बौद्ध शब्दावली
यहाँ बौद्ध धर्म में प्रयुक्त प्रमुख शब्दों की व्याख्या की गयी है।
1. अग्रबोधि : यहाँ ‘अग्र’ शब्द बोधि के विशेषण के रूप में प्रयुक्त है, जिसका आशय है - आगे, श्रेष्ठ अथवा प्रमुख तथा बोधि का अर्थ है - ज्ञान । इस प्रकार अग्रबोधि का आशय श्रेष्ठ ज्ञान है । भगवान् बुद्ध इस ज्ञान की प्राप्ति के अनन्तर ही सम्यक्सम्बुद्ध कहलाये ।
2. अचिन्त्य : जिसके विषय में विचार न किया जा सके ।
3. अचिन्त्यबुद्धगुणः बुद्ध के दस बल, चार वैशारद्य, तीन विद्यायें आदि अनेक गुण हैं । बौद्ध शास्त्रों में चार गुणों को अचिन्त्य माना गया है, वे हैं - औषधिगुण, मंत्रगुण, कर्मफलगुण तथा रत्नगुण ।
4. अनागामी : यह साधक की तीसरी अवस्था है । इस अवस्था को प्राप्त किया हुआ साधक केवल एक ही बार देवलोक में जन्म लेता है, किन्तु बौद्ध शास्त्रों में प्रायशः ‘अनागामी’ शब्द की जगह ‘ओपपातिक’ शब्द ही मिलता है । इस अवस्था में ओरम्भागय-संयोजनों का परिक्षय हो जाता है ।
5. अनित्यता : क्षयधर्मता, व्ययधर्मता तथा विपरिणामधर्मता इसके पर्याय हैं । रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान सभी व्ययधर्मा हैं, अनित्य हैं । इस प्रकार मानव जीवन की अनित्यता एवं निस्सारता सिद्ध हो जाती है ।
6. अनुव्यञ्जन : महापुरुष के 32 लक्षण एवं 80 अनुव्यञ्जन बौद्ध (गौण लक्षण) कहे जाते हैं । भगवान् बुद्ध में ये सभी लक्षण विद्यमान थे ।
7. अपाय : अपाय का अर्थ दुर्गति है, ये हैं - पशुयोनि, प्रेतयोनि और असुर योनि । बौद्ध साहित्य में असुर योनि को सम्मिलित कर इनकी संख्या चार बताई गई है । कहीं-कहीं नरक को छोड़कर इनकी संख्या 3 मानी गई है ।
8. अष्टांग आयुर्वेद : आयुर्वेद एक चिकित्सा पद्धति है । इसके आठ अंग हैं - द्रव्याभिधान, गदनिश्चय, कायसौख्य, शल्यकर्म, भूतनिग्रह, विषनिग्रह, बालवैद्य और रसायन ।
9. अर्हत् : योगावचर भिक्षु की चतुर्थ अवस्था का नाम ‘अर्हत्’ है । इसमें भिक्षु रूपराग, अरूपराग, मन, औद्धत्य और अविद्या के बन्धनों को क्षीण कर देता है और ‘अर्हत्’ हो जाता है। उसके सभी क्लेशों की परिसमाप्ति हो जाती है ।
10. अविद्या : (अज्ञान, प्रतीत्यसमुत्पाद का एक अंग, संयोजन का नाम) चार आर्य सत्यों के साक्षात्कार से ‘अर्हत्’ पद की प्राप्ति होती है । इन चार आर्यसत्यों के अज्ञान स्वरूप अविद्या के कारण ही प्राणियों का विविध योनियों में संसरण हो रहा है और इसी के परिणाम स्वरूप स्वयं बुद्ध भी अनेक पूर्व जन्मों में संसारचक्र में घुमते रहे हैं ।
11. आर्यसत्य : सम्बोधि प्राप्ति के समय बुद्ध ने इन्हीं चार आर्य सत्यों का साक्षात्कार किया था । इन चार आर्य सत्यों के नाम निम्न प्रकार से हैं - (1) दुःख, (2) दुःख समुदय, (3) दुःख निरोध तथा (4) दुःखनिरोध गामिनी प्रतिपदा ।
