भारतीय स्टेट बैंक

भारतीय सार्वजनिक क्षेत्र का बैंक और वित्तीय सेवा संगठन

स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (State Bank of India / SBI) भारत की सबसे बड़ी एवं सबसे पुरानी बैंक है।[5] 14 सितंबर 2022 को, भारतीय स्टेट बैंक पहली बार भारतीय स्टॉक एक्सचेंजों पर 5 ट्रिलियन बाजार पूंजीकरण को पार करने वाला तीसरा ऋणदाता (एचडीएफसी बैंक और आईसीआईसीआई बैंक के बाद) और सातवीं भारतीय कंपनी बन गया।[6]

भारतीय स्टेट बैंक
कंपनी प्रकारसार्वजनिक
कारोबारी रूप
(BSE, NSE:SBI) & (एलएसई: SBID)
आई.एस.आई.एनUS8565522039 Edit this on Wikidata
उद्योगबैंकिंग
बीमा
पूंजी बाजार और संबद्ध उद्योग
स्थापितभारत कलकत्ता, १८०६ (बैंक ऑफ़ कैलकटा के रूप मे)
मुख्यालयकोर्पोरेट सेंटर,
मैडम कामा रोड,
मुंबई ४०० ०२१ भारत
प्रमुख लोग
दिनेश कुमार खारा, अध्यक्ष (चेयरमैन) (७ अक्टूबर 2020 से[1])
उत्पादऋण, क्रेडिट कार्ड, बचत, निवेश के साधन, एस बी आई लाइफ (बीमा) आदि
आयवृद्धि ₹5.75 लाख करोड़ (2023)
शुद्ध आय
वृद्धि ₹10,484 करोड़ (2017)[2]
कुल संपत्ति₹34,45,121 करोड़ (2017)
कर्मचारियों की संख्या
2,09,567 (2017) Edit this on Wikidata
वेबसाइटbank.sbi
मुंबई में भारतीय स्टेट बैंक का आँचलिक कार्यालय

2 जून 1806 को कलकत्ता में 'बैंक ऑफ़ कलकत्ता' की स्थापना हुई थी। तीन वर्षों के पश्चात इसको चार्टर मिला तथा इसका पुनर्गठन बैंक ऑफ़ बंगाल के रूप में 2 जनवरी 1809 को हुआ। यह अपने तरह का अनोखा बैंक था जो साझा स्टॉक पर ब्रिटिश भारत तथा बंगाल सरकार द्वारा चलाया जाता था। बैंक ऑफ़ बॉम्बे तथा बैंक ऑफ़ मद्रास की शुरुआत बाद में हुई। ये तीनों बैंक आधुनिक भारत के प्रमुख बैंक तब तक बने रहे जब तक कि इनका विलय इंपिरियल बैंक ऑफ़ इंडिया (हिन्दी अनुवाद - भारतीय शाही बैंक) में 28 जनवरी 1921 को नहीं कर दिया गया। सन 1941 में पहली पंचवर्षीय योजना की नींव डाली गई जिसमें गांवों के विकास पर जोर डाला गया था। इस समय तक इंपिरियल बैंक ऑफ़ इंडिया का कारोबार सिर्फ़ शहरों तक सीमित था। अतः ग्रामीण विकास के मद्देनजर एक ऐसे बैंक की कल्पना की गई जिसकी पहुंच गांवों तक हो तथा ग्रामीण जनता को जिसका लाभ हो सके। इसके फलस्वरूप 1 जुलाई 1944 को स्टेट बैंक आफ़ इंडिया की स्थापना की गई, जिसमे सरकार की हिस्सेदारी 61.58% हैं।[7] अपने स्थापना काल में स्टेट बैंक के कुल ४८० कार्यालय थे जिसमें शाखाएं, उप शाखाएं तथा तीन स्थानीय मुख्यालय शामिल थे, जो इम्पीरियल बैंकों के मुख्यालयों को बनाया गया था। 1926 में यंग की अनुशंसा पर 1 अप्रैल 1935 को आरबीआई की स्थापना की गई जबकि इसका राष्ट्रीयकरण 1 जनवरी 1949 को किया गया इसका मुख्यालय मुंबई में है आरबीआई के पहले गवर्नर सर ओसबोर्न स्मिथ हैं जबकि वर्तमान में इस के गवर्नर शक्तिकांत दास हैं कार्य नोट का निर्गमन वर्तमान में आरबीआई 1957 में प्रचलित न्यूनतम रिजर्व प्रणाली के आधार पर ₹2 से लेकर ₹2000 तक का नोट का निगमन करती है जबकि ₹1 के नोट का निगमन भारत सरकार के द्वारा किया जाता है

