बुद्ध और बौद्ध धर्म
पिछली शताब्दी के सांस्कृतिक जागरण का एक परिणाम था बौद्धधर्म के विषय में आधुनिक जानकारी का विकास। भारतीयों के लिए यह एक विलुप्त गौरव और महिमा का प्रत्यभिज्ञान था, पाश्चात्य देशों के लिए अपूर्व उपलब्धि। दक्षिण, मध्य और पूर्व एशिया के बौद्ध देशों के लिए भी विद्या और साहित्य के इस उद्धार ने नवीन परिष्कार और प्रगति की ओर संकेत किया। टर्नर और फाउसबाल, चाइल्डर्स और ओल्देनबर्ग, राइज डैविड्स और श्रीमती राइज डेविड्स, धर्मानंद कोसंबी और बरुआ, एवं अन्यान्य विद्वानों के यत्न से पालि भाषा का परिशीलन अपने आधुनिक रूप में प्रकांत और विकसित हुआ। बर्नूफ, कर्न, मैक्समूलर और सिलवाँ लेवी, हरप्रसद शास्त्री और राजेंद्रलाल मित्र आदि के प्रयत्नों से लुप्त प्राय बौद्ध संस्कृत साहित्य का पुनरुद्धार संपन्न हुआ। क्सोमा द कोरोस, शरच्चंद्र दास और विद्याभूषण, पूसें और श्चेरवात्स्की आदि ने तिब्बती भाषा, बौद्ध न्याय, सर्वास्तिवादी अभिधर्म आदि के आधुनिक ज्ञान का विस्तार किया। जेम्स प्रिंसेप, कनिंघम और मार्शंल, स्टाइन, फ्यूशेर और कुमारस्वामी आदि विद्वानों ने बौद्ध पुरातत्व और कलावशेषों की खोज और समय का दिक्प्रदर्शन किया। नाना भाषाओं और पुरातत्व के गहन परिशीलन के द्वारा शताधिक वर्षों के इस आधुनिक प्रयास ने बौद्ध धर्म की जानकारी को एक विशाल और जटिल कलेवर प्रदान किया है एवं इस तथ्य को प्रदर्शित किया है कि बौद्ध धर्म का सार और सार्थकता अपने में कितनी व्यापकता और सूक्ष्मता रखते हैं।
बुद्ध का जन्म और युग
संपादित करेंप्रचलित सिंहली परंपरा के अनुसार भगवान बुद्ध का परिनिर्वाण ई.पू. 544 में मानना चाहिए। इसी मान्यता के अनुसार मई 1956 में निर्वाण से 2500 वर्षों की पूर्ति स्वीकार की गई। दूसरी ओर, बुद्ध बिंबिसार और अजातशत्रु के समकालीन थे एवं उनके परिनिर्वाण से 218 वर्ष पश्चात् अशोक का राज्याभिषेक हुआ। ये तथ्य परिनिर्वाण को ई.पू. पाँचवीं शताब्दी के प्रथम पाद में रखते हैं और इस संभावना का "केंटनीज डॉटेड रिकार्ड" से समर्थन होता है। इतिहासकार प्राय: इसी मत को स्वीकार करते हैं।
छठी शताब्दी ई.पू. को विश्वइतिहास का जागरणकाल कहना उपयुक्त न होगा। भारतीय इतिहास के परिवेश में इस समय तक आर्यों के प्रारंभिक संचार और संनिवेश का युग समाप्त हो चुका था एवं विभिन्न "जनों" के स्थान पर "जनपद" व्यवस्थित थे। छठी शताब्दी के पूर्वार्ध को "षोडश महाजनपदों" का युग कहा गया है। राजाधीन और गणाधीन इन जनपदों को पारस्परिक संघर्ष भविष्य की एकता की ओर ले जा रहा था। आर्यों से पूर्ववर्ती विशाल सिंधु सभ्यता लुप्त हो चुकी थी किंतु उसकी अवशिष्ट परंपराओं के आर्य समाज में क्रमश: आत्मसात्करण की प्रक्रिया अभी जारी थी। वैदिक युग में आर्य एवं आर्येतर सांस्कृतिक परंपराओं का परस्पर समन्वय भारतीय इतिहास की निर्णायक घटनाओं में है। जहाँ इस प्रक्रिया से एक ओर चातुर्वर्ण्य का विकास और आर्यभाषा से परिवर्तन हुआ, वहीं दूसरी ओर आध्यात्मिक क्षेत्र में महत्वपूर्ण नई प्रवृत्तियों का जन्म हुआ।
बुद्ध का युग गहन विचारमंथन का युग था जब कि नाना ब्राह्मण और श्रमण अपने विभिन्न मतों का प्रतिपादन करते थे और बुद्ध की खोज एवं उपदेश का संबंध इन प्रचलित विचारधाराओं से स्थापित करने का यत्न इतिहासकार के लिए स्वाभाविक है। एक मत के अनुसार जो विचारधारा उपनिषदों में उपलब्ध होती है उसी का एक विकास बौद्धधर्म में देखना चाहिए। किंतु यह स्मरणीय है कि उस युग में "ब्राह्मण" और "श्रमण" का पार्थक्स्य र्निविवाद था, यहाँ तक कि पतंजलि ने "येषां च विरोध: शाश्वतिक: इस पाणिनीय सूत्र की व्याख्या के प्रसंग में "अहिनकुलम्" के समान "ब्राह्मण श्रमणम्" का उदाहरण दिया है। अत: पूर्वोक्त मत के अनुसार बौद्ध धर्म के मूल को ब्राह्मण विचारधारा के अतंर्गत किंतु श्रमणबाह्य मानना पड़ेगा, जो प्रामाणविरुद्ध है, अथवा श्रमण विचारधारा को ही वैदिक ब्राह्मण विचारधारा के साथ मूल संलग्न मानना पड़ेगा, जो कि कम से कम जैन धर्म की अवैदिकता के अब निर्विवाद होने के कारण अस्वीकार्य है। एक स्वतंत्र क्षत्रिय परंपरा की उद्भावना असिद्ध है। यह सत्य है कि उपनिषदों में, गीता में और बौद्ध एवं जैन आगमों में अनेक क्षत्रिय शासक दार्शनिक चर्चा में भाग ग्रहण करते हैं किंतु उनके मत नाना हैं एवं उन्हें वैदिक धर्म के अंतर्भूत अथवा श्रमण धर्म के अंतर्भूत किया जा सकता है। अत: ऐसा प्रतीत होता है कि यद्यपि महाश्रमण भगवान बुद्ध को मूलत: श्रमण समुदाय एवं परंपरा के अंतर्गत मानना चाहिए तथापि यह स्वीकार करने में कोई दोष नहीं है कि कुछ दिशाओं में उनके प्रतिपादन और उपनिषदों में प्रवृत्तिसाम्य से उन पर वैदिक प्रभाव सूचित होता है।
वैदिक धर्म मूलत: प्रवृत्तिमार्गी था, श्रमण संप्रदाय निवृत्तिमार्गी। निवृत्ति का प्राधान्य संसारवाद के अभ्युपगम पर आश्रित था। पक्षांतर में प्राचीन वैदक धर्म में संसारवाद अविदित था। उपनिषदों में ज्ञानचर्चा के साथ कुछ स्थलों पर संसारवाद आभासित है। इस कारण यह प्राय: प्रतिपादित किया गया है कि उपनिषदों के इन स्थलों से ही निवृत्तिपरक धाराओं का उद्गम मानना चाहिए। अर्थात् सांख्य और योग, जैन और बौद्ध धर्म सभी का मूल उत्स उपनिषदों में ही कहीं न कहीं खोजना चाहिए। इस धारणा के पीछे यह विश्वास है कि बुद्ध से पूर्वतर युग का अथवा प्रतिनिधि चिंतन उपनिषदों में संगृहीत है। वस्तुत: इस प्रकार की ऐतिहासिक परिस्थितियों में अनुपलब्धि से अभाव सिद्ध नहीं होता अत: ऐसे "आर्ग्युमेण्टम् एक्स सिलेन्शियो" को हेत्वाभास ही मानना चाहिए। दूसरी ओर, जैन और बौद्ध सभी अपना वैदिक श्रृण मानने के स्थान पर अपना अपना आगम स्वातंत्र्य ही घोषित करते हैं। पुरातात्विकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि आर्य वैदिक परंपरा के पूर्व और अतिरिक्त एक सभ्यता की परंपरा ई.पू. तृतीय और द्वितीय सहस्त्राब्दियों में भारत में विदित थी अतएव विभिन्न श्रमण परंपराओं का अवैदिक अथवा आर्येतरीय मूल अब असंभव नहीं लगता। इस संभाव्यता के कारण इन परंपराओं के मूल की अवैदिकता आपातत: तत्तद आगमसिद्ध है और इसके प्रमाणत: निराकरण का भार प्रतिवादी पर स्थिर होता है। जहाँ तक उपनिषदों में उपलब्ध "संसारवाद" अथवा "सांख्य" आदि के मूल का प्रश्न है, यह संभव है कि स्वयं उपनिषदों पर धारांतर का प्रभाव कल्पनीय है। फलत: जहाँ पहले बौद्ध धर्म का वैदिक मूल प्राय: सर्वसंमत था वहाँ अब पुरातात्विक और ऐतिहासिक खोज के परिप्रेक्ष्य में इस मत को संदिग्ध कहना होगा। किंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि बौद्ध धर्म पर वैदिक प्रभाव संदिग्ध है। वस्तुत: यद्यपि भगवान बुद्ध की पर्येषणा श्रमण पृष्ठभूमि में प्रारब्ध और संबोधि में पर्यवसित हुई, तथापि उनका तत्वप्रतिपादन अथवा देशना तत्कालीन श्रमण अभ्युपागमों को बुद्धिस्थ करने पर ही समझी जा सकती है।
वैदिक चिंतन में जगत् के मूल तत्व की खोज तीन मुख्य दिशाओं में की गई। एक ओर पुरुष को जगत् का कर्त्ता माना गया। दूसरी और जल, वायु आदि तत्त्वों में से किसी एक को जगत् का मूल उपादान कहा गया। इस दिशा में पारमार्थिक तत्व की कल्पना सत् अथवा असत् के रूप में भी की गई। तीसरी दिशा में जागतिक परिवर्तनों की नियमवत्ता देखकर कृत और धर्म की उद्भावना की गई। पुरुष के स्वरूप पर विचार करते हुए क्रमश: शरीर, इंद्रियाँ, वाक्, प्राण, मन एवं ज्ञान को उसके मौलिक स्वरूप का परिचायक माना गया। अंतत: यह निश्चित किया गया कि पुरुष अथवा आत्मा ज्ञानस्वरूप है, एक सत् ही जगत् का उपादान और ब्रह्म पदवाच्य है और आत्मा एवं ब्रह्म ज्ञान एवं सत् परस्पर अभिन्न हैं। यही औपनिषदिक आत्माद्वैत अथवा ब्रह्माद्वैत का सिद्धांत है। कुछ स्थलों पर आत्मा या ब्रह्म को अनिर्वचनीय एवं सत् और असत् के परे भी कहा गया है।