12. आलयविज्ञान : आलयविज्ञान वह विज्ञान है जिसमें समस्त वासनाएँ अथवा संस्कार रहते हैं । वसुबन्धु आलय के दो व्युत्पत्तिपरक अर्थ करते हैं - (1) समस्त धर्मकार्यभाव इस आलय विज्ञान से उपनिबद्ध होते हैं । (2) वह समस्त धर्मों का हेतु है, अतः कारणभावेन उपनिबद्ध होने के कारण यह ‘आलय’ विज्ञान है ।
13. इन्द्रिय : श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञा आदि पाँच ‘इन्द्रिय’ हैं ।
14. उपपादुक : महासांघिक बुद्ध एवं बोधिसत्त्व को ‘उपपादुक’ मानते थे । जो सत्त्व सकृत् उत्पन्न होते हैं, जिनकी इन्द्रियाँ अविकल हैं, जो सर्व अंग-प्रत्यंग से उपेत हैं, ‘उपपादुक’ कहलाते हैं ।
15. उपादान : ‘उपादान’ का अर्थ है आसक्ति । इसके चार प्रकार होते हैं - (1) कामोपादान - कामवासना में आसक्ति। (2) दृष्ट्युपादान - मिथ्या सिद्धान्तों में आसक्ति । (3) शीलव्रतपरामर्शोपादान - व्यर्थ के कर्मकाण्डों में आसक्ति (4) आत्मोपादान : आत्मवाद में आसक्ति ।
16. उपायकुशल (उपायकौशल्य) : समय अनुकूल कार्य साधक उपाय । महायान के अनुसार तथागत की आयु अपरिमित है । प्राणियों को शिक्षा देने के लिए वे अपना परिनिर्वाण दिखाते हैं, यद्यपि वे परिनिवृत्त नहीं होते । बुद्ध को अपरिमाण आयु वाला मानते हुए उनका आविर्भाव और तिरोभाव ही उनकी उपाय कुशलता अथवा उपायकौशल्य है ।
17. उपासक : बौद्ध धर्मानुयायी गृहस्थ पुरुष उपासक कहलाता है। उपासक बुद्ध, धर्म और संघ की शरण स्वीकार करता है तथा पंचशीलों के परिपालन का व्रत लेता है ।
18. उपासिका : बौद्ध धर्म को मानने वाली गृहस्थ स्त्री उपासिका कहलाती है । यह भी उपासक के समान पंचशीलों के परिपालन का व्रत लेती है । उपासक और उपासिकाओं का कर्त्तव्य है कि वे भिक्षु और भिक्षुणियों की आवश्यकताओं की पूर्ति करें तथा उनसे धर्म सुनें ।
19. ऋद्धि : दिव्य शक्ति अथवा योगबल ।
20. कल्प : असंख्य वर्षों के काल की एक इकाई । ये चार प्रकार के हैं - (1) संवर्त कल्प (2) संवर्त स्थायीकल्प (3) विवर्त कल्प (4) विवर्त स्थायीकल्प संवर्त कल्प में प्रलय और विवर्त कल्प में सृष्टि का क्रम निरन्तर चलता रहता है ।
21. कुशल : यह पद पुण्य, पवित्र और उत्तम के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है ।
22. कुशलकर्मपथ : इनकी संख्या 10 हैं । (1) प्राणी हिंसा से विरति, (2) चोरी से विरति, (3) काम सम्बन्धी दुराचार से विरति, (4) असत्य भाषण से विरति, (5) चुगली न करना, (6) कटुवचन से विरति, (7) बकवाद से विरति, (8) अलोभ से विरति (9) वैमनस्य से विरति (10) मिथ्यादृष्टि से विरति।
23. चक्रवर्ती : राजा में पाये जाने वाले सात रत्न । ये रत्न सभी राजाओं में नहीं पाये जाते । व्रतों के पालन से ही इन रत्नों की प्राप्ति होती है । सात रत्नों की प्राप्ति पर ही राजा ‘चक्रवर्ती’ संज्ञा वाला होगा । ये सात रत्न हैं - चक्ररत्न, हस्तिरत्न, अश्वरत्न, मणिरत्न, स्त्रीरत्न, गृहपतिरत्न, परिणायक रत्न । खुद्दक निकाय के कुछ ग्रन्थों में परिणायक रत्न के स्थान पर सातवाँ रत्न पुत्ररत्न माना गया है ।
