन में दाखिल होकर सुल्तान की कब्र को सज्दा और पैबोस करेगा जैसा सुल्तान के जीवित होने पर दरबारी और आम जनता बलबन को करती थी।

फतुहात फीरोज़शाही ग्रँथ में इस जगह का नाम दारूल अमान लिखा है और इसके भीतर सम्राटों की समाधियां बताई गई है । 

फिरोजशाह ने इसकी मरम्मत करवाकर दरवाजे पर चंदन के किवाड़ लगवाए थे । सर सैयद के आसारूस्सनादीद में इस जगह की स्थिति मैटकॉफ साहब की कोठी के पास मौलाना जमाली की मस्जिद के नजदीक खण्डहरों में बताई गई है। अंग्रेजों के दौर में यहाँ की टूटी इमारत का कुछ पत्थर नवाब लखनऊ उठाकर ले गए और कुछ शाहजहानाबाद के अमीर के घरों की शोभा बढ़ा रहा है । फिलहाल यहां केवल टूटा खंडहर और चुने का ढ़ेर है। (इब्नबतूता की भारत यात्रा पुस्तक के पेज नम्बर 45 पर ये घटना दर्ज है) इसमें दाखिल होने वाले का कर्जा चुका देता था बलबन

संदर्भ इब्नबतूता की भारत यात्रा  जो भी पीड़ित व्यक्ति इस दारुल अमन में इंसाफ की आशा लिए हाज़िर होता बलबन खासतौर पर उसका न्याय करता । इसमें प्रवेश करने वाले ऋणी लोगों का ऋण भी बलबन चुका देता और हत्या करने वाले हत्यारे को भी हत्या किए हुए व्यक्ति के वारिसों के माफ करने पर प्रतिशोध रकम भी अदा करके सुलहनामा कर देता। इस स्थान से उसे खास लगाव था उसके बेटे सुल्तान मोहम्मद की समाधि भी यही है। अपने बड़े बेटे से बेपनाह मोहब्बत करने वाले सुल्तान की रूह आज भी इस वीरान इलाके में भटक रही है तभी ये स्थान दिल्ली की सबसे ख़ौफ़नाक इमारतों में शुमार है जहां दिन के उजाले में भी कोई आने की हिम्मत नही करता शाम होते ही सन्नाटा पसर जाता है।

यह स्थान कुतुबमीनार के पिछले हिस्से में मौलाना जमाली-कमाली की रहस्यमयी मस्जिद के ठीक सामने कब्रस्तान में अपने पुराने वैभव की ऐतिहासिक यादों को संजोए वर्तमान की बदहाली पर आंसू बहा रहा है । एक जमाने में इसमें दाखिल होने वाले को किसी भी तरह खुश होकर भेजा जाता था वो कभी भी बलबन के जीते जी यहां से खाली हाथ नही गया आज उसी बलबन की समाधि अपनी बेबसी पर आंसू बहा रही है। इस लेख के लेखक जावेद शाह खजराना ने भी इस स्थान का दर्शन किया है। यह इमारत भारत में शुद्ध लाल पत्थरों से निर्मित तुर्की वास्तुकला शैली का पहला मकबरा माना जाता है। इसकी गुम्बद भारत की पहली गुम्बद निर्माण कला थी जो बाद में ध्वस्त हो गई फिरोजशाह खिलजी ने भी इस इमारत का जीर्णोद्धार करवाया। चंदन के दवाजों से सुसज्जित किया। अब फिलहाल यहां सिर्फ टूटा-फूटा दरवाजा और खुली हुई कब्रें है । दारुल अमन की चार दीवारे और आलीशान गुम्बद वक्त की भेंट चढ़ चुका है। अगर आपको दुनिया की उन ऐतिहासिक इमारतों को देखना है जो अपने वक़्त की सबसे आला मकाम रखती थी तब आप इस स्थान को देखना ना भूले। इस जगह की ख़ासियत का अंदाजा इस बात से लगा सकते है कि अंग्रेज अफसर ने दिल्ली में अपने रहने के लिए यही स्थान चुना। मैटकाफ़ साहब की प्रसिद्ध कोठी यही आबाद थी और दिल्ली बादशाह बहादुर शाह ज़फर ने भी यहाँ अपने लिए आरामगाह बनवाई। जावेद शाह खजराना