साहित्य और शौर्य की सांस्कृतिक परंपरा वाला बैसवारा क्षेत्र एक राजनैतिक इकाई के रूप में अपनी पुरानी पहचान वापस पाने के लिए प्रयासरत है। बैस राजपूतों के प्रभाव व साढ़े बाइकस परगना का क्षेत्र को होने के कारण इसे बैसवारा कहा गया। इन बाइस परगनों में आज के उन्नाव, रायबरेली व बाराबंकी के थोड़े थोड़े भाग सम्मलित हैं।

बैसवाड़ा की स्थापना बैस राजपूत राजा अभयचंद बैस ने की थी। अभय चंद, थानेश्वर के महाराजाधिराजा महाराजापुत्र शिलादित्य हर्षवर्धन की २५वे वंशज थे।.[1]

इन बाइस परगनों में निगोहा, मोहनलालगंज, हसनगंज, हड़हा, सरवन, परसंदन, डौडियाखेड़ा, घाटमपुर, भगवंत नगर, बिहार, पाटन, पनहन, मगरापुर, खीरों, सरेनी, बरेली, डलमऊ, बछरावां, कुम्हरावां, बिजनौर, हैदरगढ़, पुरवा मौरावा शामिल हैं। आई ने अकबर में भी बैसवारा क्षेत्र के उल्लेख हैं। उस समय बैसवारा क्षेत्र में दो हजार दो सौ पांच गांव तथा क्षेत्रफल तेरह लाख चौहत्तर हजार एक सौ चार एकड़ था। कविवर गिरधारी ने भी बैसवारे का वर्णन करते हुए किस क्षेत्र में कौन से राजा का अधिकार था इसका उल्लेख किया है। कहा जाता है कि बैसवारा क्षेत्र की आधार शिला बैस राजपूतों अभयचंद्र व निर्भय चंद्र ने रखी थी। गंगा दशहरा मेले के समय बक्सर आयी अरगल की राजकुमार पर भर जाति के लोगों ने कुदृष्टि डाली तो मेले में घूम रहे बैसवंस के दोनों भाइयों से सहन नहीं हुआ। भयंकर युद्ध हुआ जिसमें निर्भयचंद्र शहीद हुए। किंतु राजकुमारी की लाज बचा ली। राजा अरगल ने अभयचंद्र को अपना दामाद बनाकर यही साढ़े बाइस परगने दहेज में दे दिए। जिससे बैसवारा अस्तित्व में आया। इसी वंश परंपरा में आगे चलकर राजा सातन देव व लोकनायक बाबा तिलोक चंद्र हुए। राणा बेनी माधव तथा राव रामबख्श सिंह की वीरता किसी परिचय की मोहताज नहीं है। इन क्रांतिकारी वीरों ने अपने जीते जी कभी बैसवारे में अंग्रेजों का झंडा गड़ने नहीं दिया। यहां के शौर्य पराक्रम और आन बान की शान में अंग्रेजों को इस क्षेत्र का विघटन करने के लिए विवश कर दिया। इसके लिए उन्होंने संपूर्ण बैसवारे को उन्नाव, रायबरेली, लखनऊ व बाराबंकी जिलों में विघटित कर दिया ताकि यहां के लोग एक स्थान पर एकत्र न हो सकें और इस प्रकार से बैसवारा विखंडित होकर रह गया ओर आज तक अपने पुराने रूप में नहीं आ सका। भले ही बैसवारा विखंडित हो किंतु बैसवारी आज भी लोगों के हृदय में हिलोरे मारती है।

  1. Bayly, C. A. (1988). Rulers, Townsmen and Bazaars: North Indian Society in the Age of British Expansion, 1770-1870. Cambridge South Asian Studies. 28. CUP Archive. पपृ॰ 96–100. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-521-31054-3.