24. चतुर्महाद्वीप : महाद्वीपों की संख्या 4 है । जम्बुद्वीप, अपरगोयान, पूर्वविदेह तथा उत्तरकुरु । प्रत्येक महाद्वीप 500 छोटे द्वीपों द्वारा घिरा हुआ है । इन्हें चतुर्द्वीप के नाम से भी जाना जाता है । सुमेरू पर्वत के चारों ओर के ये चारों द्वीप हैं । पूर्व में पूर्वविदेह, पश्चिम में अपरगोयान, उत्तर में उत्तरकुरु तथा दक्षिण में जम्बुद्वीप ।
25. चारिका : चारिका का सामान्य अर्थ है - विचरण करना अथवा चलना किन्तु यहां इसका अर्थ है - भगवान् बुद्ध का भिक्षु मण्डलियों के साथ एक स्थान से दूसरे स्थान तक भिक्षाटन एवं धर्मोपदेश करते हुए धीरे-धीरे आगे जाना ।
26. चीवर : भिक्षु का काषाय वस्त्र जो कई टुकड़ों के साथ जोड़कर बनाया जाता है, चीवर कहलाता है । विनय के अनुसार भिक्षु को तीन चीवर धारण करने का विधान है -
(1) अन्तरवासक : अधोवस्त्र, जिसे लुंगी के समान लपेटा जाता है ।
(2) उत्तरासंग : यह इकहरी चादर के समान होता है, जिससे शरीर को लपेटा जाता है । यह चार हाथ लम्बा और चार हाथ चौड़ा होता है ।
(3) संघाटी : दुहरी सिली होने के कारण इसे दुहरी चादर कहा जा सकता है । यह कंधे पर तह लगाकर रखी जाती है । ठंड लगने अथवा अन्य कोई कार्य आ पड़ने पर इसका उपयोग किया जाता है ।
27. जम्बुद्वीप : भारतवर्ष का प्राचीनतम नाम जम्बुद्वीप है । दस हजार योजन विस्तार भू-भाग, जिसमें 4000 योजन प्रदेश जल से भरा है, समुद्र कहलाता है । 3000 योजन में मनुष्य रहते हैं । शेष 3000 योजन में 84 कूटों से शोभित चारों ओर बहती हुई पाँच नदियों से विचित्र 500 योजन वाले अति उन्नत हिमवान् (हिमालय) हैं ।
28. तथागतः यथार्थ ज्ञाता । यह भगवान् बुद्ध का विशेषण है । पूर्व बुद्धों ने जिस मार्ग का अनुसरण किया, उसी मार्ग का अनुसरण शाक्यमुनि बुद्ध ने भी किया । इसलिए बुद्ध का तथागत भी एक विशेषण है ।
29. तिर्यक् योनि : इसमें कीट, पतंगे, जलचर, पशु आदि की गणना की जाती है ।
30. दण्डपाणि शाक्य : गोपा के पिता । कपिलवस्तु के शाक्य।
31. दशबल : यह बुद्ध का पर्याय है । बुद्ध को दस बलों वाला माना गया है । बुद्ध के अतिरिक्त दस बल अन्य किसी में नहीं पाये जाते ।
32. देशना : देशना का अर्थ उपदेश है । बुद्ध के मौखिक प्रवचनों के लिए ‘देशना’ शब्द का प्रयोग हुआ है । प्रस्तुत आलोच्य ग्रन्थ के चतुर्थ परिवर्त ‘देशनापरिवर्त’ में ‘देशना’ अपराध स्वीकारोक्ति के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है ।
33. धर्मकाय : प्रारम्भ में भगवान् बुद्ध के उपदेशों का सूचक उनका धर्मकाय था किन्तु उसमें शील, समाधि, प्रज्ञा, विमुक्ति ज्ञान और विमुक्ति दर्शन, इन पाँच स्कन्धों का समावेश किया गया । अब उनका धर्मकाय परार्थ अथवा स्वाभाविक काय मान लिया गया । यह उनका स्वाभाविक काय उपासकों के अनुसार परिशुद्ध धर्मों का प्रकृति रूप है, परिशुद्ध धर्म जिनकी हम मन से भी कल्पना नहीं कर पाते, उनका पूर्णरूप तथागत का धर्मकाय है ।
