भारतीय कर व्यवस्था

भारत की कर व्यवस्था
(भारत में कराधान से अनुप्रेषित)

सामान्य रूप से शासन सम्बंधी कार्यसंचालन के लिए व्यक्तिगत इकाइयों पर अनिवार्य उद्ग्रहण के रूप में कर (टैक्स) लगाए जाते हैं। करों को सामान्यत: राजस्ववृद्धि का ही साधन माना जाता है किंतु राष्ट्र की अर्थनीति को भी ये प्रभावित करते हैं। कर लगाने का उद्देश्य विकास कार्यों के लिये धन एकत्र करना तथा यथासंभव राष्ट्र की विषमता को दूर करना है। इसीलिए जिनकी अधिक आय है, उन्हें कम आयवालों की अपेक्षा अधिक मात्रा में कर देना पड़ता है।

उद्देश्य संपादित करें

शासन की अन्य नीतियों के सामंजस्य पर आधारित कराधान का व्यापक उद्देश्य जनता का अधिकाधिक कल्याण करना है। तात्विक कार्यो के सम्यक्‌ सम्पादन के लिए करों द्वारा ही शासन को आर्थिक दृढ़ता प्राप्त होती है। साथ ही सामाजिक और आर्थिक भलाई भी करों द्वारा होती है क्योंकि कर समाज में व्याप्त अत्याधिक आर्थिक विषमताओं को कम करते हैं, जिससे महार्घता और युद्धकालिक अपसंचय प्रवृत्ति को रोककर राष्ट्र में आर्थिक दृढ़ता स्थापित करने में सहयोग प्राप्त होता है।

इतिहास संपादित करें

मनुष्य जाति के इतिहास मे बहुत बाद में चलकर शासन ने राजस्ववृद्धि के लिए करों का आश्रय लिया था, विशेषकर ऐसे करों का जो उचित रूप से लगाए जाते थे और जिनके सम्बंध में शासित जनों की सहमति ले ली जाती थी। शताब्दियों तक सार्वजनिक क्षेत्रों से ही मुख्य रूप से राजस्व का संकलन किया जाता था जिसमें घरेलू उपभोग की वस्तुओं पर लगाए गए उत्पादन शुल्क और विदेशी व्यापार पर लगाए गए सीमाशुल्क का स्थान मुख्य था। दास, अधीनस्थ, किसान, विजित तथा अन्य विशेषाधिकार रहित लोगों का यह कर्तव्य माना जाता था कि वे शासकीय वर्ग के लोगों का शुल्क आदि से पोषण करें। करों को दासता के बंधन के रूप में नहीं, अपितु स्वातंत्र्य के चिह्न के रूप में मान्यता देना आधुनिक युग की बात है।

भारत में भी, प्राचीन काल से वर्तमान प्रत्‍यक्ष कर प्रणाली किसी न किसी रूप में चलती आ रही है। मनुस्‍मृति और अर्थशास्‍त्र, दोनों में अनेक प्रकार के करों के संदर्भ मिलते है। मनु ने कहा है कि शास्‍त्रों के अनुसार राजा कर लगा सकता है। उन्होने सलाह दी थी कि करों का संबंध, प्रजा की आय तथा व्‍यय से होना चाहिए। मनु ने अत्यधिक कराधान के प्रति राजा को आगाह किया है कि दोनों चरम सीमाओं अर्थात करों के पूर्ण अभाव और हद से अधिक कराधान से बचना चाहिए। उसके अनुसार, राजा को करों की वसूली की ऐसी व्‍यवस्‍था करनी चाहिए कि प्रजा करों की अदायगी करते समय कठिनाई महसूस न करें। उनने कहा था कि व्‍यापारियों तथा कारीगरों को चांदी और सोने के व्‍यापार में होने वाले अपने लाभ का पांचवां हिस्‍सा और किसानों को अपनी उपज का छठा, आठवां या दसवां हिस्‍सा, अपनी हालात के आधार पर, कर के रूप में भुगतान करना चाहिए।

