बाँस

पौधों की उपप्रजाति

बाँस, ग्रामिनीई (Gramineae) कुल की एक अत्यंत उपयोगी घास है, जो भारत के प्रत्येक क्षेत्र में पाई जाती है। बाँस एक सामूहिक शब्द है, जिसमें अनेक जातियाँ सम्मिलित हैं। मुख्य जातियाँ, बैंब्यूसा (Bambusa), डेंड्रोकेलैमस (नर बाँस) (Dendrocalamus) आदि हैं। बैंब्यूसा शब्द मराठी बैंबू का लैटिन नाम है। इसके लगभग २४ वंश भारत में पाए जाते हैं।

बाँस
Bamboo

वैज्ञानिक वर्गीकरण
जगत: पादप
विभाग: पुष्पी पादप
वर्ग: एक बीजपत्री
गण: Poales
कुल: पोएसी
उपजाति: Bambusoideae
सुपरट्राइब: Bambusodae
ट्राइब: बम्बूसा
जाति

९२ वंश एवं ५००० जातियाँ

बाँस एक सपुष्पक, आवृतबीजी, एक बीजपत्री पोएसी कुल का पादप है। इसके परिवार के अन्य महत्वपूर्ण सदस्य दूब, गेहूँ, मक्का, जौ और धान हैं। यह पृथ्वी पर सबसे तेज बढ़ने वाला काष्ठीय पौधा है। इसकी कुछ प्रजातियाँ एक दिन (२४ घंटे) में १२१ सेंटीमीटर (४७.६ इंच) तक बढ़ जाती हैं। थोड़े समय के लिए ही सही पर कभी-कभी तो इसके बढ़ने की रफ्तार १ मीटर (३९ मीटर) प्रति घंटा तक पहुँच जाती है। इसका तना, लम्बा, पर्वसन्धि युक्त, प्रायः खोखला एवं शाखान्वित होता है। तने को निचले गांठों से अपस्थानिक जड़े निकलती है। तने पर स्पष्ट पर्व एवं पर्वसन्धियाँ रहती हैं। पर्वसन्धियाँ ठोस एवं खोखली होती हैं। इस प्रकार के तने को सन्धि-स्तम्भ कहते हैं। इसकी जड़े अस्थानिक एवं रेशेदार होती है। इसकी पत्तियाँ सरल होती हैं, इनके शीर्ष भाग भाले के समान नुकीले होते हैं। पत्तियाँ वृन्त युक्त होती हैं तथा इनमें सामानान्तर विन्यास होता है। यह पौधा अपने जीवन में एक बार ही फल धारण करता है। फूल सफेद आता है। पश्चिमी एशिया एवं दक्षिण-पश्चिमी एशिया में बाँस एक महत्वपूर्ण पौधा है। इसका आर्थिक एवं सांस्कृतिक महत्व है। इससे घर तो बनाए ही जाते हैं, यह भोजन का भी स्रोत है। सौ ग्राम बाँस के बीज में ६०.३६ ग्राम कार्बोहाइड्रेट और २६५.६ किलो कैलोरी ऊर्जा रहती है। इतने अधिक कार्बोहाइड्रेट और इतनी अधिक ऊर्जा वाला कोई भी पदार्थ स्वास्थ्यवर्धक अवश्य होगा।[1] ७० से अधिक वंशो वाले बाँस की १००० से अधिक प्रजातियाँ है।

ठंडे पहाड़ी प्रदेशों से लेकर उष्ण कटिबंधों तक, संपूर्ण पूर्वी एशिया में, ५० उत्तरी अक्षांश से लेकर उत्तरी आस्ट्रेलिया तथा पश्चिम में, भारत तथा हिमालय में, अफ्रीका के उपसहारा क्षेत्रों तथा अमेरिका में दक्षिण-पूर्व अमेरिका से लेकर अर्जेन्टीना एवं चिली में (४७ दक्षिण अक्षांश) तक बाँस के वन पाए जाते हैं। बाँस की खेती कर कोई भी व्यक्ति लखपति बन सकता है। एक बार बाँस खेत में लगा दिया जायें तो ५ साल बाद वह उपज देने लगता है। अन्य फसलों पर सूखे एवं कीट बीमारियो का प्रकोप हो सकता है। जिसके कारण किसान को आर्थिक हानि उठानी पड़ती है। लेकिन बाँस एक ऐसी फसल है जिस पर सूखे एवं वर्षा का अधिक प्रभाव नहीं पड़ता है।[2] बाँस का पेड़ अन्य पेड़ों की अपेक्षा ३० प्रतिशत अधिक ऑक्सीजन छोड़ता और कार्बन डाईऑक्साइड खींचता है साथ ही यह पीपल के पेड़ की तरह दिन में कार्बन डाईऑक्साइड खींचता है और रात में आक्सीजन छोड़ता है।[3]

