यहां की जलवायु सूखी, पंरतु अधिकतर अरोग्यप्रद है। गर्मी में अधिक गर्मी और सर्दी में अधिक सर्दी पडना यहां की विशेषता है। इसी कारण मई, जून और जुलाई मास में यहां लू (गर्म हवा) बहुत जोरों से चलती है, जिससे रेत के टीले उड़-उड़कर एक स्थान से दूसरे स्थान पर बन जाते हैं। उन दिनों सूर्य की धूप इतनी असह्महय हो जाती है कि यहां के निवासी दोपहर को घर से बाहर निकलते हुए भी भय खाते हैं। कभी-कभी गर्मी के बहुत बढ़ने पर आक़ाल मृत्यु भी हो जाती है। बहुधा लोग घरों के नीचे भाग में तहखाने बनवा लेते हैं, जो ठंडे रहते है और गर्मी की विशेषता होने पर वे उनमें चले जाते हैं। कड़ी भूमि की अपेक्षा रेत शीघ्रता से ठंड़ा हो जाता है। इसलिए गर्मी के दिनों में भी रात के समय यहां ठंडक रहती है। शीतकाल में यहां इतनी सर्दी पड़ती है कि पेड़ और पौधे बहुधा पाले के कारण नष्ट हो जाते है।

बीकानेर में रेगिस्तान की अधिकता होने के कारण कुएँ का बहुत अधिक महत्व है। जहां कहीं कुआँ खोदने की सुविधा हुई अथवा पानी जमा होने का स्थान मिला, आरंभ में वहां पर बस्ती बस गई। यही कारण है कि बीकानेर के अधिकांश स्थानों में नामों के साथ सर जुड़ा हुआ है, जैसे कोडमदेसर, नौरंगदेसर, लूणकरणसर आदि। इससे आशय यही है कि इस स्थान पर कुएं अथवा तालाब हैं। कुएं के महत्व का एक कारण और भी है कि पहले जब भी इस देश पर आक्रमण होता था, तो आक्रमणकारी कुओं के स्थानों पर अपना अधिकार जमाने का सर्व प्रथम प्रयत्न करते थे। यहां के अधिकतर कुएं ३०० या उससे फुट गहरे हैं। इसका जल बहुधा मीठा एंव स्वास्थ्यकर होता है।

जैसलमेर को छोड़कर राजपूताना के अन्य राज्यों की अपेक्षा बीकानेर में सबसे कम वर्षा होती है। वर्षा के आभाव में नहरे कृषि सिंचाई का मुख्य श्रोत है। वर्तमान में कुल २३७१२ हेक्टेयर भूमि की सिंचाई नहरों द्वारा की जाती है।

अधिकांश हिस्सा अनुपजाऊँ एंव जलविहीन मरुभूमि का एक अंश है। जगह-जगह रेतीले टीलें हैं जो बहुत ऊँचे भी हैं। बीकानेर का दक्षिण-पश्चिम में मगरा नाम की पथरीली भूमि है जहां अच्छी वर्षा हो जाने पर किसी प्रकार पैदावार हो जाती है। उत्तर-पूर्व की भूमि का रंग कुछ पीलापन लिए हुए है तथा उपजाऊ है।

यहां अधिकांश भागों में खरीफ फसल होती है। ये मुख्यत: बाजरा, मोठ, ज्वार,तिल और रुई है। रबी की फसल अर्थात गेंहु, जौ, सरसो, चना आदि केवल पूर्वी भाग तक ही सीमित है। नहर से सींची जानेवाली भूमि में अब गेंहु, मक्का, रुई, गन्ना इत्यादि पैदा होने लगे है।

खरीफ की फसल यहां प्रमुख गिनी जाती है। बाजरा यहां की मुख्य पैदावार है। यहां के प्रमुख फल तरबूज एवं ककड़ी हैं। यहां तरबूज की अच्छी कि बहुतायत से होती है। अब नहरों के आ जाने के कारण नारंगी, नींबू, अनार, अमरुद, आदि फल भी पैदा होने लगे हैं। शाकों में मूली, गाजर, प्याज आदि सरलता से उत्पन्न किए जाते है।

बीकानेर में कोई सधन जंगल नहीं है और जल की कमी के कारण पेड़ भी यहां कम है। साधारण तथा यहां 'खेजड़ा (शमी)' के वृक्ष बहुतायत में हैं। उसकी फलियां, छाल तथा पत्ते चौपाये खाते हैं। नीम, शीशम और पीपल के पेड़ भी यहां मिलते हैं। रेत के टीलों पर बबूल के पेड़ पाए जाते हैं।

थोड़ी सी वर्षा हो जाने पर यहां अच्छी घास हो जाती है। इन घासों में प्रधानत: 'भूरट' नाम की चिपकने वाली घास बहुतायत में उत्पन्न होती है।

पशु-पक्षी

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यहां पहाड़ व जंगल न होने के कारण शेर, चीते आदि भयंकर जंतु तो नही पर जरख, नीलगाय आदि प्राय: मिल जाते है। घास अच्छी होती है, जिससे गाय, बैल, भैंस, घोड़े, ऊँट, भेड़, बकरी आदि चौपाया जानवर सब जगह अधिकता से पाले जाते हैं। ऊँट यहां बड़े काम का जानवर है तथा इसे सवारी, बोझा ढोने, जल लाने, हल चलाने आदि में उपयोग किया जाता है। पक्षियों में तीतर, बटेर, बटबड़, तिलोर, आदि पाए जाते हैं।