इतिहास

भारतीय स्टेट बैंक का प्रादुर्भाव उन्नीसवीं शताब्दी के पहले दशक में 2 जून 1806 को बैंक ऑफ कलकत्ता की स्थापना के साथ हुआ। तीन साल बाद बैंक को अपना चार्टर प्राप्त हुआ और इसे 2 जनवरी 1809 को बैंक ऑफ बंगाल के रूप में पुनगर्ठित किया गया। यह एक बैंक एवं वित्तीय संस्था है। इसका मुख्यालय मुंबई में है। यह एक अनुसूचित बैंक (scheduled अद्वितीय संस्था और ब्रिटेन शासित भारत का प्रथम संयुक्त पूंजी बैंक था जिसे बंगाल सरकार द्वारा प्रायोजित किया गया था। बैंक ऑफ बंगाल के बाद बैंक ऑफ बॉम्बे की स्थापना 15 अप्रैल 1840 को तथा बैंक ऑफ मद्रास की स्थापना 1 जुलाई 1843 को की गई। ये तीनो बैंक 27 जनवरी 1921 को उनका इंपीरियल बैंक ऑफ इंडिया के रूप में समामेलन होने तक भारत में आधुनिक बैंकिंग के शिखर पर रहे।

मूलत: एंग्लो-इंडियनों द्वारा सृजित तीनों प्रसिडेंसी बैंक सरकार को वित्त उपलब्ध कराने की बाध्यता अथवा स्थानीय यूरोपीय वाणिज्यिक आवश्यकताओं के चलते अस्तित्व में आए न कि किसी बाहरी दबाव के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था के आधुनिकीकरण के लिए इनकी स्थापना की गई। परंतु उनका प्रादुर्भाव यूरोप तथा इंग्लैंड में हुए इस प्रकार के परिवर्तनों के परिणामस्वरुप उभरे विचारों तथा स्थानीय व्यापारिक परिवेश व यूरोपीय अर्थव्यवस्था के भारतीय अर्थव्यवस्था से जुड़ने एवं विश्व-अर्थव्यवस्था के ढांचे में हो रहे परिवर्तनों से प्रभावित था।

स्थापना

बैंक ऑफ बंगाल की स्थापना के साथ ही भारत में सीमित दायित्व व संयुक्त-पूंजी बैंकिंग का आगमन हुआ। बैंकिंग क्षेत्र में भी इसी प्रकार का नया प्रयोग किया गया। बैंक ऑफ बंगाल को मुद्रा जारी करने की अनुमति देने का निर्णय किया गया। ये नोट कुछ सीमित भौगोलिक क्षेत्र में सार्वजनिक राजस्व के भुगतान के लिए स्वीकार किए जाते थे। नोट जारी करने का यह अधिकार न केवल बैंक ऑफ बंगाल के लिए महत्त्वपूर्ण था अपितु उसके सहयोगी बैंक, बैंक ऑफ बाम्बे तथा मद्रास के लिए भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण था अर्थात इससे बैंकों की पूंजी बढ़ी, ऐसी पूंजी जिसपर मालिकों को किसी प्रकार का ब्याज नहीं देना पड़ता था। जमा बैंकिंग अवधारणा भी एक नया कदम था क्योंकि देशी बैंकरों द्वारा भारत के अधिकांश प्रांतों में सुरक्षित अभिरक्षा हेतु राशि (कुछ मामलों में ग्राहकों की ओर से निवेश के लिए) स्वीकार करने का प्रचलन एक आम आदमी की आदत नहीं बन पाई थी। परंतु एक लंबे समय तक, विशेषकर उस समय जब तक कि तीनों प्रेसिडेंसी बैंकों को नोट जारी करने का अधिकार नहीं था बैंक नोट तथा सरकारी जमा-राशियाँ ही अधिकांशत: बैंकों के निवेश योग्य साधन थे।

तीनों बैंक रायल चार्टर के दायरे में कार्य करते थे, जिन्हें समय समय पर संशोधित किया जाता था। प्रत्येक चार्टर में शेयर-पूंजी का प्रावधान था जिसमें से पाँच-चौथाई निजी तौर पर दी जाती थी और शेष पर प्रांतीय सरकार का स्वामित्व होता था। प्रत्येक बैंक के कामकाज की देख-रेख करने वाले बोर्ड के सदस्य, ज्यादातर स्वत्वधारी-निदेशक हुआ करते थे जो भारत में स्थित बड़ी यूरोपीय प्रबंध एजेंसी गृहों का प्रतिनिधित्व करते थे। शेष सदस्य सरकार द्वारा नामित प्राय: सरकारी कर्मचारी होते थे जिनमें से एक का बोर्ड के अध्यक्ष के रूप में चयन किया जाता था।