योऽरक्षन्बलिमादत्ते करं शुल्कं च पर्थिवः। प्रतिभाग च दण्ड च सः सद्यो नरक व्रजेत्॥ (मनुस्मृति ८.३०७)
(जो राजा प्रजा की रक्षा न करता हुआ, प्रजा से अन्न का छठा भाग, कर तथा शुल्क (चुंगी) आदि और दण्ड के भाग को ग्रहण करता है वह राजा शीघ्र ही दुर्गति को प्राप्त हो नरक में जाता है।)
यथाल्पाल्पमदन्त्याद्या वार्योकोवत्सषट्पदा। तथाल्पाल्पो ग्रहीतव्यो राष्ट्रादाज्ञाब्दिकः करः॥ (मनुस्मृति ७.१२९)
(जैसे जोंक, बछड़ा और भंवरा थोड़े–थोड़े भोग्य पदार्थ को ग्रहण करते हैं वैसे राजा प्रजा से थोड़ा–थोड़ा वार्षिक कर लेवे।)
यथा फलेन युज्येत राजा कर्त्ता च कर्मणाम्। तथावेक्ष्य नृपो राष्ट्र कल्पयेत्सतत करान्॥ (मनुस्मृति ७.१२८)
(जैसे राजा और कर्मों का कर्ता राजपुरूष व प्रजाजन सुखरूप फल से युक्त होवे, वैसे विचार करके राजा तथा राज्यसभा राज्य में कर–स्थापन करे।)
क्रयविक्रयमध्वानं भक्त व सपरिव्ययमू। योगक्षेम च संप्रेक्ष्य वणिजो दापयेत्करान्॥ (मनुस्मृति ७.१२७)
(खरीद और बिक्री भोजन तथा भरण-पोषण का व्यय और लाभ इन सब बातों पर विचार करके राजा को व्यापारी से कर लेने चाहिए।)

मनु द्वारा इस विषय पर दिए गए विस्तृत विश्लेषण से स्पष्ट है कि प्राचीन समय में भी एक सुनियोजित कराधान प्रणाली अस्तित्व में थी। केवल यही नहीं, अभिनेताओं, नर्तकों, गायकों और नाचने वाली लड़कियों जैसे विभिन्‍न वर्गों के लोगों पर भी कर लगाए जाते थे। करों की अदायगी, सोने के सिक्कों, पशुओं, अनाज, कच्चे माल के साथ साथ व्‍यक्तिगत सेवा प्रदान करके भी की जाती थी।

प्राचीन भारत में कराधान प्रणाली पर टिप्‍पणी करते हुए प्रसिद्ध लेखक के बी सरकार ने अपनी पुस्‍तक 'प्राचीन भारत में सार्वजनिक वित्‍त' (1978 संस्‍करण) में लिखा है कि 'प्राचीन भारत के अधिकांश कर अत्‍याधिक उत्‍पादक थे। कर प्रणाली में प्रत्‍यक्ष करों के साथ अप्रत्‍यक्ष करों का मिश्रण सुरक्षित व लचीला था, हालांकि प्रत्‍यक्ष कर पर ज्‍यादा अधिक जोर था। यह कर प्रणाली का व्‍यापक आधार था और इस के तहत अधिकांश व्‍यक्ति आते थे। करों में विविधता थी और करों की व्‍यापक विविधता से बहुत बड़ी तथा मिश्रित आबादी की जीवन शैली परिलक्षित होती थी।'

कौटिल्‍य के अर्थशास्‍त्र में, कराधान प्रणाली को वास्तविक, व्यापक और सुनियोजित व्‍यवस्‍था प्रदान की गई। कौटिल्य द्वारा रचित अर्थशास्‍त्र का बहुत बड़ा भाग वित्‍तीय प्रशासन सहित वित्‍तीय मामलों को समर्पित है। राजनीति विशेषज्ञों के अनुसार, मौर्यकालीन प्रणाली में, जहां तक कृषि का संबंध है, भूमि का स्‍वामित्‍व एक प्रकार से राज्‍य के पास था और भू-राजस्‍व की वसूली, राज्‍य की आय का एक प्रमुख स्रोत थी। राज्‍य द्वारा कृषि उत्‍पादन के एक हिस्‍से को, जोकि आम-तौर पर कृषि उपज का छठा हिस्‍सा था, ही वसूल नहीं किया जाता था। वानिक उपज तथा धातुओं आदि के खनन से भी करों की वसूली की जाती थी। नमक कर भी राजस्‍व का एक महत्‍वपूर्ण स्रोत था तथा इसकी वसूली, इसकी निकासी के स्थान पर की जाती थी।