 
क्योतो जापान में बाँस के जंगल

बाँस पारिस्थितिकी के अनुकूल, जैव-क्षयी एवं प्राकृतिक निर्माण पदार्थ है जिसमें बेहतर क्षमता एवं निर्माण गुण है। अंग्रेजी का 'बम्बू' शब्द भारतीय शब्द 'मंबु' या 'बम्बु' से उत्पन्न हुआ है। बाँस बहुत तेजी से बढ सकते है। कुछ प्रजातियों में तो यह एक दिन में 1 मीटर तक बढ जाता है। बाँस उत्तरी एवं दक्षिणी अमेरिका, अफ्रीका, ऑस्टेंलिया एवं दक्षिणी एशिया में पाया जाता है। चीन में बाँस की सबसे अधिक प्रजातियाँ पाई जाती है। विभिन्न प्रकार के प्रक्षेत्रों एवं विभिन्न ऊँचाई वाले इलाकों 1⁄4 समुद्र स्तर से 3500 मीटर की ऊँचाई तक1⁄2 में बाँस का उत्पादन होता है। बाँस अन्य तीव्र गति से बढ़ने वाले पेड़ों की तुलना में वातावरण से कई गुना ज्यादा कार्बन संरक्षित करता है। बाँस के क्षेत्र मृदा के ऊपरी हिस्से के संरक्षण में सर्वाधिक कारगर हैं।

बाँस से जैव उत्पादन, इसकी प्रजाति, क्षेत्र, वातावरण एवं जलवायु पर निर्भर करता है। इससे जैव उत्पादन 50 से 100 टन प्रति हेक्टेयर हो सकता है। जिसमें 60-70 प्रतिशत कलम, 10-15 प्रतिशत टहनी एवं 15 से 20 प्रतिशत होते है। बाँस का एक हेक्टेयर रोपित क्षेत्र प्रति वर्ष वातावरण से 17 टन कार्बन अवशोषित कर सकता है।

बाँस के तीव्र गति से बढने के कारण, एक वर्ष में उचित फसल सुविधा के द्वारा 30 टन बाँस का उत्पादन प्रति हेक्टेयर किया जा सकता है। एक 18 मीटर लम्बे पेड़ को काटने पर उसका पुर्ननिर्माण होने में 30 से 60 वर्ष लग जाते है। इसकी तुलना में 18 मीटर के बाँस को 59 दिनों में वापस उगाया जा सकता है। बाँस पर साधारणतया 12 से 120 वर्षों में फूल लगते है, और बीजों की प्राप्ति होती है। फूलों एवं बीज हेतु लगने वाला समय बाँस की प्रजाति पर निर्भर करता है। इसका बीज साधारणतया घास के बीज के समान होता है जिसका उपयोग स्थानीय आबादी द्वारा खाद्य पदार्थों में भी किया जाता है।

एक अनुमान के अनुसार विश्व अर्थव्यवस्था में बाँस का योगदान 12 अरब अमेरिकी डॉॅलर से अधिक है जिसमें विकासशील देश अग्रणी है। बाँस के अभिनव उत्पादों की लगातार हो रही खोज के कारण इसकी आर्थिक क्षमता बहुत अधिक है। बाँस की प्राकृतिक सुदंरता के कारण इसकी माँग सौदर्य एवं डिजाइन की दुनिया में तेजी से बढ़ रही है। इसके अतिरिक्त ऐसी कई नवीनतम् प्रोद्योगिकियों का विकास हुआ है जिससे लकड़ी के उपयोग को बाँस के द्वारा प्रतिस्थापित किया जा सके।