व्यवसाय

प्रारंभ में बैंकों का व्यवसाय बट्टे पर विनिमय बिल अथवा अन्य परक्राम्य निजी प्रतिभूतियों को भुनाना, रोकड़ खातों का रख-रखाव तथा जमाराशियाँ प्राप्त करना व नकदी नोट जारी व परिचालित करना था। एक लाख रूपए तक ही ऋण दिए जाते थे तथा निभाव अवधि केवल 3 माह तक होती थी। ऐसे ऋणों के लिए जमानत सार्वजनिक प्रतिभूतियाँ थीं जिन्हें सामान्यतया कंपनी पेपर, बुलियन, कोष, प्लेट, हीरे-जवाहरात अथवा "नष्ट न होने वाली वस्तु" कहा जाता था तथा बारह प्रतिशत से अधिक ब्याज नहीं लगाया जा सकता था। अफीम, नील, नमक, ऊनी कपड़े, सूत, सूत से बनी वस्तुएँ, सूत कातने की मशीन तथा रेशमी सामान आदि के बदले ऋण दिए जाते थे परंतु नकदी ऋण के माध्यम से वित्त में तेजी केवल उन्नीसवीं सदी के तीसरे दशक से प्रारंभ हुई। सभी वस्तुएँ जिनमें चाय, चीनी तथा पटसन बैंक में गिरवी अथवा Òष्टिबंधक रखा जाता था जिनका वित्त-पोषण बाद में प्रारंभ हुआ। मांग-वचन पत्र उधारकर्ता द्वारा गारंटीकर्ता के पक्ष में जारी किए जाते थे जो बाद में बैंक को पृष्ठांकित कर दिए जाते थे। बैंको के शेयरों पर अथवा बंधक बनाए गए गृहों, भूमि अथवा वास्तविक संपत्ति पर उधार देना वर्जित था।

कंपनी पेपर जमा करके उधार लेने वालों में उधारकर्ता मुख्यतया भारतीय थे जबकि निजी एवं वेतन बिलों पर बट्टे के व्यवसाय पर मूल रूप से यूरोपीय नागरिकों तथा उनकी भागीदारी संस्थाओं का लगभग एकाधिकार था। परंतु जहाँ तक सरकार का संबंध है इन तीनों बैंको का मुख्य कार्य समय-समय पर ऋण जुटाने में सरकार की सहायता करना व सरकारी प्रतिभूतियों के मूल्यों को स्थिरता प्रदान करना था।

स्थितियों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन

बैंक ऑफ बंगाल, बॉम्बे तथा मद्रास के परिचालन की शर्तों में 1860 के बाद महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। 1861 के पेपर करेंसी एक्ट के पारित हो जाने से प्रेसिडेंसी बैंकों का मुद्रा जारी करने का अधिकार समाप्त कर दिया गया तथा 1 मार्च 1862 से ब्रिटेन शासित भारत में कागज़ी मुद्रा जारी करने का मूल अधिकार भारत सरकार को प्राप्त हो गया। नई कागजी मुद्रा के प्रबंधन एवं परिचालन का दायित्व प्रेसिडेंसी बैंको को दिया गया तथा भारत सरकार ने राजकोष में जमाराशियों का अंतरण बैंकों को उन स्थानों पर करने का दायित्व लिया जहाँ बैंक अपनी शाखाएँ खोलने वाले हों। तब तक तीनों प्रेसिडेंसी बैंकों की कोई शाखा नहीं थी (सिवाय बैंक ऑफ बंगाल द्वारा 1839 में मिरजापुर में शाखा खोलने के लिए किया गया एक मात्र छोटा सा प्रयास) जबकि उनके संविधान के अंतर्गत उन्हें यह अधिकार प्राप्त था। परंतु जैसे ही तीनों प्रेसिडेंसी बैंकों को राजकोष में जमाराशियों का बिना रोक-टोक उपयोग करने का आश्वासन मिला तो उनके द्वारा तेजी से उन स्थानों पर बैंक की शाखाएँ खोलना प्रारंभ कर दिया गया। सन् 1876 तक तीनों प्रेसिडेंसी बैंकों की शाखाएँ, अभिकरण व उप-अभिकरणों ने देश के प्रमुख क्षेत्रों तथा भारत के भीतरी भागों में स्थित व्यापार केंद्रो में अपना विस्तार कर लिया। बैंक ऑफ बंगाल की 18 शाखाएँ थीं जिसमें उसका मुख्यालय, अस्थायी शाखाएँ, तथा उप-अभिकरण शामिल हैं जबकि बैंक ऑफ बॉम्बे एवं मद्रास प्रत्येक की 15 शाखाएँ थीं।