कौटिल्य ने दूसरे देशों के साथ किए जा रहे व्यापार और वाणिज्य पर विस्‍तार से चर्चा की है और ऐसे व्‍यापार को बढ़ावा देने को मौर्य साम्राज्य की सक्रिय रुचि में बताया है। माल को चीन, श्रीलंका और अन्‍य देशों से आयात किया जाता था और देश में आयातित समस्‍त विदेशी माल पर 'वर्तनम' के नाम से लेवी ली जाती थी। विदेशी माल का आयात करने वाले संबंधित व्यापारी द्वारा 'दर्वोदय' नामक अन्‍य लेवी का भुगतान करना होता था। इसके अतिरिक्‍त, कर वसूली को बढ़ाने के लिए, सभी प्रकार की नौकाओं पर शुल्‍क लगाया गया था।

भारत में 18वीं शताब्दी के मध्य में अंग्रेजों के आगमन के पूर्व भूमिकर के अतिरिक्त देश के भिन्न-भिन्न भागों में भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रत्यक्ष कर भी लगाए जाते थे। किंतु इन सब में भूमिकर ही प्रधान था। कुछ काल तक अंग्रेजों ने उनमें से अधिकांश उद्ग्रहणों को जारी रखा किंतु कालांतर में उन्हें बंद कर दिया। एक समय ऐसा भी था जब भूमिकर के अतिरिक्त देश में अन्य किसी प्रकार का प्रत्यक्ष कर नहीं ग्रहण किया जाता था। भारत में सन्‌ 1860 में प्रथम बार आयकर की व्यवस्था की गई। 1886 में इसे भारतीय करप्रणाली का स्थायी अंग बना दिया गया, किंतु इसके पूर्व यह शासनव्यवस्था में उत्पन्न हुई आर्थिक कठिनाइयों के निवारण के लिए समय समय पर अल्प मात्रा में ही लगाया जाता था। प्रथम विश्वयुद्ध के समय शासन का खर्च अत्याधिक बढ़ जाने के कारण इस कर का महत्व बढ़ गया और राजस्ववृद्धि का यह एक प्रमुख स्रोत बन गया। सन्‌ 1917 में क्रमानुपातिक अधिकार (सुपरटैक्स) तथा 1918 में अधिलाभकर (ऐक्सेस प्रॉफिट टैक्स) का प्रवर्तन किया गया।

भारत में आयकर लगाने और वसूल करने की पद्धति को नियमित रूप देने के लिए सन्‌ 1922 में एक समेकित (कॉनसालिडेटेड) अधिनियम पारित किया गया था। भारतीय आयकर अधिनियम 1922 की संज्ञा से ज्ञात यह अधिनियम 31 मार्च 1962 तक व्यवहार में रहा। समय-समय पर इसमें संशोधन किए जाते रहे और अंत में यह आवश्यक हो गया कि इसे बदल दिया जाए। सितंबर, 1961 में राष्ट्रपति ने आयकर अधिनियम 1961 को अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी और 1 अप्रैल 1962 से इस नए अधिनियम ने सन्‌ 1922 के अधिनियम का स्थान ले लिया।

प्रमुख कर संपादित करें

आयकर के अतिरिक्त केंद्रीय शासन ने चार अन्य मुख्य उद्ग्रहणों की भी व्यवस्था की है जिनके नाम हैं : संपदा शुल्क 1953, धनकर 1957, उपहारकर 1958 तथा व्ययकर 1958.

