बडविग प्रोटोकोल

शरीर दस खरब (ट्रिलियन) कोशिकाओं (सेल्स) से बना होता है। शरीर में पुरानी जीर्ण कोशिकाएं नष्ट होती रहती हैं और नई कोशिकाएं बनती रहती हैं। इस तरह कोशिकाओं के जीर्णोद्धार का यह सिलसिला जीवन भर चलता रहता है। लेकिन डी.एन.ए. में खराबी आ जाने या किसी अन्य कारण से कोशिकाओं के बनने या विभाजित होने की प्रक्रिया असामान्य और अनियंत्रित हो जाती है। और ये असामान्य कोशिकाएं (एबनोरमल सेल्स) एक गांठ का रूप ले लेती हैं, जिसे हम कैंसर कहते हैं। कैंसर एक जानलेवा रोग है। मानवता का सबसे बड़ा दु्श्मन है। कैंसर की तो आहट ही मनुष्य को आतंकित, आशंकित और आहत कर देती है। उसे सर्जरी, कीमो और रेडियो की त्रिधारी तलवार चौबीसों घंटे सिर पर लटकी दिखाई देती है।

निदान, उपचार और रोगों को समझने की दिशा में चिकित्सा विज्ञान ने बहुत तरक्की की है, नई खोजें और नई दवाइयाँ विकसित हुई हैं। हर वर्ष कैंसर की भी नई नई दवाइयाँ बनाई जाती हैं। लेकिन कैंसर के इस दानव को परास्त करने में हम पूरी तरह असफल रहे हैं। क्या कारण है कि हम कैंसर का उपचार ढूँढ़ ही नहीं पा रहे हैं। कहीं हमारी दिशा ही तो गलत नहीं है? क्या सचमुच कीमो और रेडियो कैंसर के कारण पर ही अटेक करती हैं?

आखिर इस कैंसर का मूल कारण क्या है? मैं आपको बतलाती हूँ, सन् 1923 में डॉ॰ ओटो वारबर्ग ने कैंसर के मूल कारण की खोज कर ली थी। उन्होंने अपने प्रयोगों से सिद्ध कर दिया था कि हमारे सेल्स में ऑक्सीजन की कमी होने के कारण वे फर्मेन्टेशन द्वारा रेस्पीरेशन करने लगते हैं और वे कैंसर सेल्स में परिवर्तित हो जाते हैं। फर्मेन्टेशन प्रोसेस में लेक्टिक एसिड बनता है इसलिए कैंसर में शरीर का पीएच एसीडिक हो जाता है। इस खोज के लिए उन्हें सन् 1931 में नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया था। दुर्भाग्य यह है कि उनकी इस महान खोज पर अमेरिकन कैंसर सोसाइटी और ए.एफ.डी. ने कभी कोई ध्यान ही नहीं दिया। वारबर्ग ने संभावना जताई थी कि सेल्स में ऑक्सीजन को आकर्षित करने के लिए सल्फरयुक्त प्रोटीन और एक अज्ञात फैट जरूरी होता है परन्तु वे इस अज्ञात फैट को पहचानने में असफल रहे।

उनके इस कार्य को डॉ॰ जोहाना बुडविग ने आगे बढ़ाया। वे एक जर्मन बायोकेमिस्ट, फारमेकोलोजिस्ट और फिजिक्स में पीएच.डी. थी और वे जर्मनी के फेडरल इंस्टिट्यूट ऑफ फैट्स रिसर्च के फैट्स एण्ड ड्रग्स विभाग में चीफ एक्सपर्ट थी। उन्हें नोबेल प्राइज के लिए सात बार नामांकित किया गया था। उन्हें पूरी दुनिया में फैट्स और ऑयल्स की सबसे बड़ी विशेषज्ञ माना जाता था। उन्होने जर्मनी और अंग्रेजी में एक दर्जन से ज्यादा पुस्तकें लिखी और कई शोधपत्र प्रकाशित किये थे।

सन् 1951 में बुडविग ने पहली बार लाइव टिश्यू में फैट्स को पहचानने की पेपर क्रोमेटोग्राफी तकनीक विकसित की थी। इस तकनीक ने चिकित्सा जगत में खोज के कई द्वार खोल दिये थे। इससे सिद्ध हो चुका था कि ओमेगा-3 फैट किस प्रकार हमारे शरीर को विभिन्न बीमारियों से बचाते हैं और शरीर को स्वस्थ रखने के लिए कितने आवश्यक हैं। इस तकनीक से यह भी साबित हो चुका था कि ट्रांसफैट से भरपूर हाइड्रोजिनेटेड फैट और मार्जरीन हमारे स्वास्थ्य के लिए कितने घातक और जानलेवा हैं। इस खोज से यह भी स्पष्ट हो चुका था कि सेल्स में ऑक्सीजन को आकर्षित करने वाला वह रहस्यमय और अज्ञात फैट अलसी के तेल में पाया जाने वाला अल्फा-लिनोलेनिक एसिड या ए.एल.ए. ही है, जिसे वारबर्ग और कई वैज्ञानिक दशकों से ढूँढ़ रहे थे। यह सचमुच एक महान खोज थी। उन्होंने इस ज्ञान की रोशनी से पूरे विश्व को जगमगा दिया था।