प्रेसिडेंसी बैंक्स एक्ट

1 मई 1876 से लागू प्रेसिडेंसी बैंक्स एक्ट के द्वारा व्यवसाय पर एकसमान प्रतिबंधों के साथ तीन प्रेसिडेंसी बैंकों को एक समान कानून के अंतर्गत लाया गया। तथापि, तीन प्रेसिडेंसी नगरों में लोक ऋण कार्यालयों तथा सरकार की जमाराशियों के एक भाग की अभिरक्षा का कार्य बैंकों के पास होने के बावजूद सरकार का मालिकाना संबंध समाप्त कर दिया गया। इस एक्ट द्वारा कलकत्ता, बंबई एवं मद्रास में तीन आरक्षित कोषों के सृजन का प्रावधान किया गया जहाँ प्रेसिडेंसी बैंकों को केवल उनके प्रधान कार्यालयों में रखने के लिए निर्धारित न्यूनतम राशि से अधिक की जमाराशियाँ रखी जाती थीं। सरकार इन आरक्षित कोषों से प्रेसिडेंसी बैंकों को ऋण दे सकती थी परंतु ये बैंक उसे अधिकार के बजाय अनुग्रह के रूप में देखते थे।

प्रेसिडेंसी बैंकों के सामान्य नियंत्रण के बाहर आरक्षित कोषों में अतिरिक्त जमाराशियों को रखने के सरकार के निर्णय तथा उन नए स्थानों पर जहाँ शाखाएँ खोली जानी थी, सरकार की न्यूनतम जमाराशियों की गारंटी न देने के उससे जुड़े निर्णय से वर्ष 1876 के बाद नई शाखाओं की वृद्धि काफी बाधित हुई। पिछले दशक में हुए विस्तार की गति बहुत धीमी पड़ जाने के बावजूद बैंक ऑफ मद्रास के मामले में निरंतर मामली वृद्धि होती रही, क्योंकि इस बैंक को मुख्यतया प्रेसिडेंसी के बंदरगाह से लगे कई शहरों एवं देश के भीतरी केंद्रों के बीच होने वाले व्यापार से ही लाभ होता था।

भारत का रेल नेटवर्क देश के सभी प्रमुख क्षेत्रों तक विस्तारित होने के कारण 19वीं सदी के अंतिम 25 वर्षों में यहाँ पर तेजी से वाणिज्यीकरण हुआ। मद्रास, पंजाब तथा सिंध में नए सिंचाई नेटवर्कों के कारण निर्वाह फसलों को नकदी फसलों के रूप में परिवर्तित करने की प्रक्रिया ने जोर पकड़ा। इन नकदी फसलों में से कुछ हिस्से को विदेशी बाजारों को भेजा जाने लगा। चाय तथा कॉफी के बागानों के कारण पूवी तराई के बड़े क्षेत्र, असम एवं नीलगिरी के पर्वत उत्कृष्ट स्थावर कृषि क्षेत्र के रूप में रुपांतरित हो गए। इन सभी के परिणामस्वरुप, भारत के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में छह गुना विस्तार हुआ।

तीनों प्रेसिडेंसी बैंक उप-महाद्वीप के प्रत्येक व्यापार, विनिर्माण एवं उत्खनन की गतिविधि के वित्तपोषण में व्यावहारिक रूप से सम्मिलित हो जाने के कारण ये बैंक वाणिज्यिकरण की इस प्रक्रिया के लाभाथी एवं प्रवर्तक दोनों रहे। बंगाल एवं बंबई के बैंक बड़े आधुनिक विनिर्माण उद्योगों के वित्तपोषण में लगे थे, जबकि बैंक ऑफ मद्रास लघु उद्योगों का वित्तपोषण करने लगा जैसे अन्यत्र कहीं भी होता नहीं था। परंतु इन तीनों बैंकों को विदेशी मुद्रा से जुड़े किसी भी व्यवसाय से अलग रखा गया। सरकारी जमाराशियों को रखने वाले इन बैंकों के लिए ऐसा व्यवसाय जोखिम माना गया साथ ही यह भय भी महसूस किया गया कि सरकारी संरक्षण प्राप्त इन बैंकों से उस समय भारत में आए विनिमय बैंकों के लिए एक अनुचित प्रतिस्पर्धा उत्पन्न होगी। वर्ष 1935 में भारतीय रिज़र्व बैंक का गठन होने तक इन बैंकों को इस व्यवसाय से अलग रखा गया।