भारत में बाँस के जंगलों का कुल क्षेत्रफल 11.4 मिलियन हेक्टेयर है जो कुल जंगलों के क्षेत्रफल का 13 प्रतिशत है। अभी तक बाँस के लगभग 2000 विभिन्न उपयोगों की जानकारी है जिसमें संरचनाओं का निर्माण घरेलु उपयोग की वस्तुएँ, साज-सज्जा के सामान, ईंधन एवं हवा हेतु बफर क्षेत्र बनाना इत्यादि शामिल है। भारत में बाँस का अनुमानित वार्षिक उत्पादन 1.35 करोड़ टन है। देश का उत्तरपूर्वी क्षेत्र बाँस के उत्पादन में काफी समृद्ध है एवं देश के 65 प्रतिशत एवं विश्व के 20 प्रतिशत बाँस का उत्पादन करता है। चीन के बाद भारत बाँस की अनुवांशिक संसाधनों में 136 प्रजातियों के साथ दूसरे स्थान पर है जिसमें से 58 प्रजातियाँ उत्तरी पूर्वी भारत में पाई जाती है।

बाँस के उचित प्रसंस्करण हेतु कुशल, मजबूत एवं उचित मूल्य के उपकरणों की आवश्यकता है। जिससे उत्पादकता में बढत, कठिन श्रम में कमी एवं बाँसों की बर्बादी में कमी की जा सके। इन विकास कार्यो ने, विभिन्न क्षेत्रों जैसे बागबानी, पशुधन, मत्स्य पालन में, बाँस के उपयोग की संभावनाएँ बढ़ाई है। इसका उपयोग फसल वास्तुकला, भंडारण संरचनाओं, आवास, मत्स्य पालन संरचनाएं, मछली जाल, मछली बीजों का परिवहन इत्यादि में किया जा सकता है। बाँस की बनी वस्तुओं का ग्रामीण स्तर पर उत्पादन रोज़गार एवं अच्छे आय का माध्यम बन सकती है। बाँस का उपयोग करके कृषि कार्यों में उपयोग आने वाले उपकरणों का निर्माण भी किया जा सकता है। इस प्रकार कृषि उपकरणों में बाँस एक हरित अभियांत्रिकीय पदार्थ के रूप में अपनाया जा सकता है।

वर्गीकरण

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भारत में पाए जानेवाले विभिन्न प्रकार के बाँसों का वर्गीकरण डॉ॰ ब्रैंडिस ने प्रकंद के अनुसार इस प्रकार किया है :

(क) कुछ में भूमिगत प्रकंद (rhizome) छोटा और मोटा होता है। शाखाएँ सामूहिक रूप से निकलती हैं। उपर्युक्त प्रकंदवाले बाँस निम्नलिखित हैं :

1. बैब्यूसा अरंडिनेसी (Bambusa arundinacea) - हिंदी में इसे वेदुर बाँस कहते हैं। यह मध्य तथा दक्षिण-पश्चिम भारत एवं बर्मा में बहुतायत से पाया जानेवाला काँटेदार बाँस है। 30 से 50 फुट तक ऊँची शाखाएँ 30 से 100 के समूह में पाई जाती हैं। बौद्ध लेखों तथा भारतीय औषधि ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है।
2. बैंब्यूसा स्पायनोसा - बंगाल, असम तथा बर्मा का काँटेदार बाँस है, जिसकी खेती उत्तरी-पश्चिमी भारत में की जाती है। हिंदी में इसे बिहार बाँस कहते हैं।
3. बैंब्यूसा टूल्ला - बंगाल का मुख्य बाँस है, जिसे हिंदी में पेका बाँस कहते हैं।
4. बैंब्यूसा वलगैरिस (Bambusa vulgaris) - पीली एवं हरी धारीवाला बाँस है, जो पूरे भारत में पाया जाता है।

teri maa ka bhus

5. डेंड्रोकैलैमस के अनेक वंश, जो शिवालिक पहाड़ियों तथा हिमालय के उत्तर-पश्चिमी भागों और पश्चिमी घाट पर बहुतायत से पाए जाते हैं।