अन्य कर संपादित करें

उपर्युक्त करों के अतिरिक्त कतिपय उपभोग करों की व्यवस्था है जो सामान्यत: उपभोक्ताओं को अधिक मूल्य के रूप में देने पड़ते हैं, यद्यपि आरंभिक रूप में ये कर उत्पादकों तथा वितरकों पर ही लगाए जाते हैं। इस प्रकार के करो को प्राय: 'अप्रत्यक्ष कर' कहा जाता है। उत्पादन की विभिन्न अवस्थाओं में स्थूल आय या मूल्य के आधार पर ये कर अधिकतर चल करों के रूप में लगाए जाते हैं, जैसे निर्माण की थोक तथा खुदरा अवस्थाओं में विक्रय एवं क्रय कर। अधिक सीमित रूपों में ये कर विलासिता की तथा बहुत सी अन्य वस्तुओं पर उत्पादन शुल्क के रूप में लगे दीख पड़ते हैं। भारतीय संघीय शासन अंतरप्रांतीय विक्रय पर केंद्रीय विक्रय कर तथा बहुत सी अन्य सामग्रियों पर उत्पादन शुल्क का उद्ग्रहण करता है। विभिन्न प्रांतीय शासन भी प्रदेश की सीमा के अंतर्गत विक्रय की गई वस्तुओं पर बिक्रीकर का उद्ग्रहण करते हैं।

सामान्य वर्गीकरण संपादित करें

करों के आधार वा स्रोतपरक वर्गीकरण के अतिरिक्त अत्यंत महत्वपूर्ण वर्गीकरणों में एक है - उत्कर्षपरक, आनुपातिक तथा अपकर्षपरक विभाजन। यह वर्गीकरण विशुद्ध आय की तुलना में प्रभावशाली अर्घ अनुपात में भी वृद्धि होती है अर्थात्‌ जब किसी व्यक्ति की आय में वृद्धि के साथ-साथ उस आय पर निर्धारित किए जानेवाले कर के प्रतिशत में भी वृद्धि होती चलती है, तब उस स्थिति में वह वृद्धिशील कर है। यह आयवृद्धि से कर के प्रतिशत पर कोई प्रभाव न पड़े तो कर आनुपातिक है। जब आयवृद्धि के साथ कर का प्रतिशत न्यून होता चले तब कर अपकर्षपरक है। ये संज्ञाएँ विशिष्ट कर एवं सामान्य कर व्यवस्था-दोनों में व्यवहार्य हैं। विशिष्ट करों में व्यक्तिगत आयकर, मृत्युकर तथा उपहारकर प्राय: सार्वत्रिक उत्कर्षपरक हैं। अधिकतर संपत्ति, विक्रय तथा उत्पादन सम्बंधी करों का आनुपातिक रूप में उद्ग्रहण किया जाता है किंतु व्यवहार में ये कर अपकर्षपरक होते हैं। उदाहरण के लिए अधिक आय की अपेक्षा कम आय पर लगा 7% कर राशि में अधिक है क्योंकि कम आय पर अधिक मर्दे करार्ह होती हैं बनिस्बत अधिक आय के।

प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों में दीख पड़नेवाला भेद ऐसा है जो बहुत प्रचलित है। सामान्यत: प्रत्यक्ष कर उस व्यक्ति को अदा करना पड़ता है जिसपर यह लगाया जाता है। अप्रत्यक्ष कर वह है जो वास्तविक करदाता या तो वस्तुओं का दाम बढ़ाकर दूसरों से इसे वसूलता है या फिर स्वयं वस्तुओं का कम मूल्य देकर इस कर से मुक्त रहता है। तब भी बहुत बार यह निश्चय कर पाना बड़ा कठिन हो जाता है कि कर प्रत्यक्ष है या अप्रत्यक्ष। व्यवहार में आय, मृत्यु, उपहार और भूमि से सम्बंधित करों को प्रत्यक्ष माना जाता है। उपभोग करों को सामान्यत: अप्रत्यक्ष माना जाता है। साधारणतया प्रत्यक्ष कर ही दानक्षमता के सिद्धांत पर आधारित होते हैं।

भारतीय केंद्रीय कर संपादित करें

भारत की तरह के संघीय संविधान में कराधान का अधिकार केंद्र में तथा प्रदेशों अथवा इकाइयों में विभक्त कर दिया जाता है। इन अधिकारों को दृष्टिगत रखते हुए कुछ वस्तुओं पर केंद्र कर लगा सकता है और कुछ वस्तुएँ ऐसी होती हैं जिनपर राज्य कर लगा सकते हैं। उदाहरण के लिए भारतीय संविधान के अनुसार आय, उपहार, धन, व्यय और संपदा से सम्बंधित कर संघीय शासन द्वारा निर्धारित किए जाते हैं तथा राज्य शासन विक्रय, मनोरंजन और कृषि सम्बंधी उत्पादनों पर कर लगाते हैं।

