भारतीय शिल्प
'
प्राचीन भारत से लेकर आधुनिक भारत के कालक्रम में शिल्पकार को बहुआयामी भूमिका का निर्वाह करने वाले व्यक्ति के रूप में देखा जा सकता है। शिल्पकार शिल्पवस्तुओं के निर्माता और विक्रेता के अलावा समाज में डिजाइनर, सर्जक, अन्वेषक और समस्याएं हल करने वाले व्यक्ति के रूप में भी कई भूमिकाएं निभाता है। अतः शिल्पकार केवल एक वस्तु निर्माता ही नहीं होता और शिल्पवस्तु (क्राफ्ट) केवल एक सुंदर वस्तु ही नहीं होती बल्कि इसका सृजन एक विशेष कार्य के लिए, ग्राहक की आवश्यकता को पूर्ण करने के लिए किया जाता है।
वस्तुतः शिल्पकार एक समस्या समाधानकर्ता के रूप में कुशल भूमिका निभाता है (विशेषतः ग्रामीण भारत में )। उदाहरण के लिए, उपभोक्ता या ग्राहक शिल्पकार से कह सकते हैं कि वह एक ऐसा प्याला बनाये, जिसे वे आसानी से पकड़ सकें और उससे गर्म पेय पी सकें। इस संबंध में शिल्पकार कुम्हार कप के हैंडल को इस तरह से डिजाइन करेगा कि उसे आसानी से पकड़ा जा सके और कप को इस प्रकार का आकार देगा कि न तो वह बहुत भारी हो और न ही बहुत बड़ा। इस तरह स्पष्ट है कि ग्राहक शिल्पकार को एक समस्या को हल करने के लिए देता है कि वह गर्म पेय के लिए कप बनाये। शिल्पकार जिस जीवंतता (vividity) के साथ कार्य करता है, वह उसे एक सांस्कृतिक प्राणी और सौन्दर्योपासक (वस्तु की सुंदरता की उपासना एवं आराधना करने वाला) बना देती है। विभिन्न वस्तु एवं उत्पाद का निर्माण उसके लिए एक साधना हो जाती है। अपनी इसी साधना को इन्द्रधनुषी आभा प्रदान करने में वह लगा रहता है। गहराई से देखें तो शिल्पकार द्वारा निर्मित उत्पाद उपयोगिता, सौन्दर्य, अंतसंपर्कों को बढ़ावा देने का उपादान (Tool) होता है। शिल्पकार कुम्हार की विशिष्टता उत्पाद की कलाकारी और सजावट नहीं बल्कि ग्राहक की समस्याओं हेतु उपयुक्त एवं कल्पनाशील हल ढूँढने में शिल्पकार का कौशल है। ऐसे में ग्राहक की जिम्मेदारी भी बनती है कि वह शिल्पकार को प्रोत्साहित करे जिससे वह हर समय नयी और उत्साहजनक वस्तु का सृजन एवं उत्पादन करे। इस दृष्टि से ग्राहक और शिल्पकार के मध्य संबंध और उपयोगी अंतसंपर्क ही शिल्पकला के सर्वोत्तम विकास में सहायक है।
भारतीय शिल्पकला की विशेषताएँ
संपादित करेंभारतीय शिल्प की लंबी और प्राचीन परंपरा है। इसका आशय है कि यहां हमेशा रचनात्मक और कल्पनाशील लोग हुए हैं, जिन्होंने समस्याओं के समाधान के बहुत रोचक तरीके खोजे। शिल्पकला कार्यकर्ता (craft activist) जया जेटली ने अपनी पुस्तक ‘विश्वकर्माज चिल्ड्रेन - इंडियाज क्राफ्ट्स पीपुल’ में लिखा है कि,