(ख) कुछ बाँसों में प्रकंद भूमि के नीच ही फैलता है। यह लंबा और पतला होता है तथा इसमें एक एक करके शाखाएँ निकलती हैं। ऐसे प्रकंदवाले बाँस निम्नलिखित हैं :

(1) बैंब्यूसा नूटैंस (Babusa nutans) - यह बाँस 5,000 से 7,000 फुट की ऊँचाई पर, नेपाल, सिक्किम, असम तथा भूटान में होता है। इसकी लकड़ी बहुत उपयोगी होती है।
(2) मैलोकेना (Melocanna) - यह बाँस पूर्वी बंगाल एवं वर्मा में बहुतायत से पाया जाता है।

बाँस का सबसे उपयोगी भाग तना है। उष्ण कटिबंध में बाँस बड़े-बड़े समूहों में पाया जाता है। बाँस के तने से नई नई शाखाएँ निरंतर बाहर की ओर निकलकर इसके घेरे को बढ़ाती हैं, किंतु समशीतोष्ण एवं शीतकटिबंध में यह समूह अपेक्षाकृत छोटा होता है तथा तनों की लंबाई ही बढ़ती है। तनों की लंबाई 30 से 150 फुट तक एवं चौड़ाई 1/4 इंच से लेकर एक फुट तक होती है। तना में पर्व (internode), पर्वसंधि (node) से जुड़ा रहता है। किसी किसी में पूरा तना ठोस ही रहता है। नीचे के दो तिहाई भाग में कोई टहनी नहीं होती। नई शाखाओं के ऊपर पत्तियों की संरचना देखकर ही विभिन्न बाँसों की पहचान होती है। पहले तीन माह में शाखाएँ औसत रूप से तीन इंच प्रति दिन बढ़ती हैं, इसके बाद इनमें नीचे से ऊपर की ओर लगभग 10 से 50 इंच तक तना बनता है।

तने की मजबूती उसमें एकत्रित सिलिका तथा उसकी मोटाई पर निर्भर है। पानी में बहुत दिन तक बाँस खराब नहीं होते और कीड़ों के कारण नष्ट होने की संभावना रहती है।

बाँस के फूल एवं फल

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बाँस का जीवन 1 से 50 वर्ष तक होता है, जब तक कि फूल नहीं खिलते। फूल बहुत ही छोटे, रंगहीन, बिना डंठल के, छोटे छोटे गुच्छों में पाए जाते हैं। सबसे पहले एक फूल में तीन चार, छोटे, सूखे तुष (glume) पाए जाते हैं। इनके बाद नाव के आकार का अंतपुष्पकवच (palea) होता है। छह पुंकेसर (stamens) होते हैं। अंडाशय (ovary) के ऊपरी भाग पर बहुत छोटे छोटे बाल होते हैं। इसमें एक ही दाना बनता है। साधारणत: बाँस तभी फूलता है जब सूखे के कारण खेती मारी जाती है और दुर्भिक्ष पड़ता है। शुष्क एवं गरम हवा के कारण पत्तियों के स्थान पर कलियाँ खिलती हैं। फूल खिलने पर पत्तियाँ झड़ जाती हैं। बहुत से बाँस एक वर्ष में फूलते हैं। ऐसे कुछ बाँस नीलगिरि की पहाड़ियों पर मिलते हैं। भारत में अधिकांश बाँस सामुहिक तथा सामयिक रूप से फूलते हैं। इसके बाद ही बाँस का जीवन समाप्त हो जाता है। सूखे तने गिरकर रास्ता बंद कर देते हैं। अगले वर्ष वर्षा के बाद बीजों से नई कलमें फूट पड़ती हैं और जंगल फिर हरा हो जाता है। यदि फूल खिलने का समय ज्ञात हो, तो काट छाँटकर खिलना रोका जा सकता है। प्रत्येक बाँस में 4 से 20 सेर तक जौ या चावल के समान फल लगते हैं। जब भी ये लगते हैं, चावल की अपेक्षा सस्ते बिकते हैं। 1812ई. के उड़ीसा दुर्भिक्ष में ये गरीब जनता का आहार तथा जीवन रक्षक रहे।

