अगस्त 2019 में प्रकाशित संजय चौबे के इस उपन्यास के संबंध में हिन्दुस्तान ने इसे ‘तरतीब से बेतरतीब’ कहा. हिन्दुस्तान ने 3 नवंबर 2019 को इसके संबंध में लिखा –

“कभी-कभी बेतरतीब जिंदगी भी खूबसूरत हो जाया करती है. बस, उसमें एक तरतीब होनी चाहिए. उसमें भी कशिश होती है. सपनों का मायावी जंगल होता है. सपने हों तो दहशत और प्यार की गुंजाइश बराबर बनी रहती है. लेकिन प्यार के बीच संदेह जीवन को कितना बदरंग बना सकता है, यह इस उपन्यास को पढ़ते हुए महसूस किया जा सकता है.”

बेतरतीब पन्ने का लोकेल बिहार, यूपी, मध्यप्रदेश से लेकर कश्मीर तक फैला हुआ है. इसमें कश्मीर की वादी-ए-लोलाब की खुबसूरती व दर्द का जिक्र तो है लेकिन इसकी मुख्य जमीन लखनऊ ही है जहाँ उपन्यास का नायक रहता है, सीबीआई के पूछताछ का सामना करता है; उस लड़की से यहीं मिलता है जिसके लिए बचपन से एक रूमानी अहसास लिए फिर रहा होता है, कैंट के एम बी क्लब में कुर्बानी व शहादत के नए मतलब बताता है. कैंट लखनऊ से होकर गुजरने वाली महात्मा गाँधी मार्ग के किनारे एक पेट्रोल पंप पर लगने वाली ‘इंटेलेक्चुअल्स बैठकी’ लखनऊ की तहज़ीब के दर्शन कराता है. भले ही उपन्यास के सारे किरदार बाहर से आकर यहाँ बसे हैं उनके ऊपर अवध की नजाकत, नफासत और शराफत साफ़ झलकती है. ‘पहले आप–पहले आप’ की लखनवी तहजीब इन किरदारों के लिए महज औपचारिकता न रहकर भरोसे व विश्वास के लिए मर-मिटना हो जाता है.

दैनिक जागरण ने इसे लखनऊ में खुलते ‘बेतरतीब पन्ने’ कहा है. उपन्यास कश्मीर व जातिवाद के दर्द को उजागर करता ही लेकिन इसके केंद्र में है – निधि ठाकुर. निधि ठाकुर बचपन से ही हालात की मार खाती वह लड़की है, दुर्भाग्य जिसका पीछा अंत तक नहीं छोड़ता. सामानांतर रूप से उपन्यास में निधि की प्रेम कहानी भी चलती है. इस उपन्यास की एक पंच लाइन है जो दिलोदिमाग को झकझोरती है –

“... और इज्जत भी कमाल की चीज है !

उसके छोड़ जाने मात्र से लुट जाएगी, यह मालूम नहीं था.”