उपनिषदों में अभासित धर्म का सिद्धांत प्रचलित कर्मवाद के साथ अनायास संश्लिष्ट हो गया क्योंकि कर्म-फल-नियम ही मानव जीवन एवं सृष्टि का गंभीरतम नियामक कहा जा सकता था। इस सिद्धांत का विशद और विस्तृत प्रतिपादन उन नाना श्रमण संप्रदायों में देखा जा सकता था जिनके मतों का उल्लेख प्राचीन बौद्ध और जैन आगमों में प्राप्त होता है। दीधनिकाय के मुविदित सामंजफल सुत्तंत के अनुसार पूर्ण काश्यप, प्रकुध कात्यायन, अजित केशकंबली, संजय बेलद्विपुत्र, गोशाल एवं निर्ग्रंथ ज्ञातृपुत्र बुद्ध के समकालीन प्रसिद्ध श्रमण परिव्राजक गणाचार्य थे। अन्यत्र कालवाद, स्वभाववाद नियतिवाद, अज्ञानवाद, अक्रियावाद, क्रियावाद, शाश्वतवाद उच्छेदवाद आदि दृष्टियों का उल्लेख प्राप्त होता है। अधिकांश विचारक जीव के जन्म से जन्मांतर संसरण को दु:खात्मक और कर्म-फल-नियम के द्वारा व्यवस्थित मानते थे किंतु जीव, कर्म और मोक्ष के साधन के विषय में प्रचुर और जटिल मतभेद था। ब्राह्मण और श्रमण विचारकों द्वारा प्रतिपादित परमार्थ और व्यवहार संबंधी इन धारणाओं और प्रवृत्तियों के परिवेश में ही भगवान बुद्ध ने धर्मचक्र का प्रवर्तन किया।
बुद्ध की जीवनी
संपादित करेंबुद्ध के जीवन के विषय में प्रामाणिक सामग्री विरल है। इस प्रसंग में उपलब्ध अधिकांश वृत्तांत एवं कथानक परिवर्ती एवं भक्तिप्रधान रचनाएँ हैं। प्राचीनतम सामग्री में पालि त्रिपिटक के कुछ स्थलों पर उपलब्ध बुद्ध की पर्येषणा, संबोधि, धर्मचक्रप्रवर्तन एवं महापरिनिर्वाण के अल्प विवरण उल्लेख्य हैं। यह स्मरणीय है कि दीधनिकाय के महापदानसुत्तंत से सिद्ध होता है कि इसी अवस्था में बौद्धगण का आग्रह भगवान बुद्ध के जीवनचरित के विस्तृत ऐतिहासिक संग्रह में न होकर उसमें एक "धर्मता" अथवा सब बुद्धों के लिए एक अनिवार्य और नियत क्रम को प्रदर्शित कर सकने में था। इस कारण गौतम बुद्ध के जीवनी साहित्य में ऐतिहासिक स्मृति बुद्धत्व के आदर्श से प्रेरित कल्पनाप्रतानों से वैसे ही आच्छन्न हो गई जैसे चातुर्मास्य में अरण्यपथ। बुद्ध की जीवनी के आधुनिक विवरण प्राय: पालि की निदानकथा अथवा संस्कृत के महावस्तु, ललितविस्तर एवं अश्वघोष कृत बुद्धचरित पर आधारित होते हैं। किंतु इन विवरणों की ऐतिहासिकता वहीं तक स्वीकार की जा सकती है जहाँ तक उनके लिए प्राचीनतर समर्थन उपलब्ध हों। यह उल्लेख्य है कि एक नवीन मत के अनुसार मूल विनय में बुद्ध की जीवनी और विनय के नियम, दोनों एक ही संश्लिष्ट विवरण के अंग थे। ये मत सर्वथा प्रमाणित न होने पर भी संभाव्य है।
ई.पू. 563 के लगभग शाक्यों की राजधानी कपिलवस्तु के निकट लुंबिनी वन में भगवान बुद्ध का जन्म प्रसिद्ध है। वर्तमान नेपाल राज्य के अंतर्गत यह स्थान भारत की सीमा से आजकल पाँच मील दूर है। यहाँ पर प्राप्त अशोक के रुम्मिनदेई स्तंभलेख से ज्ञात होता है "हिद बुधे जाते ति।" सुत्तनिपात में शाक्यों को हिमालय के निकट कोशल में रहनेवाले गौतम गोत्र के क्षत्रिय कहा गया है। कोशलराज के अधीन होते हुए भी शाक्य जनपद स्वयं एक गणराज्य था। कदाचित् इस गण के पारिषद् अथवा प्रमुख राजशब्दोपजीवी होते थे। इस प्रकार के "राजा" शुद्धोदन बुद्ध के पिता एवं मायादेवी उनकी माता प्रसिद्ध हैं। जन्म के पाँचवे दिन बुद्ध को "सिद्धार्थ" नाम दिया गया और जन्मसप्ताह में ही माता के देहांत के कारण उनका पालन पोषण उनकी मौसी एवं विमाता महाप्रजापती गौतमी द्वारा हुआ। बुद्ध के शैशव के विषय में प्राचीन सूचना अत्यंत अल्प है। सिद्धार्थ के बत्तीस महापुरुषलक्षणों को देखकर असित ऋषि ने उनके बुद्धत्व की भविष्यवाणी की, इसके अनेक वर्णन मिलते हैं। ऐसे ही कहा जाता है कि एक दिन जामुन की छाँह में उन्हें सहज रूप में प्रथम ध्यान की उपलब्धि हुई थी। दूसरी ओर ललित-विस्तार आदि ग्रंथों में उनके शैशव का चमत्कारपूर्ण वर्णन प्राप्त होता है। ललितविस्तार के अनुसार जब सिद्धार्थ को देवायतन ले जाया गया देवप्रतिमाओं ने स्वयं उठकर उन्हें प्रणाम किया, उनके शरीर पर सब स्वर्णाभरण मलिन प्रतीत होते थे, लिपिशिक्षक आचार्य विश्वामित्र को उन्होंने 64 लिपियों का नाम लेकर और गणक महामात्र अर्जुन को परमाणु-रज: प्रवेशानुगत गणना के विवरण से विस्मय में डाल दिया और नाना शिल्प, अस्त्रविद्या, एवं कलाओं में सहज-निष्णात सिद्धार्थ का दंडपाणि की पुत्री गोपा के साथ परिणय संपन्न हुआ। पालि आकरों के अनुसार सिद्धार्थ की पत्नी सुप्रबुद्ध की कन्या थी और उसका नाम "भद्दकच्चाना" भद्रकात्यायनी, यशोधरा, बिंबा, अथवा बिंबासुंदरी था। विनय में उसे केवल राहुलमाता कहा गया है। बुद्धचरित में यशोधरा नाम दिया गया है। सिद्धार्थ के प्रव्रजित होने की भविष्यवाणी से भयभीत होकर युद्धोदन ने उनके लिए तीन विशिष्ट प्रासाद बनवाए - ग्रैष्मिक, वार्षिक, एवं हैमंतिक। इन्हें रम्य, सुरम्य और शुभ की संज्ञा भी दी गई है। इन प्रासादों में सिद्धार्थ को व्याधि और जरा मरण से दूर एक कृत्रिम, नित्य मनोरम लोक में रखा गया जहाँ संगीत, यौवन और सौंदर्य का अक्षत साम्राज्य था। किंतु देवताओं की प्रेरणा से सिद्धार्थ को उद्यानयात्रा में व्याधि, जरा मरण और परिव्राजक के दर्शन हुए और उनके चित्त में प्रव्रज्या का संकल्प विरूढ़ हुआ। इस प्रकार के विवरण की अत्युक्ति और चमत्कारिता उसके आक्षरिक सत्य पर संदेह उत्पन्न करती है। यह निश्चित है कि सिद्धार्थ के मन में संवेग संसार के अनिवार्य दु:ख पर विचार करने से उत्पन्न हुआ। उनकी ध्यानप्रवणता ने, जिसका ऊपर उल्लेख किया गया है, इस दु:ख की अनुभूति को एक गंभीर सत्य के रूप में प्रकट किया होगा। निदानकथा के अनुसार इसी समय उन्होंने पुत्रजन्म का संवाद सुना और नवजात को राहुल नाम मिला। उसी अवसर पर प्रासाद की ओर जाते हुए सिद्धार्थ की शोभा से मुग्ध होकर कृशा गौतमी ने उनकी प्रशंसा में एक प्रसिद्ध गाथा कही जिसमें निर्वृत्त (प्रशांत) शब्द आता है। सिद्धार्थ को इस गाथा में गुरुवाक्य के समान गंभीर आध्यात्मिक संकेत उपलब्ध हुआ :
निब्बुता नून सा माता निब्बुतो नून सो पिता।
निब्बुता नून सा नारी यस्सायमीदिसो पती ति।।
निशीथ के अंधकार में सोती हुई पत्नी और पुत्र को छोड़कर सिद्धार्थ कंथक पर आरूढ़ हो नगर से और कुटुंबजीवन से निष्क्रांत हुए। उस समय सिद्धार्थ 29 वर्ष के थे।
निदानकथा के अनुसार रात भर में शाक्य, कोलिय और मल्ल (राम ग्राम) इन तीन राज्यों को पार कर सिद्धार्थ 30 योजन की दूरी पर अनोमा नाम की नदी के तट पर पहुँचे। वहीं उन्होंने प्रव्रज्या के उपयुक्त वेश धारण किया और छंदक को विदा कर स्वयं अपनी अनुत्तर शांति की पर्येषणा की ओर अग्रसर हुए। आर्य पर्येषणा के प्रसंग में सिद्धार्थ अनेक तपस्वियों से विशेषत: आलार (आराड़) कालाम एवं उद्रक (रुद्रक) से मिले। ललितविस्तार में अराड कालाम का स्थान वैशाली कहा गया है जबकि अश्वघोष के बुद्धिचरित में उसे विंन्ध्य कोष्ठवासी बताय गया है। पालि निकायों से विदित होता है कि कालाम ने बोधिसत्व को "आर्किचन्यायतन" नाम की "अल्प समापत्ति" सिखाई। अश्वघोष ने कालाम के सिद्धांतों का सांख्य से सादृश्य प्रदर्शित किया है। ललित विस्तार में रुद्रक का आश्रम राजगृह के निकट कहा गया है। रुद्रक के "नैवसंज्ञानासंज्ञायतन" के उपदेश से भी बोधिसत्व असंतुष्ट रहे। राजगृह में उनका मगधराज बिंबिसार से साक्षात्मार सुत्तनिपात के पब्बज्जसुत्त, ललितविस्तर और बुद्धचरित में वर्णित है। गया में बोधिसत्व ने यह विचार किया कि जैसे गीली अरणियों से अग्नि उत्पन्न नहीं हो सकती, ऐसे ही भोगों में स्पृहा रहते हुए ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती। अतएव उरुविल्व के निकट सेनापति ग्राम में नैरंजना के तटवर्ती रमणीय प्रदेश में उन्होंने कठोर तपश्चर्या (प्रधान) का निश्चय किया। किंतु अंततोगत्वा उन्होंने तप को व्यर्थ समझकर छोड़ दिया। इसपर उनके साथ कौंडिन्य आदि पंचवर्षीय परिव्राजकों ने उन्हें तपोभ्रष्ट निश्चित कर त्याग दिया। बोधिसत्व ने अब शैशव में अनुभूत ध्यानाभ्यास का स्मरण कर ध्यान के द्वारा ज्ञानप्राप्ति का यत्न किया। इस ध्यानकाल में उन्हें मार सेना का सामना करना पड़ा, यह प्राचीन ग्रंथों में उल्लिखित है। स्पष्ट ही मार घर्षण को काम और मृत्यु पर विजय का प्रतीकात्मक विवरण समझना चाहिए। आर्य पर्येषणा के छठे वर्ष के पूरे होने पर वैशाखी पूर्णिमा को बोधिसत्व ने संबोधि प्राप्त की। रात्रि के प्रथम याम में उन्होंने पूर्वजन्मों की स्मृति रूपी प्रथम विद्या, द्वितीय याम में दिव्य चक्षु और तृतीय याम में प्रतीत्यसमुत्पाद का ज्ञान प्राप्त किया। एक मत से इसके समानांतर ही सर्वधर्माभिसमय रूप सर्वाकारक प्रज्ञा अथवा संबोधि का उदय हुआ।