- भारत के शिल्प और शिल्पकार यहां की लोक एवं शास्त्रीय परंपरा का अभिन्न अंग हैं। यह ऐतिहासिक समांगीकरण (Historical Assimilations) कई हजार वर्षों से विद्यमान है। कृषि अर्थव्यवस्था में आम लोगों और शहरी लोगों, दोनों के लिए प्रतिदिन उपयोग के लिए हाथों से बनाई गई वस्तुएं शिल्प की दृष्टि से भारत की सांस्कृतिक परंपरा को दर्शाती हैं। हालांकि शिल्पकार लोगों को जाति प्रथा के ढांचे में बांटा गया, लेकिन उनके कौशल को सांस्कृतिक और धार्मिक आवश्यकताओं द्वारा प्रोत्साहित किया गया एवं स्थानीय, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय व्यापार द्वारा इसे गति प्रदान की गई।
आज भी भारत में हस्तशिल्प आय का वैकल्पिक स्रोत है और कई समुदायों की अर्थव्यवस्था का आधार भी।
प्राचीन भारतीय संस्कृति व सभ्यता में शिल्पकला
संपादित करेंशिल्प समुदाय की गतिविधियों व उनकी सक्रियता का प्रमाण हमें सिंधु घाटी सभ्यता (3000-1500 ई.पू.) काल में मिलता है। इस समय तक ‘विकसित शहरी संस्कृति’ का उद्भव हो चुका था, जो अफगानिस्तान से गुजरात तक फैली थी। इस स्थल से मिले सूती वस्त्र और विभिन्न, आकृतियों, आकारों और डिजाइनों के मिट्टी के पात्र, कम मूल्यवान पत्थरों से बने मनके, चिकनी मिट्टी से बनी मूर्तियां, मोहरें (सील) एक परिष्कृत शिल्प संस्कृति की ओर इशारा करते हैं। इस समय शिल्प समुदाय ने ही घरों से गंदा पानी निकालने के लिए चिकनी मिट्टी से पाइप बनाकर इसका हल ढूंढ़ा। 5 हजार वर्ष पूर्व विशिष्ट शिल्प समुदायों ने सामाजिक आवश्यकताओं और अपेक्षाओं की पूर्ति का सरल और व्यावहारिक समाधान खोजा, जिससे कि लोगों के जीवन को सुधारा जा सका। कौटिल्य के अर्थशास्त्र (तीसरी शताब्दी ई. पू.) में दो प्रकार के कारीगरों के मध्य भेद बताया गया है- पहले, वे विशेषज्ञ शिल्पकार, जो मजदूरी पर कार्य करने वाले कई कारीगरों को रोजगार देते थे और दूसरे, वे कारीगर जो स्वयं की पूंजी से अपनी कार्यशालाओं में कार्य करते थे। कारीगरों को पारिश्रमिक या तो सामग्री के रूप में या नकद दिया जाता था, फिर भी जहां रुपये का प्रयोग नहीं किया जाता था, सेवा संबंध और वस्तुओं का आदान-प्रदान ही चलता था। संभवतः यजमानी प्रणाली इन्हीं सेवा संबंधों का परिणाम है। उल्लेखनीय है कि संगम साहित्य 100 ई.पू. --600 ईसवी के मध्य लिखा गया, जिसमें ‘सूती और रेशमी कपड़ों की बुनाई’ का उल्लेख है। बुनकर समाज मान्यता प्राप्त और स्थापित वर्ग था और उनके लिए अलग गलियाँ थीं, जिनके नाम ‘कारुगर वीडी’ और 'ऑरोवल वीडी' था। चोल और विजयनगर साम्राज्यों (9वीं से 12वीं शताब्दी) दोनों में ही बुनकर, मंदिर परिसर के आस-पास रहते थे। वे मूर्ति के वस्त्रों, परदों और पंड़ितों तथा स्थानीय लोगों के वस्त्रों के लिए कपड़ा बुनने के साथ-साथ समुद्रपारीय व्यापार हेतु भी कपड़ा बुनते थे।