34. धर्मचक्रप्रवर्तन : आर्य सत्य ज्ञान होने पर भगवान् बुद्ध ने सारनाथ में पञ्च भिक्षुओं को प्रथम उपदेश किया, जिसे बौद्ध दर्शन जगत् में ‘धर्मचक्रप्रवर्तन’ कहा गया है । महायान सम्प्रदाय में तीन धर्मचक्रप्रवर्तन स्वीकार किये गए हैं जिनमें प्रथम सारनाथ में पञ्च भिक्षुओं को दिया गया उपदेश है । द्वितीय ‘धर्मचक्रप्रवर्तन’ उन्होंने गृध्रकूट-पर्वत पर बोधिसत्त्वों की विपुल और विलक्षण सभा में दिया । यह महायान का उपदेश था । तृतीय ‘धर्मचक्रप्रवर्तन’ धान्यकटक पर्वत पर माना जाता है जिसमें धारणी मन्त्र का उपदेश किया गया । ऐसा उल्लेख तिब्बती ग्रन्थों में मिलता है । 35. धर्मधातु : धर्मधातु का अर्थ है - मन का विषय ।
36. धर्मभाणकभिक्षु (धर्मप्रवाचक भिक्षु) - वह भिक्षु जो धार्मिक ग्रन्थों का उपदेश करता है ।
37. धर्म विनय : बौद्ध शासन, बौद्ध मत ।
38. धर्मस्कन्ध : ये चौरासी हजार माने गये हैं । संक्षेप करने पर क्रमशः बारह, नौ तथा तीन माने गये हैं । ये अन्तिम तीन है - शील, समाधि तथा प्रज्ञा ।
39. धातु कौशल्य : (धातुओं की कुशलता) - धातुओं (वात-पित्त-कफ) की साम्य अवस्था ही नीरोगता है और इन धातुओं का विकार अथवा विषमावस्था ही दुःख अथवा रुग्णता है । धातुओं की साम्यावस्था तथा विषमावस्था के भेद से धातुओं के छः भेद माने जा सकते हैं । इन दोनों अवस्थाओं के परिज्ञान में दक्ष वैद्य को ही धातुओं की कुशलता वाला माना जायेगा ।
40. धातु संक्षोभ : आयुर्वेद में तीन धातु-वात, पित्त और कफ माने गये हैं । शरीर में इनकी साम्य अवस्था व्यक्ति के नीरोग होने का लक्षण है, जबकि इनकी विषम एवं कुपित अवस्था व्यक्ति के रोगी होने का लक्षण है । विषम एवं कुपित अवस्था में इन धातुओं को ‘दोष’ भी कहा गया है । धातुओं की विषम एवं कुपित अवस्था ही धातु संक्षोभ कहलाती है ।
41. धारणी : ये रहस्यात्मक मन्त्र हैं, जो रोग, प्रेतबाधा, स्मृति भ्रंश से रक्षा तथा अन्य पीड़ाओं को दूर करने में प्रयुक्त किये जाते हैं ।
42. नियुत : दस लाख । यह शब्द प्रस्तुत आलोच्य ग्रन्थ में कोटि शब्द के साथ प्रयुक्त हुआ है जिसका अर्थ है करोड़ों।
43. परमार्थ : जीवन का चरम लक्ष्य । यह पद निर्वाण का अधिवचन है ।
44. परमार्थ सत् : परम सत्ता अस्ति और नास्ति की कोटियों से परे शान्त, अरूप्य, अनिदर्शन और निर्विकल्प है । वह न तो स्वभाव है और न परभाव है । अतः निःस्वभाव, निर्विकल्प है ।
45. प्रत्येक बुद्ध : प्रत्येक बुद्ध उसे कहते हैं, जो अपने प्रयत्न से स्वतः चार आर्य सत्यों का साक्षात्कार कर लेता है । प्रत्येक बुद्ध अपने आप बोध करने वाला होता है । बोध या ज्ञान की घोषणा करने की क्षमता उसमें नहीं होती ।
46. प्रवृत्ति विज्ञान : विज्ञान स्वरूपतः अभिन्न है, परन्तु अवस्था भेद से वह आठ प्रकार का माना जाता है - (1) चक्षुर्विज्ञान, (2) श्रोत्रविज्ञान, (3) घ्राणविज्ञान, (4) जिह्वा विज्ञान, (5) कायविज्ञान, (6) मनोविज्ञान, (7) क्लिष्टमनोविज्ञान, (8) आलयविज्ञान । प्रारम्भ के सात विज्ञान प्रवृत्ति-विज्ञान कहलाते हैं । ये आलय विज्ञान से उत्पन्न होते हैं तथा उसी में विलीन हो जाते हैं ।