संबोधि के अनंतर बुद्ध के प्रथम वचनों के विषय में विभिन्न परंपराएँ हैं जिनमें बुद्धघोष के द्वारा समर्थित "अनेक जाति संसार संघाविस्सं पुनप्पुनं" आदि गाथाएँ विशेषत: उल्लेखनीय हैं। संबोधि की गंभीरता के कारण बुद्ध के मन में उसके उपदेश के प्रति उदासीनता स्वाभाविक थी। संसारी जीव उस गंभीर सत्य को कैसे समझ पाएँगे जो अत्यंत सूक्ष्म और अतर्क्य है? बुद्ध की इस अनभिरुचि पर ब्रह्मा ने उनसे धर्मचक्र-प्रवर्तन का अनुरोध किया जिसपर दु:खमग्न संसारियों को देखते हुए बुद्ध ने उन्हें विकास की विभिन्न अवस्थाओं में पाया।
बुद्ध के लिए किसी वास्तविक संशय अथवा अभिरुचि के उदय का प्रश्न नहीं था। किंतु यह धर्मता के अनुरूप ही था कि देशना के पूर्व संसारियों के प्रतिनिधि के रूप में महाब्रह्मा बुद्ध से देशना के लिए याचना करें। इस प्रकार ब्रह्मयाचना के प्रसंग से प्रज्ञानुवर्तिता एवं उपदेश की विनेयापेक्षता सूचित होती है।
सारनाथ के ऋषिपत्तन मृगदान में भगवान बुद्ध ने पंचवर्गीय भिक्षुओं को उपदेश देकर धर्मचक्रप्रवर्तन किया। इस प्रथम उपदेश में दो अंतों का परिवर्जन और मध्यमा प्रतिपदा की आश्रयणीयता बताई गई है। इन पंचवर्गीयों के अनंतर श्रेष्ठिपुत्र यश और उसके संबंधी एवं मित्र सद्धर्म में दीक्षित हुए। इस प्रकार बुद्ध के अतिरिक्त 60 और अर्हत् उस समय थे जिन्हें बुद्ध ने नाना दिशाओं में प्रचारार्थ भेजा और वे स्वयं उरुवेला के सेनानिगम की ओर प्रस्थित हुए। मार्ग में 30 भद्रवर्गीय कुमारों को उपदेश देते हुए उरुवेला में उन्होंने तीन जटिल काश्यपों को उनके एक सहस्त्र अनुयायियों के साथ चमत्कार और उपदेश के द्वारा धर्म में दीक्षित किया। इसके पश्चात् राजगृह जाकर उन्होंने मगधराज बिंबिसार को धर्म का उपदेश दिया। बिंबिसार ने वेणुवन नामक उद्यान भिक्षुसंघ को उपहार में दिया। राजगृह में ही संजय नाम के परिव्राजक के दो शिष्य कोलित और उपतिष्य सद्धर्म में दीक्षित होकर मौद्गल्यायन और सारिपुत्र के नाम से प्रसिद्ध हुए। विनय के महावग्ग में दिया हुआ संबोधि के बाद की घटनाओं का क्रमबद्ध विवरण यहाँ पूरा हो जाता है।
उपदेश देते हुए भगवान बुद्ध ने प्रति वर्ष जहाँ वर्षावास व्यतीत किया उन स्थानों की सूची बौद्ध परंपरा में रक्षित है और इस प्रकार है - पहला वर्षावास वाराणसी में, दूसरा-चौथा राजगृह में, पाँचवाँ वैशाली में, छठा मंकुल गिरि में, सातवाँ तावतिंरा (त्रयस्तिं्रश) लोक में, आठवाँ सुंसुमार गिरि के निकट भर्ग प्रदेश में, नवाँ कौशांबी में, दसवां पारिलेय्यक वन में, ग्यारहवाँ नालाग्राम में, बारहवाँ वेरंज में, तेरहवाँ चालियगिरि में, चौदहवाँ श्रावस्ती में, पंद्रहवाँ कपिलवस्तु में, सोलहवाँ आलवी में, सत्रहवाँ राजगृह में, अठारहवाँ चालियगिरि में, उन्नीसवाँ राजगृह में, इसके अनंतर श्रावस्ती में। इस प्रकार अस्सी वर्ष की आयु तक बुद्ध धर्म का प्रचार करते हुए उत्तर प्रदेश और बिहार के जनपदों में घूमते रहे। श्रावस्ती में उनका सर्वाधिक निवास हुआ और उसके बाद राजगृह, वैशाली और कपिलवस्तु में।
कोशल में राजा प्रसेनजित् और रानी मल्लिका बुद्ध में श्रद्धालु थे। श्रेष्ठियों में कोटिपति अनाथपिंडक और विशाखा उपासक बने और उन्होंने श्रावस्ती में संघ को क्रमश: जेतवन विहार और पूर्वाराम मृगारमातृ प्रासाद का दान किया। अग्निक भारद्वाज, पुष्कर सादी आदि कोसल के अनेक ब्राह्मणों ने भी बौद्ध धर्म स्वीकार किया। शाक्यगण पहले बुद्ध के अनूकुल नहीं थे किंतु फिर चमत्कार देखकर उनकी रुचि परिवर्तित हुई। यद्यपि बुद्ध स्वयं वैशाली के गणराज्य के विशेष प्रशंसक थे, तथापि वहाँ निर्ग्रंथों के अधिक प्रभाव के कारण सद्धर्म का प्रचार संकुचित रहा। मगध में बिंबिसार की अनुकूलता कदाचित् सद्धर्म के प्रसार में विशेष सहायक थी क्योंकि यह विदित होता है कि यहाँ के अनेक श्रेष्ठी और गृहपति बौद्ध उपासक बने। यह उल्लेख्य है कि महाप्रजापति गौतमी और आनंद के आग्रह से भगवान बुद्ध ने स्त्रियों को भी संघ में स्थान दिया।
प्रसिद्ध महापरिनिर्वाण सूत्र में परवर्ती परिवर्तनों के बावजूद बुद्ध की अंतिम पदयात्रा का मार्मिक विवरण प्राप्त होता है। बुद्ध उस समय राजगृह में थे जब मगधराज अजातशत्रु वृजि जनपद पर आक्रमण करना चाहता था। राजगृह से बुद्ध पाटलि ग्राम होते हुए गंगा पार कर वैशाली पहुँचे जहाँ प्रसिद्ध गणिका आम्रपाली ने उनको भिक्षुसंघ के साथ भोजन कराया। इस समय परिनिर्वाण के तीन मास शेष थे। वेलुवग्राम में भगवान ने वर्षावास व्यतीत किया। यहाँ वे अत्यंत रुग्ण हुए और आनंद को यह शंका हुई कि संघ से कहे बिना ही कहीं उनका परिनिर्वाण न हो जाए। इसपर बुद्ध ने कहा भिक्षुसंघ मुझसे क्या चाहता है? मैंने धर्म का निश्शेष उपदेश कर दिया है।... मेरी यह इच्छा नहीं है कि मैं संघ का नेतृत्व करता रहूँ... अब मैं अस्सी वर्ष का वृद्ध हूँ.... तुम्हें चाहिए कि "अत्तुदीपा विहरथ अत्तसरणा अनंजसरणा धम्मदीपा धम्मसरणा अनंजसरणा"। वैशाली से भगवान भंडग्राम और भोगनगर होते हुए पावा पहुँचे। वहाँ चुंद कम्मारपुत्त के आतिथ्य ग्रहण में "सूकर मद्दव" खाने से उन्हें यंत्रणामय रक्तातिसार उत्पन्न हुआ। रुग्णावस्था में ही उन्होंने कुशीनगर की ओर प्रस्थान किया और हिरण्यवती नदी पार कर वे शालवन में दो शालवृक्षों के बीच लेट गए। सुभद्र परिव्राजक को उन्होंने उपदेश दिया और भिक्षुओं से कहा कि उनके अनंतर धर्म ही संघ का शास्ता रहेगा। छोटे मोटे शिक्षापदों में परिवर्तन करने की अनुमति भी इन्होंने संघ को दी और छन्न भिक्षु पर ब्रह्मदंड का विधान किया। पालि परंपरा के अनुसार भगवान के अंतिम शब्द थे "वयधम्मा संखारा अप्पमादेन संपादेथाति।"
परंपरा के अनुसार बुद्ध प्रात: शरीर परिकर्म के अनंतर भिक्षाचर्या के समय तक एकांत आसन में बैठते थे। भिक्षाचर्या कभी अकेले, कभी भिक्षुसंघ के साथ करते थे। श्रद्धालुओं के निमंत्रण पर उनके यहाँ भोजन करते एवं उपदेश देते थे। लौटने पर भिक्षुओं को उपदेश देते और फिर मुहूर्त भर विश्राम कर दर्शनार्थियों को उपदेश करते। सायं स्नान ध्यान के अनंतर भिक्षुओं की समस्याएँ हल करते, रात्रि के मध्यम याम में देवताओं के प्रश्नों के उत्तर देते और रात्रि के अंतिम याम में कुछ चंक्रमण और कुछ विश्राम कर बुद्ध चक्षु से लोकावलोकन करते थे।
भगवान् बुद्ध को प्राचीन संदर्भों में ध्यानशील तथा मौन और एकांत के प्रेमी कहा गया है। उनकी दया और बुद्धिस्वातंत्र्य विश्वविदित हैं। वे अंधश्रद्धा के कट्टर विरोधी थे और प्रत्यात्मवेदनीय सत्य का उपदेश करते थे। उनकी देशना में जातिवाद और कर्मकांड का स्थान नहीं था। विद्या और आचरण से संपन्न पुरुष को ही वे सच्चा ब्राह्मण मानते थे, आभ्यंतरिक ज्योति को ही वास्तविक अग्नि और परसेवा को ही पारमार्थिक अर्चन। इसी कारण उनकी देशना समाज के सभी वर्गों के लिए ग्राह्य थी और बौद्धिकता, नैतिकता एवं आध्यात्मिकता की प्रगति में एक विशिष्ट नया चरण थी।
बुद्ध देशना
संपादित करेंभगवान् बुद्ध की मूल देशना क्या थी, इसपर प्रचुर विवाद है। स्वयं बौद्धों में कालांतर में नाना संप्रदायों का जन्म और विकास हुआ और वे सभी अपने को बुद्ध से अनुप्राणित मानते हैं। बुद्धवचन भी विभिन्न संप्रदायों में समान रूप से संरक्षित नहीं है। और फिर जितना उनके नाम से संरक्षित है, विभिन्न भाषाओं और संप्रदायों में, हीनयान और महायान में, उन सब को बुद्धप्रोक्त कोई भी इतिहासकार नहीं मान सकता। स्पष्ट ही बुद्धवचन के संग्रह और संरक्षण में नाना परिवर्तन और परिवर्धन अवश्य स्वीकार करने होंगे और उसके निष्पन्न रूप को एक दीर्घकालीन विकास का परिणाम मानने के अतिरिक्त ऐतिहासिक आलोचना के समक्ष और युक्तियुक्त विकल्प नहीं है। महायानियों ने इस समस्या के हल के लिए एक और दो या तीन धर्मचक्रप्रवर्तनों की कल्पना की और दूसरी ओर "विनयभेदान् देशनाभेद:" इस सिद्धांत की कल्पना की। अर्थात् भगवान बुद्ध ने स्वयं उपायकौशल्य से नाना प्रकर की धर्म देशना की। अधिकांश आधुनिक विद्वान् पालि त्रिपिटक के अंतर्गत विनय और सुत्त पिटकों में संगृहीत सिद्धांतों को मूल बुद्धदेशना मान लेते हैं। कुछ विद्वान् सर्वास्तिवाद अथवा महायान के सारांश को मूल देशना स्वीकार करना चाहते हैं। अन्य विद्वान् मूल ग्रंथों के ऐतिहासिक विश्लेषण से प्रारंभिक और उत्तरकालीन सिद्धांतों में अधिकाधिक विवेक करना चाहते हैं, जिसके विपरीत कुछ अन्य विद्वान् इस प्रकार के विवेक के प्रयास को प्राय: असंभव समझते हैं। मतभेद होने पर भी नाना सांप्रदायिक और ऐतिहासिक परिवर्तनों के पीछे मूल देशना की खोज नितांत आवश्यक है क्योंकि इस मूल संलग्नता पर ही आध्यात्मिक प्रामाणिकता निर्भर है।