आयकर संपादित करें

भारत में व्यक्ति, व्यवसाय संघ, संयुक्त हिंदू परिवार, व्यक्तियों के समुदाय, स्थानीय निकायों और कंपनियों पर आयकर अधिनियम 1961 के अधीन आयकर लगाने की व्यवस्था है। इन इकाइयों को कुछ विशेष स्थितियों के आधार पर स्थूल रूप से वसतिपरक और वसतिरहित इन दो श्रेणियों में विभक्त कर दिया गया है। दोनों पर निर्धारित किए जानेवाले कर में भी भेद है। वसतिपरक पर करनिर्धारण भारत या बाहर से हुई उसकी कुल आय पर कर लगता है जो उसे भारत के अंतर्गत हुई हो। व्यक्तिगत आय पर कर उत्कर्षपरक होता है; आय के प्रत्येक फलक (ब्लॉक) पर यह बढ़ता रहता है।

धारा 10 के अनुसार आय की कुछ मदें करदाता की पूर्ण आय में सम्मिलित नहीं की जातीं, इसलिये वे (मर्दे) करों से भी मुक्त हैं : जैसे : कृषि संबंधी आय, छात्रवृत्तियाँ आदि।

आय को छह 'मदों' वा श्रेणियों में विभक्त किया गया है - वेतनों से आय, जमा राशियों पर ब्याज, मकानों से आय, व्यापार तथा व्यवसाय में मुनाफा या लाभ, पूँजी से लाभ तथा अन्य साधनों से आय। इस विभाजन का उपयोग केवल इतना है कि तत्सम्बंधी नियम उनपर लागू किए जा सकें। विभिन्न श्रेणियों की आय एक साथ जोड़ ली जाती है और कुल आय पर वर्तुलाकार रूप से कर का निरूपण किया जाता है। कर की दरें करदाता की कुल आय को ध्यान में रखकर निर्धारित की जाती हैं। कुल आय से अभिप्राय करदाता की शुद्ध आय से है, निर्धारित छूटों को छोड़कर।

'कर निरूपण वर्ष' के लिए कर का निर्धारण करदाता को 'पूर्व वर्ष' में हुई आय के आधार पर किया जाता है। 'करनिरूपण वर्ष' से अभिप्राय उस वित्तीय वर्षपरिमाण से है जो 1 अप्रैल से प्रारंभ होता है और आनेवाले वर्ष में 31 मार्च को समाप्त होता है। 'पूर्व वर्ष' से अभिप्राय उस वित्तीय वर्ष से है जो 'निरूपण वर्ष' प्रारंभ होने के ठीक पूर्व समाप्त होता है।

अधिनियम के घाटे को अलग कर देने और आगे ले जाने की तथा अंतराष्ट्रीय दोहरे कराधान से बचाव की भी व्यवस्था है।

प्रशासन संपादित करें

आयकर प्रशासन की व्यवस्था के लिए आयकर अधिकारियों की नियुक्ति की जाती है, जिनमें प्रारंभिक हैं निरीक्षक सहायक आयुक्त, अपीलीय सहायक आयुक्त तथा अपीलीय न्यायाधिकरण। अपीलीय न्यायाधिकरण के किसी निर्णय के सम्बंध में उच्च न्यायलय में अर्जी दी जा सकती है तथा जरूरत होने पर उच्चतम न्यायालय में भी अपील की जा सकती है।

सामान्यत: सभी करदाताओं से अपेक्षा की जाती है कि वे कर निर्धारण वर्ष समाप्त होने के बाद 30 जून तक पूरा विवरण अधिकारियों के पास भेज दें। ये विवरण केवल सूचनापरक होते हैं। विवरणों में दी गई या उसके पास उपलब्ध किसी भी अन्य सूचना के आधार पर आयकर अधिकारी कर का निर्धारण करता है। यदि आयकर अधिकारियों को लगे कि किसी व्यक्ति ने वास्तविक आय को अथवा आय से सम्बंधित दस्तावेजों को छिपाया है, उस अवस्था में दस्तावेजों की जाँच या दस्तावेज एवं धनराशि अपने अधिकार में करने के लिए उन्हें अधिनियम में पर्याप्त अधिकार दिए गए हैं।