47. परिनिर्वाण : यह पद भी निर्वाण का समानार्थक है । निर्वाण परमानन्द की अवस्था है । इसमें पुनर्भव से मुक्ति मिल जाती है ।
48. पारमिता : पारमिता का अर्थ है उत्कृष्ट साधना । बुद्ध द्वारा अनेक जन्मों तक प्राणी हित के लिए किया गया प्रयत्न पारमिताओं के द्वारा ही सम्भव हो सका । इनकी संख्या छः है - दान, शील, क्षमता (क्षान्ति), वीर्य, ध्यान और प्रज्ञा ।
49. बुद्धक्षेत्र : बुद्ध जिस लोक में उत्पन्न होते हैं, वह उनका क्षेत्र कहलाता है ।
50. बुद्धानुस्मृति : बुद्ध का अनुस्मरण । महायान बौद्धशास्त्रों में अनुस्मृतियों की संख्या छः मानी गयी है - बुद्ध, धर्म, संघ, शील, दान और इष्टदेव की अनुस्मृति ।
51. बोधि : यथार्थ सत्य ज्ञान को ‘बोधि’ कहते हैं । बौद्ध साधक ‘बोधि’ प्राप्त करने के लिए निरन्तर प्रयासरत रहते हैं। बुद्ध द्वारा इसी मार्ग का उपदेश किया गया है ।
52. बोधिचित्त : अपने चित्त की बिखरी हुई वृत्तियों को ज्ञान की ओर मोड़ना ही बोधिचित्त है । यह बोधिचित्त जहाँ ज्ञान का प्रकाश करता है, वहीं अनेक कल्पों के पापों का नाश भी करता है ।
53. बोधिसत्त्व : वह व्यक्ति, जो बोधि अथवा ज्ञान प्राप्त करने के मार्ग में स्थित है किन्तु प्रज्ञा के साथ-साथ जिसके चित्त में महाकरुणा का उदय हो गया है, अनेक जन्मों के परिश्रम से पुण्यों का संचय करने वाले उस व्यक्ति का बुद्ध होना निश्चित है । बुद्धत्व प्राप्ति ही बोधिसत्त्व का चरम आदर्श है।
54. बोधिसत्त्वचर्या : महायान में पारमिताओं और दसभूमियों की साधना प्रत्येक बोधिसत्त्व के लिये आवश्यक है । बोधिसत्त्व इनका अभ्यास प्राणियों की सद्वृत्तियों को दृढ़ करने के लिए करता है, यही बोधिसत्त्वचर्या है ।
55. ब्रह्मस्वर : ब्रह्मनाद तथा ब्रह्मस्वर का उल्लेख महायान ग्रन्थों में कई स्थलों पर हुआ है । इसका अर्थ है बुद्ध की आवाज, जिसकी गूँज अति विस्तृत क्षेत्र तक फैलती है ।
56. भवाग्र : ध्यान योग का साधक अपने ध्यान बल से जब स्थूल जगत् से सूक्ष्म जगत् में प्रवेश करता है, तब ऐसी स्थिति में वह एक ऐसे बिन्दु पर पहुँचता है, जहाँ जगत् की समाप्ति हो जाती है, यही उच्चतम बिन्दु ‘भवाग्र’ कहलाता है।
57. मञ्जुश्री : मञ्जुश्री बोधिसत्त्व है । ब्राह्मण धर्म में जो स्थान सरस्वती का है, वही बौद्धधर्म में मञ्जुश्री का है । अन्तर केवल इतना है कि सरस्वती स्त्री हैं, जबकि मञ्जुश्री पुरुष हैं। मञ्जुश्री के मन्त्र की साधना से मनुष्य तीक्ष्ण बुद्धि तथा दूरदर्शी होता है ।
58. महापरिनिर्वाण : बुद्ध का शरीर त्याग । बुद्ध अपने शरीर त्याग के बाद आवागमन से मुक्त हो जाते हैं । जीवन प्रवाह सदा के लिए बन्द हो जाता है । उपादान की परिसमाप्ति हो जाती है ।