भगवान् बुद्ध ने प्रचलित मागधी भाषा में उपदेश दिए और सबको इसकी अनुमति दी कि वे उपदेशों को अपनी अपनी बोली (निरुत्ति) में याद रखें। ऐसी स्थिति में बौद्ध धर्म के प्रादेशिक प्रसार के साथ यह अनिवार्य था कि बुद्धवचन के क्रमश: अनेक संग्रह प्रस्तुत हो जाएँ। इनमें केवल पालि का संग्रह ही अब पूर्ण है। अन्य संग्रहों के कुछ अंश मूल रूप में एवं कुछ अनुवादों में ही मिलते हैं। इस प्रकार पालि त्रिपिटिक का महत्व निर्विवाद है। इसकी प्राचीनता भी असंदिग्ध है क्योंकि ई.पू. प्रथम शताब्दी में इसको सुदूर सिंहल में लिपिबद्ध कर दिया गया था। तथापि यह स्वीकार करना कठिन है कि पाल मागधी है, साथ ही अभिधर्म पिटक की बुद्धोत्तरकालीनता आधुनिक विद्वानों में प्राय: निर्विवाद है। श्रीमती राइज़ डेविड्स तथा फ्राज्चाल्नर आदि की खोजों से प्रतीत होता है कि विनय एवं सुत्त पिटकों में प्राचीन और अर्वाचीन अंशों का भेद सर्वदा उपेक्षणीय है। उदाहरण के लिए विनय में प्रातिमोक्ष प्राचीन है, संगीति विवरण अपेक्षाकृत अर्वाचीन, सुत्तपिटक में सुत्तनिपात के अट्टक और पारायण वग्ग प्राचीन हैं, दीर्घ का महापदान सुत्त अपेक्षाकृत अर्वाचीन। यह कल्पना करना अयुक्त न होगा कि भगवान बुद्ध ने गंभीर आध्यात्मिक सत्य की ओर सरल, व्यावहारिक और मार्मिक रीति से परिस्थिति के अनुकूल संकेत किया और इन सांकेतिक उक्तियों के संग्रह, व्याख्या, परिभाषा, वर्गीकरण आदि के द्वारा नाना सांप्रदायिक सिद्धांतों का विकास हुआ।
बुद्ध के युग में अनेक श्रमण परिव्राजक संसार को एक दु:खमय चक्र मानते थे। इस दृष्टि से बुद्ध सहमत थे और अनित्य संसार के द्वंद्वात्मक दु:ख से युक्त होकर आत्यंतिक शांति को उन्होंने स्वयं अपनी पर्येषणा का लक्ष्य बनाया। ध्यान के द्वारा उन्होंने धर्मरूप परम सत्य का साक्षात्कार अथवा संबोधि की प्राप्ति की। यह पारमार्थिक धर्म तर्क का अगोचर था और उसके दो रूप निर्दिष्ट हैं - प्रतीत्यसमुत्पाद और निर्वाण। प्रतीत्यसमुत्पाद में दु:ख प्रपंच की परतंत्रता संकेतित है और निर्वाण में परम शांति। अनित्य और परतंत्र नाग रूप (चित्त और शरीर) को आत्मस्वरूप समझना ही मूल अविद्या है और उसी से तृष्णा एवं कर्म द्वारा संसारचक्र अनवरत गतिशील रहता है। इसके विपरीत शील अथवा सत्कर्म, वैराग्य, एवं प्रज्ञा संसार की हेतुपरंपरा के निराकरण द्वारा निर्वाण की ओर ले जाते हैं। प्रज्ञा साक्षात्कारात्मक होती है। चार आर्य सत्यों में मूलत: यही संदेश प्रतिपादित है।
एक ओर भगवान बुद्ध ने कर्मतत्व को मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के द्वारा चित्तप्रसूत बताकर यह प्रदर्शित कर दिया कि संसारवृक्ष का बीज मन ही है - "मनोपुब्बंगमा धंम्मा मनोसेट्ठा मनोमया" और दूसरी ओर मन की अनित्यता और परंतत्रता के द्वारा उसकी अनात्मता और हेयता का उन्होंने स्पष्ट प्रतिपादन कर दिया। संसार चित्त में प्रतिष्ठित है और चित्त दु:ख, अनित्य एवं अनात्म के लक्षणों से परिगृहीत। मूलत: चित्त में नैरात्म्य बोध के द्वारा चित्तोपशम ही निर्वाण है।
प्रथम आर्य सत्य की मीमांसा करते हुए बौद्धों ने त्रिविधदु:खता का प्रतिपादन किया है - दु:ख दु:खता जो संवेदनात्मक स्थूल दु:ख है, परिणाम दु:खता जो कि सुख के अन्यथाभाव से व्यक्त होती है, एवं संस्कारदु:खता जो संस्कारों की संचलनात्मकता है। इस संस्कारदु:खता के कारण ही "सर्वं दु:खम्" इस लक्षण का कहीं भी व्यभिचार नहीं होता। दु:ख के सूक्ष्म एवं विराट् रूप का सम्यग्बोध आध्यात्मिक संवेदनशीलता के विकसित होने पर ही संभव होता है। बौद्धों के अनुसार दु:ख सत्य का साक्षात्कार होने पर पृथग्जन की स्थिति छूटकर आर्यत्व का उन्मेष होता है।
द्वितीय आर्य सत्य प्रतीत्यसमुत्पाद ही है। प्रतीत्यसमुत्पाद की अनेक प्राचीन और नवीन व्याख्याएँ हैं। कुछ व्याख्याकारों ने प्रतीत्यसमुत्पाद का मम कार्य-कारण-भाव का बोध एवं उसका आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रयोग बताया है। अविद्या-संस्कार-विज्ञान-नाम-रूप-षडायतन-स्पर्श-वेदना, तृष्णा, उपादान, भव, जाति, जरा, मरण इन द्वादश निदानों अथवा कारणों की परंपरा प्रतीत्यसमुत्पाद है। एक अन्य व्याख्या के अनुसार प्रतीत्यसमुत्पाद शाश्वत और उच्छेद सदृश परस्पर विरुद्ध अंतों का वर्जन करनेवाली मध्यम प्रतिपद् है। इस मध्यम प्रतिपद् का अर्थ एक ओर जगत् की प्रवाहरूपता किया गया है और दूसरी ओर सभी वस्तुओं को अ-योन्यापेक्षता अथवा स्वभावशून्यता बताया गया है। स्पष्ट ही, इन और अन्य अनेक व्याख्याओं में एक मूल अविश्लिष्ट भाव का विविध विकास देखा जाता है।
तृतीय आर्य सत्य दु:खनिरोध है। यहाँ पर यह प्रश्न स्वाभाविक है कि क्या निर्वाण का एक अभावमात्र है? कुछ सौत्रांतिकों को छोड़कर अन्य बौद्ध संप्रदायों में निर्वाण को भाव रूप नहीं स्वीकार किया गया है। स्थविरवादी निर्वाण को भावरूप मानते हैं, वैभाषिक धर्मस्वभाव रूप, योगाचार तथा स्वरूप और माध्यमिक चतुष्कोटि विनिर्मुक्त शून्य स्वरूप। इतना निस्संदेह है कि निर्वाण में दु:ख, क्लेश कर्म और अविद्या का अभाव है। निर्वाण परम शांत और परम अर्थ है, असंस्कृत, निर्विकार और अनिर्वचनीय है। आध्यात्मिक साधना में जैसे जैसे चित्त शुद्ध, प्रभास्वर और शांत होता जाता है वैसे वैसे ही वह निर्वाण के अभिमुख होता है। इस साधनानिरत चित्तसंतति की अंतिम अवस्था अथवा लक्ष्यप्राप्ति का पूर्वावस्थाओं अथवा संतति संबंध स्थापित कर सकना संभव प्रतीत नहीं होता। इस कठिनाई को दूर करने के लिए अनेक उपायों का आविष्कार किया गया था, तथा वैभाषिकों के द्वारा "प्राप्ति" और "अप्राप्ति" नाम के विशिष्ट धर्मों की कल्पना। वस्तुत: अंतिम अवस्था में अनिर्वचनीयता के आश्रम के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है।
प्राय: निर्वाण की भावाभावता का प्रश्न साभिप्राय होता है। पुद्गलवादियों के अतिरिक्त अन्य बौद्ध संप्रदायों में आत्मा अथवा जीव की सत्ता का सर्वथा तिरस्कार बुद्ध का अभीष्ट माना गया है। प्राय: इस प्रकार का आत्मातत्व तथा नैरात्म्यवाद बौद्ध दृष्टि की विशेषता बताई जाती है। बौद्ध दर्शन में आत्मा के स्थान पर पांच स्कंधों का अनित्य संघात स्वीकार किया जाता है। पाँच स्कंध हैं - रूप, विज्ञान, वेदना, संज्ञा एवं संस्कार। स्कंध संतति का पूर्वापद संबंध प्रतीत्य समुत्पाद अथवा हेतु प्रत्यय के अधीन है। अनुभव के घटक इन अनेक और अनित्य तत्वों में कोई भी ऐसा स्थिर और समान तत्व नहीं है जिसे आत्मा माना जा सके। ऐसी स्थिति में कर्ता और भोक्ता के बिना ही कर्म और भोग की सत्ता माननी होगी। अथवा यह कहना चाहिए कि कर्म और भोग में ही कर्तृत्व और भोक्तृत्व को प्रतिभासित या अध्यास्त मानना होगा। स्मृति एवं प्रत्यभिज्ञान को समझाने के लिए इस दर्शन में केवल संस्कार अथवा वासना को पर्याप्त समझा गया। इस प्रकार के नैरात्म्य के स्वीकार करने पर निर्वाण अनुभव के अभाव के अतिरिक्त और हो ही क्या सकता है? सांख्य, योग और वेदांत में चित्तनिरोध होने पर आत्मा स्वरूप प्रतिष्ठित होती है, अर्थात् अज्ञान की निवृत्ति होने पर आत्म ज्ञान की प्राप्ति होती है। जैन दर्शन में कर्मनिवृत्ति होने पर जीव को अपने पारमार्थिक स्वरूप और शक्ति की उपलब्धि होती है। प्रश्न यह है कि अनात्मवादी बौद्ध दर्शन में अज्ञान अथवा चित्त की निवृत्ति पर क्या शेष रहता है? निर्वाण प्राप्त किसे होता है? इसका एक उत्तर यह है कि सर्वं दु:खम् को मान लेने पर निश्शेषता को ही श्रेयसी मानना चाहिए, यद्यपि इससे असंतुष्ट होकर वात्सीपुत्रीय योगाचार संप्रदायों में "पुद्गल" अथवा "आलय विज्ञान" के नाम से एक आत्मवत् तत्व की कल्पना की गई। नागार्जुन का कहना है "आत्मेत्यपि देशितंप्रज्ञपितमनात्मेत्यपि। बुद्धैरात्मा न चानात्मा कश्चिदित्यपि देशितम्।" यहाँ इस तथ्य की ओर संकेत है कि प्राचीन बौद्ध आगम में आत्मविषयक उक्तियाँ सब एकरस नहीं हैं। इस उक्तिभेद पर सूक्ष्मता से विचार कर कुछ आधुनिक विद्वानों ने यह मत प्रतिपादित किया है कि स्वयं बुद्ध ने स्वयं अनात्म तत्वों का अनात्मत्व बनाया था न कि आत्मा का अनस्तित्व। उन्होंने यह कहीं नहीं कहा कि आत्मा है ही नहीं। उन्होंने केवल यह कहा कि रूप, विज्ञान, आदि स्कंध आत्मा नहीं है। अर्थात् बुद्ध का आत्मप्रतिषेध वास्तव में अहंकारप्रतिषेध के तुल्य है। आतमा का स्कंधों से अभिप्रेत अभाव अन्योन्यभाव है न कि आत्मा का सर्वत्र अत्यंताभाव। इसी कारण बुद्ध ने संयुत्तनिकाय में स्पष्ट पूछे जाने पर भी आत्मा का प्रतिषेध नहीं किया और न तथागत का मृत्यु के अनंतर अभाव बताया। यह स्मरणीय है कि आत्मा के अनंत और अपरिच्छिन्न होने के कारण उन्होंने उसके अस्तित्व का भी ख्यापन नहीं किया क्योंकि साधारण अनुभव में "अस्ति" और "नास्ति" पद परिच्छिन्न गोचर में ही सार्थक होते हैं। इस दृष्टि से आत्मा और निर्वाण पर बुद्ध के गंभीर अभिप्राय को शाश्वत और उच्छेद से परे एक अतर्क्य माध्यमिक प्रतिपद् मानना चाहिए। यही उनके आर्य मौन से पूरी तरह समंजस हो सकता है।