संपदा शुल्क (एस्टेट ड्यूटी) संपादित करें

सम्पत्ति और उत्तराधिकार विषयक करों के निर्धारण के लिए संविधान द्वारा केंद्रीय शासन को प्रदत्त विशेष अधिकारों के अधीन केंद्रीय शासन ने संपदा शुल्क अधिनियम पारित कर सन्‌ 1953 में प्रथम बार संपदा शुल्क का उद्ग्रहण किया था। यह शुल्क इंग्लैंड में निर्धारित संपदा शुल्क पर आधारित है।

किसी व्यक्ति की मृत्यु पर उसके उत्तराधिकारी को मिली या मिलनेवाली सम्पूर्ण सम्पत्ति के 'प्रधान मूल्य' पर सम्पदा शुल्क का उद्ग्रहण किया जाता है। यह सम्पत्ति चल भी हो सकती है और अचल भी हो सकती है। प्रधान मूल्य से अभिप्राय उस मूल्य से है जितने में मृत व्यक्ति की मृत्यु के समय सम्पति को खुले बाजार में बेचा जा सके। यहाँ अचल सम्पत्ति को अंतर्ग्रहण महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे सम्पदा शुल्क के अंतर्गत अनेक ऐसी मर्दे आ जाती हैं जो अन्यथा इस कर के दायरे के बाहर मान ली जा सकती हैं। किसी व्यक्ति के लिए प्रत्यक्ष या प्रन्यास के माध्यम से उत्तराधिकार रूप में निश्चित सम्पत्ति अवस्थापित मानी गई है। संपदा शुल्क अधिनियम उन सभी व्यक्तियों पर लागू होता है ¾

  • (1) जो भारत के अधिवासी हैं। उनकी मृत्यु के समय उनकी
  • (अ) भारत में स्थित चल तथा अचल सम्पत्ति, एवं
  • (ब) भारत के बाहर स्थित चल सम्पत्ति करार्ह होगी।
  • (2) जो भारत के अधिवासी नहीं हैं, उनकी मृत्यु के समय भारत में स्थित उनकी चल तथा अचल संपत्ति करार्ह होगी एवं-
  • (3) जो भारत के बाहर स्थित चल अवस्थापित सम्पत्ति का मृत्यु पर्यंत अभोगी रहा हो किंतु शर्त यह कि अवस्थापक अवस्थापन के समय भारत का अधिवासी रहा हो तो उसकी वह संपत्ति करार्ह होगी।

घरेलू सामान, परिधान, भारत के बाहर स्थित अचल सम्पत्ति आदि बहुत सी मर्दे धारा 33 के अनुसार शुल्क से मुक्त हैं। संपदा शुल्क की दर निर्धारित करते समय इन मदों की गणना नहीं की जाती। कुछ मदें ऐसी हैं जिन्हें यद्यपि संपदा शुल्क से मुक्त माना गया है, तथापि शुल्क की दर तै करते समय उन्हें कुल सम्पदा में गिनने की व्यवस्था है (धारा 34 (1))। कुल सम्पदा पर जिस दर से कर का निर्धारण किया जाता है, उसी अनुपात में मुक्त सम्पत्ति पर जितना कर बैठता है, उतना कर माफ कर दिया जाता है।

अधिनियम में सम्पदा के मान में से बहुत सी अन्य कटौतियों की भी व्यवस्था है, जैसे अंतिम संस्कार के लिए। यह कटौती सम्पत्ति के उस भाग पर लगनेवाले सम्पदा शुल्क में की जाती है जिस भाग पर मृत व्यक्ति की मृत्युतिथि से पाँच वर्ष पूर्व तक पूर्वाधिकारी की मृत्यु के समय कर का उद्ग्रहण किया जा चुका है (धारा 31); उदाहरण के लिए इस प्रकार की सम्पत्ति पर लगनेवाले कर में 100% कटौती कर दी जाती है यदि उत्तराधिकारी पूर्व मृत व्यक्ति से तीन महीने के अंदर अंदर मर जाता है तो कर में 50% की छूट दे दी जाती है (इसी प्रकार कुछ अन्य व्यवस्थाएँ भी हैं)।