59. महाभिनिष्क्रमण : सिद्धार्थ गौतम का बोधि प्राप्ति हेतु किया गया गृहत्याग ही बौद्ध दार्शनिक सम्प्रदाय में ‘महाभिनिष्क्रमण’ कहलाता है । गौतम बुद्ध ने गृहत्याग 29 वर्ष की युवावस्था में किया था ।
60. मैत्रेय : भावी बुद्ध का नाम ।
61. शास्ता : उपदेशक, मार्गदर्शक, दिशा निर्देशक आदि । तथागत बुद्ध को शास्ता कहा गया है ।
62. शून्यता : प्रस्तुत आलोच्य ग्रन्थ में शून्य, शून्य धर्म, शून्यभूत एवं शून्यता शब्दों का प्रयोग हुआ है । भगवान् बुद्ध ने कहा है कि प्रत्येक वस्तु में शून्यता है । शून्यता को धर्मता भी कहा गया है । शून्य को समझाने के लिए भगवान् तथागत ने प्रज्ञापारमितापिण्डार्थ में निम्नलिखित चार वाक्यों का अभिकथन किया है - (1) रूप शून्य है, (2) शून्यता रूप है, (3) रूप से भिन्न शून्यता नहीं है, (4) शून्यता से भिन्न रूप नहीं है ।
63. श्रमण : बौद्ध धर्म के अनुयायी को श्रमण कहा गया है ।
64. श्रावक : बुद्ध से धर्मोपदेश सुनकर दूसरों को उपदेश देने वाला श्रावक है । यह बुद्ध का शिष्य है ।
65. श्रुतिस्मृतिपरम्परा : दैविक एवं मानवीय परम्परा ।
66. सकृदागामी : यह साधकों की द्वितीय अवस्था है । इनको केवल एक ही बार पृथ्वी पर जन्म लेना पड़ता है ।
67. सुगत : अत्युत्तम गति । यह अत्युत्तम गति ही परमानन्द की अवस्था है । बुद्ध ने जीवन के चरमलक्ष्य परमानन्द की अवस्था को प्राप्त कर लिया था, इसलिए वे सुगत कहलाये ।
68. स्तूप : ‘स्तूप’ का अर्थ है - बुद्ध तथा अन्य महापुरुषों के पावन अवशेषों को रखने के लिए एक प्रकार के स्तम्भ के समान स्मृति चिह्न । स्तूप को धर्म के प्रतीक के रूप में भी माना गया है । महायान के ग्रन्थों में ‘स्तूप-पूजा’ से सम्बोधि की प्राप्ति बताई गई है । प्रस्तुत आलोच्यग्रन्थ के व्याघ्री परिवर्त में भी भगवान् तथागत ने स्तूप के अवशेषों के द्वारा शीघ्र अनुत्तर सम्यक्सम्बोधि की प्राप्ति बताई है - ”एभिरानन्दास्थिभिर्मयैवं क्षिप्रमनुत्तरा सम्यक्संबोधिरभिसंबुद्धेति ।“
69. स्थविरवादी : प्रारम्भिक बौद्ध भिक्षु जो बुद्ध के द्वारा बतलाये मार्ग एवं शिक्षाओं का पालन करते थे । ये विनय के कठोर नियमों के अनुपालन में विश्वास रखते थे ।
70. संवृति सत् : सीमित शक्ति वाली इन्द्रियों से जैसा प्रतीत या आभास होता है और सीमित एवं सापेक्ष सामर्थ्य वाली भाषा के माध्यम से जो भी अभिव्यक्ति दी जाती है वह संवृति सत्य या व्यवहार सत्य कहा जाता है ।
71. स्रोतापन्न : वह साधक स्रोतापन्न कहलाता है जिसने अष्टाैंक मार्ग रूप बुद्ध कथित धर्म को अपनाया है । स्रोतापन्न साधकों के ये चार व्रत या अंग हैं - बुद्ध, धर्म, संघ तथा शील में विश्वास । स्रोतः आपन्न साधकों को ओर सात बार जन्म लेना पड़ता है । स्रोतापत्ति अवस्था का महत्त्वपूर्ण फल यह है कि उनके सक्कायदिट्ठि (सत्कायदृष्टि), विचिक्खा (विचिकत्सा) और सीलब्बतपरामास (शीलवर्तपरामर्श) इन तीनों संयोजनों का परिक्षय हो जाता है ।