चतुर्थ आर्यसत्य या निरोधगामिनी प्रतिपद् प्राय: आर्य अष्टांगिक मार्ग से अभिन्न प्रतिपादित है। अष्टांगिक मार्ग के अंग हैं - सम्यक् दृष्टि, .संकल्प, .वाक्, .कर्मां, .आजीव, .यायाम, .स्मृति और .समाधि। वस्तुत: यह अष्टक बोधपाक्षिक धर्मों का संग्रह विशेष है। प्राय: 37 बोधिपाक्षिक धर्म उल्लेखित हैं। प्रकारांतर से शील, समाधि और प्रज्ञा, इन तीन में आध्यात्मिक साधन संगृहीत हो जाता है। बुद्धघोष ने "विसुद्धिमग्गो" में इसी क्रम का आश्रय लिया है। यह स्मरणीय है कि जिस क्रम से दु:ख उत्पन्न होता है उसके विपरीत क्रम से वह आपातत: निरुद्ध होता है। दु:ख की कारणपरंपरा है अविद्या: - क्लेश-कर्म जिसमें उत्तरोत्तर स्थूल है। दु:ख निवृत्ति की परंपरा में पहले शील के द्वारा कर्म का विशोधन होता है, फिर समाधि अथवा भावना के द्वारा क्लेशप्रहाण और फिर प्रज्ञा अथवा साक्षात्कार के द्वारा अविद्या का अपाकरण। यह अवधेय है कि शीलाभ्यास के पूर्व ही सम्यग्दृष्टि आवश्यक है। सम्यग्दृष्टि स्वयं परोक्षज्ञानरूपा है किंतु साधन की दिग्दर्शिका है। शील और समाधि दोनों ही संयम के रूप हैं - स्थूल और सूक्ष्म, पहले से कर्म का परिष्कार होता है, दूसरे से क्लेशों का तनूकरण। शील में सफलता समाधि को सरल बनाती हैं, समाधि में सफलता शील को पूर्णता प्रदान करती है। समाधि में पूर्णता होने पर सम्यग्दृष्टि का स्थान प्रज्ञा ले लेती है।
पटिसंभिदामग्ग के अनुसार शील चेतना है, शील चेतसिक है, शील संवर है, शील अव्यतिक्रम है। उपासकों के लिए पांच-शील उपदिष्ट हैं, अनुपसंपन्न श्रामणेरो के लिए दशशील विहित है, उपसंपन्न भिक्षु के लिए प्रातिमोक्ष संवर आदि प्रज्ञप्त हैं। पंचशील में अहिंसा, अस्तेय, सत्य, अव्यभिचार और मद्यानुपसेवन संगृहीत हैं। यह स्मरणीय है कि पंचशील पंच विरतियों के रूप में अभिहित हैं, यथा प्राणातिपात से विरति, अदत्तादान से विरति इत्यादि। सिगालोवाद सुत्तंत आदि में उपासक धर्म का और अधिक विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है।
प्रव्रज्या प्राप्त करने पर भिक्षु श्रामणेर कहलाता था और उसे एक उपाध्याय एवं आचार्य के निश्रय में रहना पड़ता था। उसके लिए शील में 10 विरतियाँ या वर्जनाएँ संगृहीत हैं - प्राणघात से, चोरी से, अब्रह्मचर्य से, झूठ से, शराब और नशीली वस्तुओं से, विकाल-भोजन से, नाच, गाना बजाना और तमाशा देखने से, माला, गंध, विलेपन और अलंकरण से, ऊँची शय्या और बहुमूल्य शय्या से और सोना चाँदी ग्रहण करने से। पिंडपात, चीवर, शयनासन, ग्लान प्रत्यय भेषज्य भिक्षु के चार निश्रय कहलाते हैं। इनमें क्रमश: अतिरिक्त लाभ की अनुमति भिक्षुजीवन और संघ की समृद्धि में प्रगति सूचित करती है। भिक्षु जीवन और संगठन के नियम विनयपिटक में संगृहीत हैं। इनका भी एक विकास अनुमेय है। प्रारंभिक अवस्था में भिक्षुओं के एकांत जीवन पर अत्यधिक जोर था। पीछे क्रमश: आवासिक जीवन पल्लवित हुआ। चातुर्दिश संघ प्राय: तीन योजन से अनधिक सीमा के अनेक स्थानीय संघारामों में विभक्त था जिनमें गणतंत्र की प्रणाली से कार्यनिर्वाह होता था। एकत्रित भिक्षुसमूह में ऐकमत्य, उद्वाहिका, शलाकाग्रहण, अथवा बहुमत से निश्चय पर पहुँचा जाता था।
भिक्षु उपोसथ के लिए प्रतिपक्ष एकत्र होते थे और उस अवसर पर प्रातिमोक्ष का पाठ किया जाता था। प्रातिमोक्ष के आठ विभाग हैं - पाराजिक, संघावशेष, अनियत, नैसर्गिक पातायंतिक, पातयंतिक प्रतिदेशनीय, शैक्ष एवं अधिकरण शमथ। इनके अंतर्गत नियमों की संख्या सब संप्रदायों में समान नहीं है। किंतु यह संख्याभेद मुख्यत: शैक्ष धर्मों के परिगणन में है। शेष वर्गों में संख्या प्राय: समान है और प्राचीन "दियट्ठसिक्खापदसत" के उल्लेख से समंजस है। प्रत्येक वर्ग के पाठ के बाद सबसे तीन बार पूछा जाता था "क्या आप लोग इन दोषों से शुद्ध हैं?" अपराधी भिक्षु अपने व्यतिक्रम की आदेशना करते थे और उनपर उचित प्रायश्चित्त अथवा दंड की व्यवस्था की जाती थी। वर्षावास के अपने नियम थे और उनके अनंतर प्रवारणा नाम का पर्व होता था।
संगीतियाँ और निकाय
संपादित करेंबौद्ध परंपरा के अनुसार परिनिर्वाण के अनंतर ही राजगृह में प्रथम संगीति हुई थी और इस अवसर पर विनय और धर्म का संग्रह किया गया था। इस संगीति की ऐतिहासिकता पर इतिहासकारों में प्रचुर विवाद रहा है किंतु इस विषय की खोज की वर्तमान अवस्था को इस संगीति की ऐतिहासिकता अनुकूल कहना होगा, तथापि यह संदिग्ध रहता है कि इस अवसर पर कौन कौन से संदर्भ संगृहीत हुए। दूसरी संगीति परिनिर्वाण सौ वर्ष पश्चात् वैशाली में हुई जब कि महावंस के अनुसार मगध का राजा कालाशोक था। इस समय सद्धर्म अवंती से वैशाली और मथुरा से कौशांबी तक फैला हुआ था। संगीति वैशाली के भिक्षुओं के द्वारा प्रचारित 10 वस्तुओं के निर्णय के लिए हुई थी। ये 10 वस्तुएँ इस प्रकार थीं - शृंगि-लवण-कल्प, द्वि अंगुल-कल्प, ग्रामांतरकल्प, आवास-कल्प, अनुमत-कल्प, आचीर्ण-कलप, अमंथित-कल्प, जलोगीपान-कल्प, अदशक-कल्प, जातरूप-रजत-कल्प। इन कल्पों को वज्जिपुत्तक भिक्षु विहित मानते थे और उन्होंने आयुष्मान् यश के विरोध का तिरस्कार किया। इसपर यश के प्रयत्न से वैशाली में 700 पूर्वी और पश्चिमी भिक्षुओं की संगीति हुई जिसमें दसों वस्तुओं को विनयविरुद्ध ठहराया गया। दीपवंस के अनुसार वज्जिपुत्तकों ने इस निर्णय को स्वीकार न कर स्थविर अर्हंतों के बिना एक अन्य "महासंगीति" की, यद्यपि यह स्मरणीय है कि इस प्रकार का विवरण किसी विनय में उपलब्ध नहीं होता। कदाचित् दूसरी संगीति के अनंतर किसी समय महासांघिकों का विकास एवं संघभेद का प्रादुर्भाव मानना चाहिए।
दूसरी संगीति से अशोक तक के अंतराल में 18 विभिन्न बौद्ध संप्रदायों का आविर्भाव बताया गया है। इन संप्रदायों के आविर्भाव का क्रम सांप्रदायिक परंपराओं में भिन्न भिन्न रूप से दिया गया है। उदाहरण के लिए दीपवंस के अनुसार पहले महासांधिक पृथक् हुए। उनसे कालांतर में एकब्बोहारिक और गोकुलिक, गोकुलिकों से पंजत्तिवादी, बाहुलिक और चेतियवादी। दूसरी ओर थेरवादियों से महिंसासक और वज्जिपुत्तक निकले। वज्जिपुत्तकों से धम्मुत्तरिय, भद्दयातिक, छन्नगरिक, एवं संमितीय, तथा महिंसासकों से धम्मगुत्तिक, एवं सब्बत्थिवादी, सब्बत्थिवादियों से कस्सपिक, उनसे संकंतिक और संकंतिकों से सुत्तवादी। यह विवरण थेरवादियों की दृष्टि से है। दूसरी ओर सर्वास्तिवादियों की दृष्टि वसुमित्र के समचभेदोपरचनचक्र में संगृहीत है। इसके अनुसार महासांधिक तीन शाखाओं में विभक्त हुए। एकव्यावहारिक, लोकोत्तरवादी एवं कौक्कुलिक। पीछे उनसे बहुश्रुतीय और प्रज्ञप्तिवादियों का आविर्भाव हुआ, तथा बुद्धाब्द के दूसरे शतक के समाप्त होते उनसे चैत्यशैल, अपरशैल और उत्तरशैल शाखाएँ निकलीं। दूसरी ओर स्थविरवादी सर्वास्तिवादी अथवा हेतुवादी, तथा मूलस्थविरवादी निकायों में विभक्त हुए। मूल स्थविर ही हैमवत कहलाए। पीछे सर्वास्तिवादियों से वात्सीपुत्रीय, महीशासक, काश्यपीय, एवं सौत्रांतिकों का आविर्भाव हुआ। वात्सीपुत्रीयों में धर्मोत्तरीय, भद्रयाणीय, सम्मतीय, एवं षण्णगरिक निकाय उत्पन्न हुए, तथा महीशासकों से धर्मगुप्तों का आविर्भाव हुआ। इन और अन्य सूचियों को देखने से इतना निश्चित होता ही है कि कुछ प्रमुख नैकायिक धाराएँ दूसरी बुद्धाब्द शती में प्रकट हुईं। इनमें महासांधिकों के अनुसार बुद्ध और बोधिसत्वों का जन्म सर्वथा लोकोत्तर होता है। बुद्ध का स्वभाव और सब धर्म लोकोत्तर हैं। उनका लोकवत् प्रतीयमान व्यवहार केवल लोकानुवर्तन हैं। उनकी रूपकाय, आयु और प्रभाव अमित हैं। उनकी देह अनास्त्रव धर्मों से निर्मित है। वे शाश्वत समाधि में स्थित रहते हैं और उनके शब्द केवल प्रतीत होते हैं। महासांधिक प्रकृतिभास्वर चित्त को असंस्कृत धर्म मानते थे। त्रिपिटक के अतिरिक्त उनमें संयुक्त पिटक और धारणीपिटक भी विदित थे। यह प्राय: स्वीकार किया जाता है कि महासांधिक धारा ने महायान के आविर्भाव में विशेष भाग ग्रहण किया। महासांधिकों का आग्रह एक ओर बुद्ध और बोधिसत्व की अलौकिकता पर था, दूसरी ओर अर्हतों की परिहाणीयता पर। उनकी एक शाखा का नाम ही लोकोत्तरवादी था और इनका एक प्रमुख ग्रंथ "महावस्तु" सुविदित महासांधिक, वात्सीपुत्रीय, सर्वस्तिवादी एवं स्थविरवादी, ये चार प्रमुखतम निकाय थे। युवान् च्वांग ने इनके विहार बामियाँ में पाए थे और तारानाथ ने उनकी पाल युग में सत्ता सूचित की है। आँध्रदेश में महासांधिकों का विशेष विकास हुआ। अमरावती और नागार्जुनीकोण्ड के अभिलेखों में उनके "चैत्यक", "पूर्वशैलीय", "अपरशैलीय" आदि निकायों के नाम मिलते हैं। महासांघिकों के इन प्रभेदों को बुद्धघोष ने भी "अंधक" अथवा अंध्रक कहा है।