बाँस की खेती

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विश्व में बांस के क्षेत्र

बाँस बीजों से धीरे धीरे उगता है। मिट्टी में आने के प्रथम सप्ताह में ही बीज उगना आरंभ कर देता है। कुछ बाँसों में वृक्ष पर दो छोटे छोटे अंकुर निकलते हैं। 10 से 12 वर्षों के बाद काम लायक बाँस तैयार होते हैं। भारत में दाब कलम के द्वारा इनकी उपज की जाती है। अधपके तनों का निचला भाग, तीन इंच लंबाई में, थोड़ा पर्वसंधि (node) के नीचे काटकर, वर्षा शु डिग्री होने के बाद लगा देते हैं। यदि इसमें प्रकंद का भी अंश हो तो अति उत्तम है। इसके निचले भाग से नई नई जड़ें निकलती हैं।

बाँस के कागज

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कागज बनाने के लिए बाँस उपयोगी साधन है, जिससे बहुत ही कम देखभाल के साथ-साथ बहुत अधिक मात्रा में कागज बनाया जा सकता है। इस क्रिया में बहुत सी कठिनाइयाँ झेलनी पड़ती हैं। फिर भी बाँस का कागज बनाना चीन एवं भारत का प्राचीन उद्योग है। चीन में बाँस के छोटे बड़े सभी भागों से कागज बनाया जाता है। इसके लिए पत्तियों को छाँटकर, तने को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर, पानी से भरे पोखरों में चूने के संग तीन चार माह सड़ाया जाता है, जिसके बाद उसे बड़ी बड़ी घूमती हुई ओखलियों में गूँधकर, साफ किया जाता है। इस लुग्दी को आवश्यकतानुसार रसायनक डालकर सफेद या रंगीन बना लेते हैं और फिर गरम तवों पर दबाते तथा सुखाते हैं।

विशेषत: बैंब्यूसा अरन्डिनेसी के पर्व में पाई जानेवाली, यह पथरीली वस्तु सफेद या हलके नीले रंग की होती है। इसे तबाशीर भी कहते हैं। यूनानी ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है। भारतवासी प्राचीन काल से दवा की तरह इसका उपयोग करते रहे हैं। यह ठंडा तथा बलवर्धक होता है। वायुदोष तथा दिल एवं फेफड़े की तरह तरह की बीमारियों में इसका प्रयोग होता है। बुखार में इससे प्यास दूर होती है। बाँस की नई शाखाओं में रस एकत्रित होने पर वंशलोचन बनता है और तब इससे सुगंध निकलती है।

वंशलोचन से एक चूर्ण भी बनता है, जो मंदाग्नि के लिए विशेष उपयोगी है। इसमें 8 भाग वंशलोचन, 10 भाग पीपर, 10 भाग रूमी मस्तगी तथा 12 भाग छोटी इलायची रहती है। चूर्ण को शहद के साथ मिलाकर खाने और दूध पीने से बहुत शीघ्र स्वास्थ्यलाभ होता है।

बाँस के अन्य उपयोग

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  •  
    बांस की सायकिल

छोटी छोटी टहनियों तथा पत्तियों को डालकर उबाला गया पानी, बच्चा होने के बाद पेट की सफाई के लिए जानवरों को दिया जाता है। जहाँ पर चिकित्सकीय उपकरण उपलब्ध नहीं होते, बाँस के तनों एवं पत्तियों को काट छाँटकर सफाई करके खपच्चियों का उपयोग किया जाता है। बाँस का खोखला तना अपंग लोगों का सहारा है। इसके खुले भाग में पैर टिका दिया जाता है। बाँस की खपच्चियों को तरह तरह की चटाइयाँ, कुर्सी, टेबुल, चारपाई एवं अन्य वस्तुएँ बिनन के काम में लाया जाता है। मछली पकड़ने का काँटा, डलिया आदि बाँस से ही बनाए जाते हैं। मकान बनाने तथा पुल बाँधने के लिए यह अत्यंत उपयोगी है। इससे तरह तरह की वस्तुएँ बनाई जाती हैं, जैसे चम्मच, चाकू, चावल पकाने का बरतन। नागा लोगों में पूजा के अवसर पर इसी का बरतन काम में लाया जाता है। इससे खेती के औजार, ऊन तथा सूत कातने की तकली बनाई जाती है। छोटी छोटी तख्तियाँ पानी में बहाकर, उनसे मछली पकड़ने का काम लिया जाता है। बाँस से तीर, धनुष, भाले आदि लड़ाई के सामान तैयार किए जाते थे। पुराने समय में बाँस की काँटेदार झाड़ियों से किलों की रक्षा की जाती थी। पैनगिस नामक एक तेज धारवाली छोटी वस्तु से दुश्मनों के प्राण लिए जा सकते हैं। इससे तरह तरह के बाजे, जैसे बाँसुरी, वॉयलिन, नागा लोगों का ज्यूर्स हार्प एवं मलाया का ऑकलांग बनाया जाता है। एशिया में इसकी लकड़ी बहुत उपयोगी मानी जाती है और छोटी छोटी घरेलू वस्तुओं से लेकर मकान बनाने तक के काम आती है। बाँस का प्ररोह (young shoot) खाया जाता और इसका अचार तथा मुरब्बा भी बनता है।