बंगाल के प्रेसिडेंसी बैंक

बंगाल, बंबई एवं मद्रास के प्रेसिडेंसी बैंकों को उनकी 70 शाखाओं के साथ वर्ष 1921 में विलयन कर इंपीरियल बैंक ऑफ इंडिया की स्थापना की गई। इन तीनों बैंकों को एक संयुक्त संस्था के रूप में रुपांतरित किया गया तथा भारतीय वाणिज्यिक बैंकों के बीच एक विशाल बैंक का प्रादुर्भाव हुआ। इस नए बैंक ने वाणिज्यिक बैंकों, बैंकरों के बैंक एवं सरकार के बैंक की तिहरी भूमिकाएँ निभाना स्वीकार किया।

परंतु इस गठन के पीछे भारतीय स्टेट बैंक की आवश्यकता पर वर्षों पहले किया गया विचार-विमर्श शामिल था। अंत में एक मिली-जुली संस्था उभर कर सामने आई जो वाणिज्यिक बैंक एवं अर्ध-केंद्रीय बैंक के कार्य निष्पादित करती थी।

वर्ष 1935 में भारत के केंद्रीय बैंक के रूप में भारतीय रिज़र्व बैंक के गठन के साथ इंपीरियल बैंक की अर्ध-केंद्रीय बैंक की भूमिका समाप्त हो गई। इंपीरियल बैंक भारत सरकार का बैंक न रहकर ऐसे केंद्रों में जहाँ केंद्रीय बैंक नहीं है, सरकारी व्यवसाय के निष्पादन के लिए भारतीय रिज़र्व बैंक का एजेंट बन गया।

परंतु वह करेंसी चेस्ट एवं छोटे सिक्कों के डिपो का तथा भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा निर्धारित शर्तों पर अन्य बैंकों एवं जनता के लिए विप्रेषण सुविधा योजना परिचालित करने का कार्य निरंतर करता रहा। वह बैंकरों का अतिरिक्त नकद अपने पास रखकर तथा प्राधिकृत प्रतिभूति पर उन्हें ऋण देकर उनके बैंक के रूप में भी कार्य करने लगा। ऐसे कई स्थानों पर बैंक समाशोधन गृहों का प्रबंधन भी करता रहा जहाँ पर भारतीय रिज़र्व बैंक के कार्यालय नहीं थे। यह बैंक सरकार की तरफ से रिज़र्व बैंक द्वारा आयोजित राजकोषीय बिल नीलामियों में सबसे बड़ा निविदाकर्ता भी रहा।

रिज़र्व बैंक की स्थापना के बाद इंपीरियल बैंक को एक वाणिज्यिक बैंक के रूप में परिवर्तित करने के लिए उसके संविधान में महत्त्वपूर्ण संशोधन किए गए। उसके व्यवसाय पर पूर्व में लगाए गए प्रतिबंधों को हटाया गया तथा पहली बार बैंक को विदेशी मुद्रा व्यवसाय करने तथा निष्पादक एवं न्यासी व्यवसाय करने की अनुमति दी गई।

इंपीरियल बैंक

इंपीरियल बैंक ने अपने अस्तित्व के बाद से साढ़े तीन दशकों के दौरान कार्यालयों, आरक्षित निधियों, जमाराशियों, निवेशों एवं अग्रिमों के रूप में बहुत ही प्रभावशाली वृद्धि दर्ज की। कुछ मामलों में यह वृद्धि छह गुना से भी अधिक रही।