वात्सीपुत्रीयों की कई शाखाओं के नाम मथुरा और अपरांत के अभिलेखों में उपलब्ध होते हैं। युवान् च्वांग ने उनके विहार प्रधानतया पश्चिम में देखे थे और इत्सिग के विवरण से इसका समर्थन होता है। इनकी सर्वाधिक प्रसिद्ध शाखा सम्मितीयों की थी। वात्सीपुत्रीयों का मुख्य सिद्धांत पुद्गलवाद था। उनका कहना था कि पुद्गल न स्कंधों से भिन्न है न अभिन्न। आगम के प्रसिद्ध भारहार सूत्र का इस संप्रदाय में विशेष आदर था। कथावस्तु में सर्वप्रथम पुद्गलवाद का खंडन मिलता है और यह विचारपूर्वक प्रतिपादित किया गया है कि यह प्रथम पुद्गलकथा निस्संदेह कथावत्थु के प्राचीनतम अंशों में है।
परंपरा के अनुसार कथावत्थु की रचना मोग्गलिपुत्त तिस्स ने अशोककालीन तृतीय बौद्ध संगीति के अवसर पर की थी। सिंहली परंपरा अपने को मूल और प्रामाणिक स्थविरवाद की परंपरा मानती है जिसे अशोक के प्रयत्नों ने सिंहल तक पहुँचाकर प्रतिष्ठित किया। इस परंपरा के अनुसार अशोक ने अपने समय में संघ की दुरवस्था देखकर मोग्गलिपुत्त तिस्स की प्रमुखता में पाटलिपुत्र में एक संगीति का आयोजन किया जिसमें स्थविरवाद (विभज्यवाद) की स्थापना हुई तथा अन्य विरोधी मतों का खंडन किया गया। संघ से उन भिक्षुओं का भी निष्कासन हुआ जिनकी दृष्टि एवं शीत अशुद्ध थे। इस प्रकार अशोक के प्रयत्नों से संघ पुन: शुद्ध एवं समग्र हुआ। परंपरा के अनुसार अशोक ने धर्मप्रचार के लिए नाना विहार, एवं स्तूप बनवाए। साथ ही मोग्गलिपुत्त के नेतृत्व में संघ ने नाना दिशाओं में धर्म के प्रचार के लिए विशेष व्यक्तियों को भेजा। कश्मीर गंधार के लिए मज्झंतिक भेजे गए, महिषमंडल के लिए महादेव, वनवासी के लिए रक्खित, अपरांत के लिए योनक धम्मरक्खित, महारट्ठ के लिए महाधम्मरक्खित, यवनों में महारक्खित, हिमवत्प्रदेश में मज्झिम, काश्यपगोत्र, मूलदेव, सहदेव और दुंदुभिस्सर, सुवण्णभूमि में सोण और उत्तर, ताम्रपर्णी में महेंद्र, "इठ्ठिय", उत्तिय, संबल और भद्दसाल। यह उल्लेखनीय है कि साँची और सोनारी के स्तूपों से प्राप्त अभिलेखों में "सत्पुरुष मौद्गलीपुत्र", हैमवत दुंदुभिस्वर, सत्पुरुष मध्यम, एवं "सर्वहैमवताचार्य काश्यपगोत्र" के नाम उपलब्ध होते हैं जिससे इस इस साहित्यिक परंपरा का समर्थन होता है। दूसरी ओर अशोक के अपने अभिलेखों में तृतीय संगीति का स्पष्ट उल्लेख प्राप्त नहीं होता। अशोक जिस धर्म के प्रचार का सतत उल्लेख करता है उसे बौद्ध धर्म मानना भी सरल नहीं है। अशोक का धर्म आपातत: सब धर्मों का सार ही प्रतीत होता हे। इस कारण इतिहासकारों की यह प्रापित उक्ति कि अशोक के प्रयत्नों से मगध का एक स्थानीय धर्म विश्व धर्म बन गया, अयुक्त प्रतीत होती है। बौद्ध धर्म का प्रसार मूलत: स्वयं संघ के प्रयत्नों का परिणाम था, यद्यपि इस प्रक्रिया में एकाधिक महान शासकों ने उचित योगदान दिया।
पालि त्रिपिटक सिंहल में राजा वट्टगामणि के सय प्रथम शताब्दी ई.पू. में लिपिबद्ध किया गया। परंपरा के अनुसार महेंद्र अपने साथ अट्टकथाएँ भी लाए थे और ये भी इसी समय लिखी गई। ये सिंहली भाषा में कई शताब्दियों तक उपलब्ध थीं और उन्हें के आधार पर बुद्धघोष ने अपनी प्रसिद्ध पालि अट्टकथाएँ लिखीं। स्थविरवादी अभिधर्म और आचार्यों के अनुसार सत्य धर्मात्मक है। धर्म नाना और पृथक् पृथक् हैं। प्रत्येक अपने प्रतिविशिष्ट स्वभाव को धारण करता है और हेतु प्रत्यय से धारित होता है। आचार्य अनिरुद्ध के अनुसार रूप, चित्त, चैत्त और निर्वाण, ये चार धर्मों के मुख्य प्रकार हैं। चैत्त धर्मों में वेदना, संज्ञा एवं संस्कार संगृहीत हैं। इस प्रकार यह विभाजन प्राचीन पंच स्कंध और असंस्कृत का ही परिष्कृत रूप है। संस्कार स्कंध का विशेष विस्तार किया गया। चित्ता का अकुशल, कुशल और अव्याकृत, यह त्रिविधि मौलिक विभाजन किया गया। लोभ, द्वेष और मोह अकुशल मूल हैं। कुशल चित्त चतुर्विध है - कामावचर रूपावचर अरूपावचर और लोकोत्तर। अव्याकृत चित्त द्विविध है विपाक और क्रिया। धम्मसंगणि में कुल 89 प्रकार चितों का विवरण है। पट्ठानप्पकरण में धर्मों का कार्य-कारण-भाव की दृष्टि से अभिसंबंध आलोचित किया गया है और 24 प्रकार के पच्चयों (प्रत्ययों) का विवरण दिया गया है। यदि यह विश्लेषण ज्ञान मीमांसा और तक्र की दृष्टि से महत्वपूर्णं है तो मनोविज्ञान की दृष्टि से वीथिचित्त आदि का विश्लेषण एक अपूर्व गंभीरता और सूक्ष्मता प्रकट करता है। इस प्रकार के विश्लेषण में चित्त की प्रक्रियाओं का नियत अवस्थाक्रम प्रदर्शित किया गया है। जिस प्रकार अशोक और तृतीय संगीति स्थविरवाद के इतिहास के महत्वपूर्णं अंग हैं, इसी प्रकार कनिष्क और चतुर्थ संगीति सर्वास्तिवाद के इतिहास में महत्वपूर्ण हैं। अशोक और मिलिंद (मेनैडर) के तुल्य ही कनिष्क का नाम बौद्ध इतिहास में जाज्वल्यमान है। इस चतुर्थ संगीति के अध्यक्ष पार्श्व थे जो कनिष्क द्वारा स्थापित पुरुषपुर के आश्चर्य महाविहार के थे। संगीति का स्थान कश्मीर का कुँडलवन बिहार अथवा जालंधर का कुवन बताया गया है। इस संगीति में पार्श्वं के साथ 500 अर्हत् और वसुमित्र के साथ 500 बोधिसत्वें का भागग्रहण कहा गया है। किंतु बोधिसत्वों का इस प्रसंग में उल्लेख अधिक विश्वास्य नहीं प्रतीत होता। तृतीय संगीति के विरुद्ध इस संगीति में सभी अष्टादश निकायों की प्रामाणिकता का स्वीकार बताया गया है। संगीति का सबसे महत्वपूर्ण और स्थायी कार्य "अभिधर्म महा विभाषा" की रचना थी।
सर्वास्तिवादियों के दो भेद प्रसिद्ध हैं - वैभाषिक और सौत्रांतिक। विभाषा के अनुयायी वैभाषिक कहलाते थे। धर्मत्रात, घोषक, वसुमित्र एवं बुद्धदेव वैभाषिक कहलाते थे। इनमें घोषक तुषारजातीय थे। यह उल्लेख है कि वैभाषिक जिनका केंद्र गंधार में था। सर्वास्तिवाद का मंथन कर आचार्य वसुबंधु ने अपना जगत्प्रसिद्ध "अभिधर्मकोश" रचा। वसुबंधु का कालनिर्णय प्रचुर विवाद का विषय रहा है। दो वसुबंधुओं की सत्ता को अब सिद्ध मानना चाहिए किंतु यह सिद्ध नहीं है कि इनमें एक महायानी आचार्य विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि का रचयिता था और दूसरा कोश का। मुख्य वसुबंधु को पाँचवीं शताब्दी में रखना ही प्रमाणसंगत प्रतीत होता है।
सर्वास्तिवादियों का मुख्य सिद्धांत था "सर्वमस्ति"। वैभाषिकों के अनुसार इसका अर्थ था सब धर्मों की त्रैयध्विक सत्ता का स्वीकार। अर्थात् अतीत और अनागत धर्मों के अस्तित्व का अभ्युपगम। आपातत: यह मत सांख्यों के परिणामवाद एवं प्रवाहनित्यता के सिद्धांत सदृश है। किंतु वैभाषिक संस्कृत लक्षणों के स्वीकार से शाश्वत प्रसंग का निवारण करते थे। संस्कृत लक्षण चार हैं - उत्पाद, स्थिति, व्यय, एवं निरोध या अनित्यता। य आपातत: विरुद्ध होने पर भी वस्तुत: सहकारी हैं। त्रैयध्विक द्रव्य सत्ता के साथ अध्व भेद स्थापित करने के लिए अनेक मत उद्भावित किए गए जिनमें वसुमित्र के अवस्थान्यथात्व का वसुबंधु ने शोभन कहा है। वैभाषिकों के विरुद्ध सौत्रातिकों का कहना था कि "सर्व" शब्द से "द्वादशायतन" समझना चाहिए।
वैभाषिक संस्कृत धर्मों में रूप, चित्त, चैत्त और चित्तविप्रयुक्त संस्कार गिनते थे। इनके अतिरिक्त वे तीन असंस्कृत धर्म स्वीकार करते थे, आकाश, प्रतिसंख्यानिरोध, अप्रतिसंख्यानिरोध। इन सब धर्मों के कार्य-कारण-भाव के विश्लेषण के द्वारा चार प्रत्यय, छह हेतु एवं पाँच फल निर्धारित किए गए।
