बचित्तर नाटक या बिचित्तर नाटक (ਬਚਿੱਤਰ ਨਾਟਕ) गुरु गोबिन्द सिंह द्वारा रचित दशम ग्रन्थ का एक भाग है। वास्तव में इसमें कोई 'नाटक' का वर्णन नहीं है बल्कि गुरुजी ने इसमें उस समय की परिस्थितियों तथा इतिहास की एक झलक दी है और दिखाया है कि उस समय हिन्दू समाज पर पर मंडरा रहे संकटों से मुक्ति पाने के लिये कितने अधिक साहस और शक्ति की जरूरत थी।

गुरु गोविंद सिंह अपने पूर्वजन्म का वृत्तांत 'बचित्र नाटक' में इस प्रकार बतलाते हैं-

अब मैं अपनी कथा बखानो।
तप साधत जिह बिध मुह आनो॥
हेमकुंड परबत है जहां,
सपतसृंग सोभित है तहां ॥
सपतसृंग तिह नाम कहावा।
पांडराज जह जोग कमावा ॥
तह हम अधिक तपसया साधी।
महाकाल कालका अराधी ॥
इह बिध करत तपसिआ भयो।
द्वै ते एक रूप ह्वै गयो ॥

अर्थात अब मैं अपनी कथा बताता हूँ। जहाँ हेमकुंड पर्वत (अब हेमकुंड साहिब तीर्थ) है और सात शिखर शोभित हैं, सप्तश्रृंग (जिसका) नाम है और जहां पाण्डवराज ने योग साधना की थी, वहाँ पर मैंने घोर तप किया। महाकाल और काली की आराधना की। इस विधि से तपस्या करते हुए दो (द्वैत) से एक रूप हो गया, ब्रह्म का साक्षात्कार हुआ। आगे वह कहते है कि ईश्वरीय प्रेरणा से उन्होंने (यह) जन्म लिया।

अपने जीवन का उद्देश्य साधुओं का परित्राण, दुष्टों का विनाश और धर्म रक्षा बतलाते हुए वह कहते हैं-

हम इह काज जगत मो आए।
धरम हेतु गुरुदेव पठाए॥
जहां-जहां तुम धरम बिथारो।
दुसट दोखियनि पकरि पछारो॥
याही काज धरा हम जनमं।
समझ लेहु साधू सब मनमं॥
धरम चलावन संत उबारन।
दुसट सभन को मूल उपारन॥

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