इस पूरी शोध में मुख्य बात यह सामने आई कि लिनोलेनिक एसिड तथा सल्फर-युक्त प्रोटीन का मिश्रण कैंसर उपचार और अच्छे स्वास्थ्य के लिए पहली आवश्यकता है। इसलिए उन्होंने नये प्रयोग करने का निश्चय किया। उन्होंने कैंसर के रोगियों को अलसी का तेल और पनीर मिला कर देना शुरू किया। तीन महीने बाद उनके ब्लड सेम्पल्स लिये गये। नतीजे चौंका देने वाले थे। डॉ॰ बुडविज द्वारा एक महान खोज हो चुकी थी। कैंसर के इलाज में सफलता की पहली पताका लहराई जा चुकी था। कैंसर के रोगी ऊर्जावान और स्वस्थ दिख रहे थे, उनकी गांठे छोटी हो गई थी, वे कैंसर को परास्त कर रहे थे। उन्होने अलसी के तेल और पनीर के जादुई और आश्चर्यजनक प्रभाव दुनिया के सामने सिद्ध कर दिये थे।

इस तरह वर्षों की रिसर्च के बाद डॉ॰ बुडविग ने अलसी के तेल, पनीर, जैविक फलों और सब्जियों के ज्यूस, व्यायाम, सूर्य के प्रकाश आदि को मिला कर कैंसर का उपचार विकसित किया। इस उपचार से उन्होंने कई दशकों तक 2500 से भी ज्यादा कैंसर के रोगियों उपचार किया, जिसमें उन्हें 90% सफलता मिलती थी। कई नेता और नोबेल पुरस्कार समिति के सदस्य उन्हें नोबल पुरस्कार देना चाहते थे पर उनको डर था कि इस उपचार के प्रचलित होने और मान्यता मिलने से 200 बिलियन डालर का कैंसर व्यवसाय रातों रात धराशाही न हो जाये। इसलिए बुडविग को कहा गया कि आपको कीमोथैरेपी और रेडियोथैरेपी को भी अपने उपचार में शामिल करना होगा। लेकिन उन्होंने सशर्त दिये जाने वाले नोबल पुरस्कार को एक नहीं सात बार ठुकराया। वे कहती थी कि कीमो और रेडियोथेरेपी मेरे उपचार के विपरीत दिशा में कार्य करती हैं। यह सब देखकर कैंसर व्यवसाय से जुड़े मंहगी कैंसररोधी दवाईयां और रेडियोथेरेपी मशीने बनाने वाले संस्थानों की नींद हराम हो रही थी। उन्हें डर था कि यदि यह उपचार प्रचलित होता है तो उनकी दवाईयां और कीमोथेरिपी की मशीने कौन खरीदेगा ? इस कारण सभी बहुराष्ट्रीय संस्थानों उनके विरूद्ध कई षड़यन्त्र रचने लगे। नेताओं और सरकारी संस्थाओं के उच्चाधिकारियों को रिश्वत देकर ये लोग डॉ॰ जोहाना को प्रताड़ित करने के लिए बाध्य करते रहे। फलस्वरूप इन्हें अपना पद छोड़ना पड़ा, इनसे सरकारी लेब छीन ली गई और इनके रिसर्च पेपर्स के प्रकाशन पर भी रोक लगा दी गई।

विभिन्न बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने इन पर तीस से ज्यादा मुकदमें दाखिल किये थे। डॉ॰ बुडविग ने अपने बचाव हेतु सारे दस्तावेज स्वंय तैयार किये और अन्त में सारे मुकदमों में जीत भी हासिल की। कई न्यायाधीशों ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लताड़ लगाई और कहा कि डॉ॰ बुडविग द्वारा प्रस्तुत किये गये शोध पत्र सही हैं, इनके प्रयोग वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित हैं, इनके द्वारा विकसित किया गया उपचार जनता के हित में है और आम जनता तक पहुंचना चाहिए। इन्हे व्यर्थ परेशान नहीं किया जाना चाहिए। वर्ना चिकित्सा जगत में भूचाल आ जायेगा।

आप सोच रहे होगें कि डॉ. जोहाना की उपचार पद्धति इतनी असरदार व चमत्कारी है तो यह इतनी प्रचलित क्यों नहीं है। यह वास्तव में इंसानी लालच की पराकाष्ठा है। सोचिये यदि कैंसर के सारे रोगी अलसी के तेल व पनीर से ही ठीक होने लगे तो कैंसर की मंहगी दवाईयां और रेडियोथैरेपी की मशीने बनाने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कितना बड़ा नुकसान होता। इसलिए उन्होंने किसी भी हद तक जाकर डॉ. जोहाना के उपचार को आम आदमी तक नहीं पहुंचने दिया। मेडीकल पाठ्यक्रम में उनके उपचार को कभी भी शामिल नहीं होने दिया।

बाहरी सम्पर्क

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  • डॉ॰ योहाना बडविग का कैंसररोधी आहार–विहार

वेज ओमेगा

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