यशोमित्र ने सौत्रांतिकों के नामार्थ पर कहा है "ये सूत्रप्रामाणिका न तु शास्त्रप्रामाणिकास्ते सौत्रांतिका:।" युवान्-च्वांग ने कुमारलब्ध (कुमारलात) को सौत्रांतिक संप्रदाय का प्रवर्तक बताया है। कुमारलब्ध तक्षशिलावासी थे और अश्वघोष, नागार्जुन एवं आर्यदेव के समकालीन प्रसिद्ध हैं। भारतीय दर्शन के विकास में सौत्रांतिकों की सूक्ष्म समीक्षा अत्यंत सहायक सिद्ध हुई। वैभाषिकों के द्वारा स्वीकृत पंचधर्मों में सौत्रांतिक असंस्कृत को निरोधमात्र एवं चित्तविप्रयुक्त को प्रज्ञप्तिमात्र मानते थे। रूप उनके मत से अनुमेय हो जाता है। इस प्रकार चित्त और चैत्त ही निश्चित और प्रमुख तत्व हो जाते हैं। वे एक सूक्ष्म और एकरस मनोविज्ञान की सत्ता मानते थे। इस प्रकार सौत्रांतिकों के सिद्धांतों ने विज्ञानवाद एवं बौद्ध न्याय, दोनों का ही मार्ग प्रशस्त किया।
महायान
संपादित करेंहीनयान और महायान, इनका इस प्रकार नामकरण एवं भेद महायान की कल्पना है। हीनयान को श्रावकयान भी कहा गया है, महायान को एकयान अग्रयान, बोधिसत्वयान एवं बुद्धयान भी। यानभेद महायानसूत्रों में आविर्भूत और महायान-शास्त्रों में सविस्तर प्रतिपादित हुआ है। नागार्जुन के अनुसार बुद्ध ने अपनी वास्तविक देश्ना अधिकारी बोधिसत्वों को दी थी, उनकी प्रकट देशना न्यून अधिकारियों के लिए अर्हद्विषयक थी। इस प्रकार यानभेद का आधार अधिकारभेद एवं लक्ष्यभेद था। महायान के सिद्धांत-पक्ष में बुद्धत्व, शून्यता एवं चित्तमात्रता प्रधान हैं, साधन पक्ष में बोधिसत्वचर्या जिसमें पारमिताएँ और भूमियाँ महत्वपूर्ण हैं।
हीनयानी का लक्ष्य केवल अपने लिए अर्हत्व की प्राप्ति है। महायानी का लक्ष्य सब प्राणियों के उद्धार के लिए बुद्धत्व की प्राप्ति है। यही महायान की लक्ष्यगत महत्ता है और इसके अनुकूल प्रणिधान की योग्यता ही महायानी का उच्चाधिकार है। पुद्गलशून्यता के बोध से क्लेशावरण का क्षय हो जाता है और इस प्रकार अर्हत्व प्राप्त होता है। किंतु इस साधन से ज्ञेयावरण के न हटने के कारण सर्वज्ञता अथवा बुद्धत्व की प्राप्ति नहीं होती। बुद्धत्व के लिए सर्वप्रथम अशेष प्राणियों के कल्याण के लिए बोधिप्राप्ति का संकल्प आवश्यक है। इस बोधिचित्त प्रणिधान के अनंतर नाना भूमियों में पारमिताओं का साधन किया जाता है। अंत में धर्मशून्यता के बोध से बुद्धत्व की प्राप्ति होती है।
महायान में बोधिसत्वचर्या की तीन मुख्य अवस्थाएँ हैं जिनमें पहली प्रकृतिचर्या द्विविध है, गोत्रभूमि एवं अधिमुक्तिचर्या। गोत्र वास्तव में एक प्रकार का स्वभाव एवं आध्यात्मिक प्रवृत्ति है जिसका पूर्वकर्म के प्रभाव से निर्माण होता है। यही प्रकारांतर से "अधिकार" का मूल है। दूसरी अवस्था बोधिसत्व भूमियों की है (दे. दशभूमीश्वर)।
महायान की उत्पत्ति के कारण, ऐतिहासिक क्रम एवं देश काल के विषय में ऐकमत्य नहीं है। महायानियों ने अपनी दृष्टि की प्रामाणिकता एवं मूल संलग्नता के पक्ष में अनेक युक्तियाँ दी हैं। उनका कहना है कि वास्तविक बुद्ध देशना का लक्षण, जो विनय और सूत्र में उपलब्ध हो तथा धर्मता के अविरुद्ध हो, महायान में ही है। यहाँ वे "विनय" और "सूत्र" से महायानिक आगम को ही लेते थे। इस मत के विरोधी - और इनमें अधिकांश आधुनिक इतिहासकार सम्मिलित हैं - महायानिक आगम को बुद्धवचन नहीं मान पाते क्योंकि उनकी उपलब्धि बुद्ध के युग के बहुत बाद में होती है। किंतु सूक्ष्म परीक्षा से यह दिखलाया जा सकता है कि कुछ प्रधान महायानिक सिद्धांत बीज रूप से प्राचीन आगमों में भी संकेतित हैं। और फिर बुद्धवचन का अभिप्राय समझने में धर्मता का आनुलोम्य उपेक्ष्य नहीं हो सकता और महायान के पक्ष में कहना होगा कि उसने बुद्ध के अपने जीवन और साधन को सबके लिए आदर्शं बता कर अपना एक अनिवार्य मूल प्रकट किया है। सैद्धांतिक विस्तार और अभिधान की दृष्टि से वास्तव में बुद्ध देशना को पूर्णत: "हीनयान" अथवा "महायान" कह सकना कठिन है। अवश्य ही "हीनयान" का विकास पहले हुआ किंतु उसके कुछ प्राचीन संप्रदायों में ऐसे सिद्धांत एवं प्रवृत्तियाँ थीं जो क्रमश: विकसित होकर महायान में परिणत हुईं। इनमें महासांघिक और सर्वास्तिवादी संप्रदाय उल्लेख्य हैं।
महायान के उत्पत्ति स्थल के विषय में अष्टसाहस्त्रिका की प्रसिद्ध उक्ति महासांघिकों के आंध्र केंद्र की ओर संकेत करती है। ई. शताब्दी के मध्य तक प्रज्ञापारमिता का चीनी अनुवाद, एवं प्राय: उस समय तक उसपर नागार्जुन का विशाल प्रज्ञापारमिताशास्त्र निबद्ध हो चुके थे। सुदूर पूर्व तक यह प्रसार और इतना शास्त्रीय विकास महायान की उत्पत्ति संभवत: ई.पू. प्रथम शताब्दी में सूचित करता है। महायान-सूत्र-राशि कितनी विशाल है इसका अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि महाव्युत्पत्ति में 105 सूत्रों के नाम दिए गए हैं, शिक्षासमुच्चय में प्राय: 100 सूत्रग्रंथों से उद्धरण प्राप्त होते हैं, नंजियों के चीनी त्रिपिटक में सात वर्गों में विभक्त 541 महायानसूत्रों का उल्लेख है। अधिकांश महायान साहित्य अपने मूल रूप में लुप्त हो चुका है तथापि आधुनिक खोज ने अनेक महत्वपूर्ण सूत्रों को प्रकाशित किया है। इसमें अष्टसाहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता, सद्धर्मपुंडरीक, ललितविस्तर, लंकावतार, सुवर्णप्रभास, गंडव्यूह, समाधिराज, सुखावतीव्यूह, कारंडव्यूह, आदि विशेष रूप से उल्लेख्य हैं। उनमें अष्टसाहस्त्रिका संभवत: प्राचीनतम है और माहायानिक शून्यता का प्रतिपादन करती है। सद्धर्मपुंडरीक में बुद्ध का ऐश्वर्य, उपायकौशल से यान-भेद एवं बुद्ध-भक्ति का प्रतिपादन मिलता है। लंकावतार योगाचार की दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण है।
महायान का शास्त्रीय रूप एवं प्रचार सर्वाधिक ऋणी आचार्य नागार्जुन का है। उनके विषय में नाना ऐतिहासिक विवाद हैं किंतु यह निश्चित है कि वे दाक्षिणात्य थे एवं एक प्रसिद्ध राजा के समकालीन थे जो संभवत: ई. दूसरी शताब्दी का था। उनके अनेक प्रसिद्ध ग्रंथों में माध्यमिक कारिकाएँ मूर्धन्य हैं। इसमें शून्यता को प्रतीत्यसमुत्पाद और माध्यम प्रतिपद् से अभिन्न बताया गया है। धर्मों की परतंत्रता और परापेक्षता ही उनकी निस्स्वभावता का द्योतन करती है। यह निस्स्वभावता न भाररूप है, न अभावरूप। शून्यवाद परमार्थ की निर्विकल्पता और अनिर्वचनीयता सूचित करता है। इस मत की स्थापना केवल एक मत के प्रतिषेध के द्वारा की जा सकती है। नागार्जुन इसका विस्तारश: प्रतिपादन करते हैं कि किसी भी वस्तु की सत्यता स्वीकार करने पर अपरिहार्य रूप से विरोध प्रसक्त होता है। इस तर्क प्रणाली को प्रसंगापादन या प्रासंगिक कहते हैं। नागार्जुन के अनंतर शून्यवाद के प्रमुख प्रतिपादकों में आर्यदेव, भावविवेक, बुद्धपालित एवं चंद्रकीर्ति के नाम उल्लेखनीय हैं।
योगाचार और विज्ञानवाद को प्राय: समानार्थक माना जाता है। यह कहना अधिक सही होगा कि महायान सूत्रों में एवं मैत्रेयनाथ एवं असंग की कृतियों में योगाचार एक आध्यात्मिक दर्शन के रूप में प्रकट होता है। वसुबंधु एवं परवर्ती आचार्यों के दार्शनिक प्रतिपादनों में इसे विज्ञानवाद की आस्था का समुचित विषय मानना चाहिए। योगाचार के मूल सूत्रों में संधिनिर्मोंचन, लंकावतार एवं घनव्यूह उल्लेख्य हैं। इनमें जगत् को स्वप्नवत् विज्ञानधारा में अध्यस्त माना गया है। इनमें पहले सात प्रवृत्तिविज्ञान है जिनका आलयविज्ञान से तरंग और सागर सा संबंध है क्योंकि आलय में प्रवृत्ति के बीज एवं संस्कार संनिहित रहते हैं।
मैत्रेयनाथ को अब प्राय: ऐतिहासिक महापुरुष स्वीकार किया जाता है। तारानाथ और बुदोन के अनुसार असंग ने मैत्रेय से पाँच शास्त्र प्राप्त किए - अभिसमयालंकार, सूत्रालंकार, मध्यांतविभंग, धर्मधर्मताविभंग एवं महायानोत्तरतंत्र। इनमें से पहले दो प्रसिद्ध ग्रंथों में बोधिसत्वचर्या के रूप में योगाचार की पद्धति एवं अवस्थाओं का सविस्तार विवरण है। असंग पुरुषपुर के एक ब्राह्मण परिवार में उत्पन्न हुए थे और वसुबंधु के अग्रज थे। उनके ग्रंथों में योगाचारभूमिशास्त्र सबसे प्रसिद्ध हैं। कहा जाता है कि असंग के प्रयत्नों से वसुबंधु ने महायान स्वीकार किया। परमार्थ एवं युवान् च्वांग की गणना से एवं विक्रमादित्य एंव बालादित्य के समकालीन होने से वसुबंधु का समय पाँचवीं शताब्दी ही स्थिर होता है। वसुबंधु ने विज्ञानवाद को शुद्ध तर्कभूमि में उपनीत किया। दिंनाग ने इस न्यायानुसारिता को आगे बढ़ाकर बौद्ध न्याय को सुव्यवस्थित रूप प्रदान किया। न्यायदर्शन के आचार्यों से शास्त्रार्थ के प्रसंग में बौद्ध न्याय की अपूर्व प्रगति हुई तथा वह धर्मकीर्ति की कृतियों में अपने सर्वोच्च शिखर को प्राप्त हुआ। धर्मकीर्ति को "भारतीय कांट" कहा गया है।
