भरटकद्वात्रिंशिका भारतीय संस्कृत कथा परम्परा का एक हास्यपरक रोचक कथा-संग्रह है।

माना जाता है कि भरटकद्वात्रिंशिका की कथाओं को श्री सोमसुन्दर के शिष्य श्री साधुराज से सुनकर उन्हीं के किसी शिष्य ने लिखा। कुछ के अनुसार इसके लेखक जैन मुनि आनन्दरत्नगणि हैं।

जोहान्स हर्तेल (13 March 1872 – 27 October 1955) नामक जर्मन विद्वान ने, जिन्होंने इस पुस्तक का पहला संस्करण 1922 ई. में जर्मनी से छपवाया था। जोहान्स हर्तेल पंचतंत्रहितोपदेश के वैज्ञानिक अध्ययन व व्यवस्थित प्रस्तुतीकरण के लिए विशेष प्रसिद्ध रहे हैं।

भरटकद्वात्रिंशिका में शैव साधुओं के एक भरटक नामक संप्रदाय की प्रवृत्तियों पर प्रहार करती की 32 लघु हास्य व्यंग्य परक कहानियाँ हैं,  जिन्हें "मुग्ध कथा" की श्रेणी में रखा जा सकता है। अधिकांश उनकी मूढता या जडप्रवृत्ति को इंगित करती हैं, तो कहीं उनके कपट को भी. मूर्खों की कहानियों की संस्कृत में यह अकेली अपने ढंग की कथाकृति है।

भरटक शिवभक्त साधुओं का एक प्राचीन सम्प्रदाय है। भरटकद्वात्रिंशिका की कथाएँ कहानी कहने की वाचिक शैली में निबद्ध हैं। कथा में संस्कृत की सामान्य परंपरा के प्रतिकूल देशज शब्दों का प्रचुर प्रयोग है. भाषा अत्यंत सरल है, इसमें वैयाकरणिक त्रुटियां भी बहुत हैं। कथा पर पंचतंत्र का भी प्रचुर प्रभाव है. पहली कहानी में पंचतंत्र का एक पद्य उद्धृत है. तृतीय कथा में पंचतंत्र की ही एक कथा की पुनः प्रस्तुति है. पच्चीसवीं कहानी में कालिदास की किंवदंती में विद्यमान जिस डाल पर बैठे, उसी को काटने की कथा का रूपांतर है. कथा का भरटकद्वात्रिंशिका नामकरण सिंहासनद्वात्रिंशिका के नाम पर किया गया लगता है और तदनुरूप ही 32 कहानियाँ ली गई हैं।

कथा के लेखक का नाम अज्ञात है. ग्रंथ का आरंभ "अर्हम्" से होने से संकेत मिलता है कि इसका लेखक कोई जैन कवि रहा होगा। पुस्तक की पुष्पिका में उल्लिखित संदर्भ के अनुसार इसे सोमसुन्दर के शिष्य श्री साधुराज से सुनकर उन्हीं के किसी शिष्य ने इसे लिखा। एक संभावना यह भी है कि सांप्रदायिक विवाद के भय लेखक ने अपना नाम न दिया हो. हरिभद्र के उल्लेख में वर्णित चित्र स्तोत्र के कर्ता साधुराज का इनसे ऐक्य मानकर रचना चौदहवीं सदी या उससे आसपास की मानी जाती है। लेखक संभवतः गुजरात का निवासी रहा होगा. कथा में गुजरात व राजस्थान के नगरों या क्षेत्रों का प्रचुर प्रयोग है. प्रत्येक कथा के आरंभ में उसके नगर का आवश्यक रूप से वर्णन है।

सर्वप्रथम 1860 ईस्वी में वेबर ने इसका आंशिक अनुवाद प्रस्तुत किया था।  बाद में हर्तेल नामक जर्मन विद्वान ने एक भारतीय विद्वान उपाध्याय इंद्रविजय से 1913 में इसकी एक हस्तलिखित पूर्ण प्रति प्राप्त की, तदुपरांत इस पुस्तक का पहला संस्करण [[1]] ई. में जर्मनी से छपवाया था.

लंबे समय तक हिंदी में दुर्लभ रही इस पुस्तक को 1987 में संस्कृत परिषद्, सागर विश्वविद्यालय द्वारा प्रोफेसर राधावल्लभ त्रिपाठी के संपादन में प्रकाशित किया गया है।