भड़ैंती
भड़ैंती (Farce / फ़ार्स) का साधारण अर्थ है 'निम्नकोटि का प्रहसन' जिसका उद्देश्य भावभंगी, मुद्रा, अभिनय, परिस्थिति या हँसी विनोद के द्वारा हास्य उत्पन्न करना होता है और जो चरित्र या रीति विषयक प्रहसनों (कोमेडी ऑफ कैरेक्टर्स एंड मैनर्स) से पूर्णत: पृथक होती है।
हास्य नाटकों में तो भड़ैंती (फार्स) को प्रधान तात्विक गुण ही समझना चाहिए। इस दृष्टि से उसके लक्ष्य का क्षेत्र केवल स्थानीय, सांसारिक अथवा स्वयुगीन परिस्थितियों तक ही परिमित नहीं होता। मूकाभिनय के रूप में तो वह भाषा के बंधनों से मुक्त होने के कारण ओर भी उद्दाम होता है और प्रहसन के अत्यंत अशिष्ट तथा विकृत रूपों तक व्याप्त रहता है। उसका प्रारंभिक रूप सर्कस के विदूषक की भावभंगियों और क्रियाओं तथा मूकनाटकों (पेंटोमीम) के हँसीविनोद में प्राप्त होता है जो अधिक से अधिक लोगों को क्षण भर हँसा देता है। ज्यों-ज्यों यह अभिनय सूक्ष्म और कलात्मक होता चलता है त्यों त्यों उससे भावित होनेवाले दर्शकों की संख्या भी कम होती चलती है क्योंकि जब किसी अभिनीत भाव को समझाने के लिए शब्दों या वाक्यों की आवश्यकता पड़ती है और विचारहीन हास्य के बदले धीरे धीरे समझ की मुस्कराहट आने लगती है तब यह प्रेरणा तथा प्रभाव और छोटे मंडल तक परिमित हो जाता है।
परिचय एवं इतिहास
संपादित करेंप्रारंभ में भड़ैंती के लिए प्रयुक्त होनेवाला फार्स शब्द, जिसका अर्थ "ठूँसना' (स्टफिंग) है, उसी प्रकार की क्रियाओं के लिए आता था जो गिरजाघरों के कर्मकांड के बीच बीच में होती रहती थीं। इस भावसाम्य के कारण इस शब्द का प्रयोग उन दृश्यों के लिए भी होने लगा जो फ्रांस के रहस्यात्मक नाटक (मिस्तरे) के बीच में व्यापक विनोद के लिए जोड़ दिये जाते थे। इस प्रकार के दृश्य अँगरेजी नाटकचक्र (साइक्लिक प्लेज), नैतिक नाटक (मोरेलिटी) ओर संतों के नाटक (सेंट्स प्लेज़) में बहुत पाए जाते हैं। १६वीं शताब्दी में रहस्यात्मक नाटकों के समाप्त होने के पश्चात् भड़ैंती (फार्स) और विनोदनाट्य (सोती) का प्रयोग छोटे हास्यनाटकों के रूप में नाट्यांतर दृश्य (इंटरल्यूड) बनकर गंभीर नाटकों में भी जा पहुँचे।
इंग्लैंड में सन् १८०० ई. के लगभग वे सब छोटे नाटक ही फ़ार्स कहलाने लगे जो मुख्य नाटक के पश्चात् खेले जाते थे, चाहे वे जिस भी प्रकार के क्यों न हों और इसी लिए १९वीं शताब्दी में उनका ठीक नाटकीय नामकरण न होने के कारण, उनके मूल रूप ही लुप्त हो गए और अपनी सूक्ष्मता के अतिरिक्त अन्य सब बातों में भड़ैंती (फ़ार्स) शब्द आचारनाटक (कौमेदी ऑव मैनर्स), हास्यनृत्य (वादेविले), अटर सटर (एक्सट्रावेगेंजा) ओर मूक, नाट्य (पेंटोमीम) से लेकर प्रहासक (बरलेस्क) के सब रूपों के लिए प्रयुक्त होने लगा। इस सभी रूपों में हँसी, विनोद, भड़ैंती, विचित्र वेशभूषा, विकृत भावभंगी और अभिनेताओं की हास्यक्रिया ही अधिक होती थी और जब इनमें संवाद भी जोड़ दिया जाता था तब इनमें श्लेष, अभिनेता द्वारा बीच बीच में व्यंग्य तथा विनोदपूर्ण बातें और सामयिक घटनाओं पर टिप्पणी भी होती चलती थी। १९वीं और २०वीं शताब्दी में भड़ैंती ने, प्रभाव की दृष्टि से शारीरिक क्रिया के प्रहसन का (फ्रार्स ऑफ फिजिकल ऐक्शन) मूल रूप धारण कर लिया था।
शारीरिक क्रिया के फार्स तीन प्रकार से प्रचलित हुए जिन्हें विनोद में आत्मघाती, पितृघाती और परघाती कहते हैं। इनमें से प्रथम अर्थात् आत्मघाती शारीरिक भड़ैंती में अभिनेता स्वयं अपने व्यावहारिक विनोद का आखेट बनता है। दूसरे में विदूषक का साथी (जमूरा) मूर्ख बनाया जाता है। यह सहायक प्राय: दर्शकों के बीच बैठा रहता है, मानों वह भी भोलाभाला दर्शक मात्र हो। इस प्रकार की सफलता से तीसरे प्रकार की भड़ैंती का जन्म हुआ जिसमें वहाँ उपस्थित प्रसिद्ध लोगों पर श्लेष और विनोद करने की प्राचीन परिपाटी के अतिरिक्त सीधे दर्शक ही फंद में फँसा लिए जाते हैं। जैसे ¾सामने दर्शकों में बैठे हुए किसी तुंदिल या मोटे दर्शक की गोद में सहसा एक भारी बरफ का ढोंका रख दिया जाता है, या समवेत गायक सामने दर्शकों के बीच से अपने गीत में सम्मिलित होने के लिए लोगों को पुकारते हैं जिससे वहाँ बैठी हुई स्त्रियों को तो बड़ी झुँझलाहट होती है किंतु अन्य सब को आनंद मिलता है। इस सब प्रकार की भड़ैंतियों में जो परिणाम होता है वहश् अधिक आनंददायक होता है विशेषत: तब जब कि उस विनोद का आखेट पूर्णत: लक्ष्य को ही उलट देता है। तीसरे प्रकार की शारीरिक भड़ैंती में जिस व्यक्ति के साथ विनोद किया जाता है उसे पुरस्कार भी दिया जाता है जैसे, मोटे व्यक्ति की गोद में बरफ रख देने के पश्चात् उसपर किसी पेय पदार्थ की बहुमूल्य बोतल भी रख दी जाती है और इस प्रकार दृश्य में जनता के सहयोग की भावना अधिक प्रबल हो जाती है।
भारतीय भड़ैंतियों में अश्लील उक्तियों और अश्लील विनोद का प्राधान्य रहता है और इस कारण निम्न प्रकार की वृत्तियों को तुष्ट करने तथा निम्न संस्कार के लोगों को प्रसन्न करने का प्रयास अधिक रहता है। बिदेसिया नाटक जैसे लोकनाटकों में भी ऐसी भड़ैंतियों का अधिक समावेश होता है। काशी के भाँड़ और शाहपुर के नक्काल अपनी भड़ैती के लिए प्रसिद्ध हैं जो केवल आंगिक या वाचिक व्यंग्य विनोद से ही नहीं वरन् यथातथ्य अनुकरण के द्वारा हास्य का रूप ही खड़ा कर देते हैं।