जहाँ एक ओर बौद्ध न्याय एवं न्यायानुसारी दर्शन का विकास हो रहा था, वहाँ दूसरी ओर बौद्धों में तंत्र शास्त्र की प्रगति भी निश्चित प्रकाश में आई। बौद्ध तांत्रिक परंपरा के अनुसार तथागत ने धान्यकटक में वज्रयान के लिए तृतीय धर्म चक्र प्रवर्तन किया था। धान्यकटक के उल्लेख से सूचित होता है कि बज्रयान का मूल भी महासांधिकों में ही खोजना चाहिए। इस प्रसंग में उनके रूप और रूपकाय विषयक मत, धारणीपिटक का स्वीकार, एवं वैतुल्यकों के द्वारा आभिप्रायिक मिथुनचर्या का स्वीकार लक्षणीय है। असंग की कृतियों में परावृत्ति एवं अभिसंधि के सिद्धांत स्पष्टत: तांत्रिक प्रतीत होते हैं। प्राचीनतम उपलब्ध तंत्र मंजुश्रीम्लकल्प एवं गुह्यसमाज है। तारानाथ के अनुसार 300 वर्ष तक गुप्त रहकर तांत्रिक परंपरा प्रकाश में आई और धर्मकीर्ति के पश्चात, विशेष रूप से पाल युग में, उसका अधिकाधिक प्रचार हुआ।
अद्वयवज्र के अनुसार महायान के दो प्रभेद हैं - पारमितानय और मंत्रनय। इनमें मंत्रनय की व्याख्या योगाचार और माध्यमिक स्थिति से होती है। मंत्रनय ही बौद्ध तंत्र अथवा वज्रयान का प्राण है। वज्रयान में प्रज्ञा एवं उपाय की युगनद्ध सत्ता को ही परमार्थ मानते हैं। इन्हीं प्रज्ञा और उपाय को वज्र और पद्म भी कहते हैं। प्रकारांतर से यही तथागत का स्वरूप है और कार्य वाक्चित्त वज्रधर कहा गया है जिनसे पंचस्कंधों के अधिष्ठाता पाँच "ध्यानी" बुद्ध निस्सृत होते हैं। इन बुद्धों के साथ उनकी "शक्तियाँ" एवं बोधिसत्व मिलकर "कुल" निष्पन्न होते हैं जिनके व्यवस्थापन से "तथागत मंडल" बनता है। बोधिचित्त के उत्पादन के अनंतर मंडल में अद्वैतभावना से शक्ति सहचरित उपासना ही तांत्रिक उपासना है।
बौद्ध धर्म का ह्रास
संपादित करेंफाहियान (399-414), सुंग युन (418-21), युवान्-च्वांग, (629-45), इत्सिंग (671-95) व्ही-चू (726-29) और इ-कुंग (751-90) के विवरणों से बौद्ध धर्म के मध्य एशिया और भारत में क्रमिक ह्रास की सूचना मिलती है, जिसकी अन्य साहित्यिक और पुरातात्विक साक्ष्य से पुष्टि होती है। साक्षीय है कि अनेक बौद्ध सूत्रों में सद्धर्म की अवधि 500 अथवा 1000 अथवा 1500 वर्ष बताई गई है। कपिलवस्तु श्रावस्ती, गया एवं वैशाली में ह्रास गुप्त युग में ही लक्ष्य था। गंधार और उड्डियान में हूणों के कारण सद्धर्म की क्षति हुई प्रतीत होती है। युवान् च्वांग ने पूर्वी दक्षिणापथ में बौद्ध धर्म को लुप्तप्राय देखा। इ-त्सिंग ने अपने समय में केवल चार संप्रदायों को भारत में प्रचारित पाया-महासांघिक, स्थविर, मूलसर्वास्तिवादी एवं सम्मतीय। विहारों में हीनयानी और महामानी मिले जुले थे। सिंध में बौद्ध धर्म अरब शासन के युग में क्रमश: क्षीण और लुप्त हुआ। गंधार और उड्डियान में वज्रयान और मंत्रयान के प्रभाव से बौद्ध धर्म का आठवीं शताब्दी में कुछ उज्जीवन ज्ञात होता है किंतु अलबेरूनी के समय तक तुर्की प्रभाव से वह ज्योति लुप्त हो गई थी। कश्मीर में उसका लोप वहाँ भी इसलाम के प्रभुत्व की स्थापना से ही मानना चाहिए। पश्चिमी एवं मध्य भारत में बौद्ध धर्म का लोप राजकीय उपेक्षा एवं ब्राह्मण तथा जैन धर्मों के प्रसार के कारण प्रतीत होता है। मध्यप्रदेश में गुप्तकाल से ही क्रमिक ह्रास देखा जा सकता है जिसका कारण राजकीय पोषण का अभाव ही प्रतीत होता है। मगध और पूर्व देश में परम सौगत पाल नरेशों की छत्रछाया में बौद्ध धर्म और उसके शिक्षाकेंद्र नालंदा, विक्रमशिला, ओदंतपुरी अपनी ख्याति के चरम शिखर पर पहुँचे। इस प्रदेश में सद्धर्म का ह्रास तुर्की विजय के कारण हुआ। यह स्पष्ट है कि बौद्ध धर्म के ह्रास का मुख्य कारण उसका अपने को लौकिक सामाजिक जीवन का अनिवार्य अंग न बना सकना था। इस कारण ऐसा प्रतीत होता है कि राजकीय उपेक्षा अथवा विरोध से विहारों के संकटग्रस्त होने पर उपासकों में सद्धर्म अनायास लुप्त होने लगता था। यह स्मरणीय है कि उदयनाचार्य के अनुसार ऐसा कोई संप्रदाय न था कि सांवृत्त कहकर भी वैदिक क्रियाओं के अनुष्ठान को स्वीकार न करता हो। उपासकों के लिए बौद्ध धर्म केवल शील अथवा ऐसी भक्ति के रूप में था जिसे ब्राह्मण धर्म से मूलत: पृथक् कर सकना जनता के लिए उतना ही कठिन था जितना शून्यता एवं नैरात्म्य के सिद्धांतों को समझ सकना। कदाचित् आजकल की कर्मकाडविमुख एवं बुद्धिवादिनी जनता के लिए शील, प्रज्ञा एवं समाधि का धर्म पहले की अपेक्षा अधिक उपयुक्त हो।
सन्दर्भ ग्रन्थ
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पालि त्रिपिटक, 40 जि. (देवनागरी में नालंदा संस्करण), रोजोनबर्ग, दि प्रॉब्लेम देर बुद्धिस्तिशेन फिलॉसफी (1924); मिसेज राइज़ डिविड्स, व्हाट वाज़ दि ओरिजिनल गॉस्पेल इन बुद्धिज़्म; टी.डब्बू. राइज़ डेविड्स, हिब्बर्ट लेक्चर्स, अमेरिकन लेक्चर्स; विधुशेखर भट्टाचार्य, बेसिक कंसेप्शन ऑव बुद्धिज़्म; पांडेय बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास; पा चाउ, कंपेरेटिव स्टडी ऑव दि प्रातिमोक्ष; फ्राउवाल्नर, दि अर्लियेस्ट विनय ऐंड दि बिगिनिंग्स ऑव बुद्धिस्ट लिटरेचर; अकानुमा, दि कंपेरेटिव कैटेलॉग ऑव चाइनीज आगमज ऐंड पालि निकायज़; गाइगर, धम्म उन्द ब्रह्म, कुमारस्वामी : हिन्दुइज्म ऐन्ड बुद्धिज्म; राधाकृष्णन्, इन्डियन फिलॉसॉफी; जि. 1, टामस, दि हिस्ट्री ऑव बुद्धिस्ट थॉट; कौंज, बुद्धिस्ट थॉट इन इंडिया; वासिलियेफ़, देर बुद्धिस्मस; कर्न, लिस्त्वार दु बुद्धिज्म, पूसें, वे टफु निर्वाण, ल दोग्म ए ला फिलॉसफ़ी दु बुद्धिज्म, बुद्धिज्म ओपिनियों सुर लिस्त्वार दला दौगमातीक, श्रादेर, जे.पी.टी.एस., 1904-5।
कथावत्थु (सं. जगदीश कश्यप); कथावत्थु-अट्टकथा (सं. मीनयेव) मसुदा, ओरिजिन ऐन्ड डॉक्ट्रिन्स ऑव दि अर्ली इंडियन बुद्धिस्ट स्कूल्स (समयभेदोपरचनचक्र); दीपवंस (सं. ओल्दनबर्ग); महावंस (सं. गोंइगर); विसुद्धिमग्गो (सं. कोसंबि), अभिधम्मत्थसंगहो (सं. कोसंबि), अभिधर्मकोश (फ्रेंच अनुवाद पूसें द्वारा, जिसका आचार्य नरेंद्रदेव के द्वारा हिंदी अनुवाद अंशत: प्रकाशित हुआ है), यशोमित्र, अभिधर्मकोशव्याख्या (सं. वोगिहारा), सुकुमार द्रत्त, फ़ाइव हंड्रेड ईयर्स ऑव बुद्धिज़्म, नलिनाक्ष दत्त, अर्ली मोनैस्टिक बुद्धिज़्म, जि. 2, वालेज़ेर, दी सेक्तेन देस आल्तेन बुद्धिस्मस, बारो, ले सेक्त बुद्धीक दु पेति वेहिकूल, लामोत, इस्त्वार दु बुद्धिज्म आन्द्यां, ओबर मिलर (अनु.) बुदोन कृत सद्धर्म का इतिहास, शीफनर (अनु.) तारानाथ का भारत में सद्धर्म का इतिहास लेगी अनु. फ़ाहियान (फ़ाश्येन) का यात्रा विवरण, वाटर्स (अनु.) युवान्च्वांग यात्राविवरण, जगदीश कश्यप, दि फिलॉसफी ऑव अभिधम्म, मिसेज़ राइज़ डेविड्स, दि बर्थ ऑव इन्डियन साइकालॉजी ऐंड इट्स डेवलपमेंट इन बुद्धिज़्म, सोगेन, सिस्टम्ज ऑव बुद्धिस्ट थॉट, गुन्थर, फिलॉसफी ऐन्ड साइकोलॉजी इन दि अभिधर्म, ससाकि, स्टडी ऑव अभिधर्म फिलॉसफी।
अष्टसाहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता (सं. राजेंद्रलाल मित्र), लंकावतारसूत्र (सं. नैजियो), सद्धर्मपुंडरीक (सं.दत्त), मध्यमकवृत्ति (सं. पूसें), सूत्रालंकार (सं.लेवि), विंशिका एवं तिं्रशिका (सं.लेवि) प्रमाणवार्तिक (सं.नोलि, सं. सांकृत्यायन), शिक्षासमुच्चय, बोधिचर्यावतार (बिब्लियोथिका इंडिका), तत्वसंग्रह (सं. कृष्णमाचार्य), गुह्यसमाज (सं. भट्टाचार्य), हेवतंत्र (सं. स्नेलग्रोव), नैन्जियो, कैटलाग ऑव दि चाइनीज ट्रांसलेशन ऑव दि बुद्धिस्ट त्रिपिटक (ऑक्सफर्ड, 1883) नलिनाक्ष दत्त, ऐधेक्ट्स ऑव महायान, सुजुकि, आउट लाइन्स ऑव महायान, स्टडीज इन दि लंकावतार सूत्र, हरदयाल, बोधिसत्व डॉक्ट्रिन, श्चरवात्स्की, दि कन्सेप्शन ऑव बुद्जिस्ट निर्वाण, बुद्धिस्ट लॉजिक, मुकर्जी दि बुद्धिस्ट फ़िलॉसॉफ़ी ऑव यूनिवर्सल फ्ल्क्स, मेक्गवर्न, इंट्रोडक्शन टु महायान बुद्धिज़्म, मैन्युएल ऑव बुद्धिस्ट फिलॉसफ़ी, आचार्य नरेंद्रदेव, बौद्ध धर्म दर्शन।
हरप्रसद शास्त्री बौद्ध गान ओ दोहा, बागची, दोहा कोश, सांकृत्यायन, दोहा कोश, तकाकुसु (अनु.), इ चिंग का भारत और मलय प्रायद्वीप में सद्धर्म का विवरण, तारानाथ (अनु. शीफनर) पूर्वोक्त, विद्याभूषण, हिस्ट्री ऑव दि मेडिइवल स्कूल ऑव इंडियन लॉजिक, मजुमदार (सं.) हिस्ट्री ऑव बंगाल, जि. 1, मित्र, डिक्लाइन ऑव बुद्धिज़्म इन इंडिया।