भारतीय वन (संशोधन) अध्‍यादेश, 2017

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भारत सरकार ने गैर वन क्षेत्रों में बांस की खेती को प्रोत्‍साहित करने के लिए भारतीय वन (संशोधन) अध्‍यादेश, 2017 की घोषणा की (नवम्बर २०१७) जिसके गैर वन क्षेत्रों में उगाए गए बांस की को वृक्ष की परिभाषा के दायरे में लाए जाने से छूट मिले और इस प्रकार इसके आर्थिक उपयोग के लिए काटने/पारगमन परमिट की आवश्‍यकता से छूट प्रदान की जा सके।

बांस, हालांकि घास की परिभाषा के तहत आता है पर इसे भारतीय वन अधिनियम, 1927 कानूनी रूप से एक वृक्ष के रूप में परिभाषित किया गया है। इस संशोधन के पहले, किसी वन एवं गैर वन भूमि पर उगाए गए बांस को कातने /पारगमन पर भारतीय वन अधिनियम, 1927 ( आईएफए, 1927) के प्रावधान लागू होते थे। किसानों द्वारा गैर वन भूमि पर बांस की खेती करने की राह में यह एक बड़ी बाधा थी।

इस संशोधन का एक बड़ा उद्वेश्‍य किसानों की आय बढ़ाने तथा देश के हरित क्षेत्र में बढोतरी करने के दोहरे लक्ष्‍य को हासिल करने के लिए गैर वन क्षेत्रों में बांस की खेती को प्रोत्‍साहित करना था। वन क्षेत्रों में उगाए गए बांस अभी भी भारतीय वन अधिनियम, 1927 के प्रावधानों द्वारा शासित होंगे।

ये कदम, विशेष रूप से, पूर्वोत्‍तर भारत एवं मध्‍य भारत के किसानों एवं जनजातीय लोगों के लिए कृषि आय को बढ़ाने में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। ये संशोधन किसानों एवं अन्‍य लोगों को कृषि भूमि एवं कृषि वन मिशन के तहत अन्‍य निजी भूमियों पर पौधरोपण के अतिरिक्‍त, अवक्रमित भूमि पर अनुकूल बांस प्रजाति के पौधरोपण/ ब्‍लॉक बगान आरंभ करने के लिए प्रोत्‍साहित करेगा। यह कदम संरक्षण एवं सतत विकास के अतिरिक्‍त, किसानों की आय को दोगुनी करने के लक्ष्‍य के अनुरूप है।

  1. "मिजोरम के लोगों का वियाग्रा" (एसएचटीएमएल). रविवार. मूल से 23 जुलाई 2008 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि २० फरवरी २००९. |access-date= में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद)
  2. "बाँस लगाओ लाखों कमाओ" (एएसपीएक्स). मेरी खबर. अभिगमन तिथि २० फरवरी २००९. |access-date= में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद)[मृत कड़ियाँ]
  3. "संस्थाएं लगा रहीं बाँस के पेड़". जागरण. मूल (एचजीएमएल) से 18 जनवरी 2012 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि २० फरवरी २००९. |access-date= में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद)

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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