पूर्ववर्तियों से विरासत में प्राप्त वित्तीय स्थिति और सुरक्षा व्यवस्था ने असंदिग्ध रूप से बैंक को एक ठोस और मजबूत प्लेटफार्म प्रदान किया। इंपीरियल बैंक ने बैंकिंग की जिस गौरवपूर्ण परंपरा का नियमित रूप से पालन किया तथा अपने परिचालनों में जिस प्रकार की उच्च स्तरीय सत्यनिष्ठा का प्रदर्शन किया उससे जमाकर्ताओं में, जिस तरह का आत्मविश्वास था उसकी बराबरी उस समय के किसी भी भारतीय बैंक के लिए संभव नहीं थी। इन सबके कारण इंपीरियल बैंक ने भारतीय बैंकिंग उद्योग में अति विशिष्ट स्थिति प्राप्त की तथा देश के आर्थिक जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान भी प्राप्त किया। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय इंपीरियल बैंक का पूंजी-आधार आरक्षितियों सहित 11.85 करोड़ रूपए था। जमाराशियाँ और अग्रिम क्रमश: 275.14 करोड़ रूपए और 72.94 करोड़ रूपए थे तथा पूरे देश में फैला 172 शाखाओं और 200 उप कार्यालयों का नेटवर्क था।

प्रथम पंचवषीय योजना

वर्ष 1951 में जब प्रथम पंचवषीय योजना शुरु हुई तो देश के ग्रामीण क्षेत्र के विकास को इसमें सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई। उस समय तक इंपीरियल बैंक ऑफ इंडिया सहित देश के वाणिज्यिक बैंकों का कार्य-क्षेत्र शहरी क्षेत्र तक ही सीमित था तथा वे ग्रामीण क्षेत्रों के आर्थिक पुनर्निर्माण की भावी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पूरी तरह तैयार नहीं थे। अत: सामान्यत: देश की समग्र आर्थिक स्थिति और विशेषत: ग्रामीण क्षेत्र की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अखिल भारतीय ग्रामीण ऋण सर्वेक्षण समिति ने इंपीरियल बैंक ऑफ इंडिया का अधिग्रहण कर उसमें सरकार की भागीदारी वाले और सरकार द्वारा प्रायोजित एक बैंक की स्थापना करने की सिफारिश की जिसमें पूर्ववती राज्यों के स्वामित्व वाले या राज्य के सहयोगी बैंकों का एकीकरण करने का भी प्रस्ताव किया गया।

तदनुसार मई 1955 में संसद में एक अधिनियम पारित किया गया तथा 1 जुलाई 1955 को भारतीय स्टेट बैंक का गठन किया गया। इस प्रकार भारतीय बैंकिंग प्रणाली का एक चौथाई से भी अधिक संसाधन सरकार के सीधे नियंत्रण में आ गया। बाद में, 1959 में भारतीय स्टेट बैंक (अनुषंगी बैंक) अधिनियम पारित किया गया जिसके फलस्वरुप भारतीय स्टेट बैंक ने पूर्ववती राज्यों के आठ सहयोगी बैंकों का अनुषंगी के रूप में अधिग्रहण किया (बाद में इन्हें सहयोगी बैंक का नाम दिया गया) इस प्रकार भारतीय स्टेट बैंक का प्रादुर्भाव सामाजिक उद्देश्य के नए दायित्व के साथ हुआ।

बैंक के कुल 480 कार्यालय थे, जिनमें शाखाएं, उप कार्यालय तथा इंपीरियल बैंक से विरासत में प्राप्त तीन स्थानीय प्रधान कार्यालय भी थे। जनता की बचत को जमा करना और ऋण के लिए सुपात्र लोगों को ऋण देने की परंपरागत बैंकिंग की जगह प्रयोजनपूर्ण बैंकिंग की नई अवधारणा विकसित हो रही थी जिसके तहत योजनाबद्ध आर्थिक विकास की बढ़ती हुई और विविध आर्थिक आवश्यकताओं को पूरा करना था। भारतीय स्टेट बैंक को इस क्षेत्र में अग्रदूत होना था तथा उसे भारतीय बैंकिंग उद्योग को राष्ट्रीय विकास के रोमांचक मैदान तक ले जाना था।

सहयोगी बैंक

सन्दर्भ

  1. "संग्रहीत प्रति". मूल से 19 अगस्त 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 8 अक्तूबर 2013.
  2. "संग्रहीत प्रति". मूल से 13 जनवरी 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 8 अक्तूबर 2013.
  3. https://www.cnbctv18.com/business/finance/state-bank-of-india-cuts-headcounts-25000-five-years-19411821.htm. गायब अथवा खाली |title= (मदद)
  4. "SBI customer base".
  5. "SBI joins Rs 5-trillion market cap club; stock surges 26% in three months".
  6. "SBI becomes third Indian lender to surpass Rs 5 trillion market cap".
  7. "संग्रहीत प्रति". मूल से 3 सितंबर 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 31 अगस्त 2014.

बाहरी कड़ियाँ