केंद्रीय शासन को यह अधिकार है कि वह अन्य देशों के साथ इस प्रकार के पारस्परिक अनुबंध बना सके जिससे किसी व्यक्ति को भारतीय और विदेशी सम्पदा करों के अधीन दोहरा कर न देना पड़े (धारा 30)।

प्रशासन और प्रक्रिया संपादित करें

सम्पदा शुल्क का प्रशासन और उसे उगाहने का काम सम्पदा शुल्क नियंत्रकों द्वारा सम्पादित किया जाता हैं। केंद्रीय शासन द्वारा नियुक्त ये निंयत्रक राजस्व के केंद्रीय बोर्ड की सामान्य देखरेख में अपना काम करते हैं। अपीलीय नियंत्रकों को और अपीलीय न्यायधिकरण को अपीलें सुनने का अधिकार होता है। इसके बाद उच्च न्यायालय में भी अपील की जा सकती है।

मृतक के वैधानिक प्रतिनिधि, जिन्हें मृतक की मृत्यु के बाद सम्पत्ति मिलती है तथा प्रत्ययी, जो मृतक की मृत्यु के बाद सम्पत्ति के प्रबंधक बनते हैं अथवा सम्पत्ति के किसी हिस्से में भागीदार बनते हैं उनसे अपेक्षा की जाती है कि मृतक की मृत्यु के अनंतर छह महीनों के अंदर अंदर सम्पदा शुल्क नियंत्रक के पास 'खाते' प्रस्तुत कर दें (धारा 53)। विवरणों तथा लेखों से संतुष्ट होने पर नियंत्रक शुल्क का निर्धारण करेगा एवं संबद्ध व्यक्तियों को माँग की नोटिस देगा जिसमें उल्लिखित समय तथा स्थान पर उन्हें शुल्क की रकम जमा कर देनी चाहिए।

धनकर (वेल्थ टेक्स) संपादित करें

निकोलस काल्डोर की संस्तुतियों पर अप्रैल, 1957 में प्रथम बार भारत में शुद्ध धन पर कर की व्यवस्था की गई थी। कैंब्रिज विश्वविद्यालय के काल्डोर महोदय ने भारतीय शासन की प्रार्थना पर भारतीय करप्रणाली का अध्ययन करने के बाद उक्त संस्तुतियाँ की थीं।

'मूल्य निर्धारण तिथि' को करदाता के पास कुल जितना कर योग्य या करार्ह शुद्ध धन हो, उसी पर धनकर का वार्षिक उद्ग्रहण किया जाता है। शुद्ध धन से अभिप्राय है गणना के वर्ष के अंतिम दिन करदाता के पास जितनी परिसंपत्तियाँ हों, उन सबका कुल मूल्य। किसी भी परिसम्पत्ति का मूल्य वही माना जाएगा, जितने में पह परिसंपत्ति मूल्यनिर्धारण तिथि को खुले बाजार में बेची जा सके।

धनकर केवल व्यक्तियों को तथा अविभाजित हिंदू परिवारों को ही अदा करना पड़ता है और यह क्रमिक रूप से वृद्धिशील होता है। प्रारंभ में कंपनियों से भी इस कर का समान दर से उद्ग्रहण किया जाता था किंतु सन्‌ 1960-61 से कम्पनियों को इस से मुक्त कर दिया गया। करग्रहण के उद्देश्य से इन दोनों इकाइयों को स्थानिक और अनिवासी इन दो भागों में विभक्त कर दिया गया है। इस विभाजन का आधार वही है जो आयकर अधिनियम द्वारा निर्धारित है। करार्हता के निर्धारण में राष्ट्रीयता का भी विचार किया जाता है। सामान्यत: स्थानिक व्यक्तियों से उनके विश्वव्यापी शुद्ध धन के आधार पर कर ग्रहण किया जाता है। और अन्य लोगों से केवल उनके भारत में स्थित घन के आधार पर।

अधिनियम में कुछ इस प्रकार की परिसंपत्तियों की सूची दी गई है जो धनकर से मुक्त हैं और करार्ह धन के निर्धारण में जिन्हें बिल्कुल नहीं गिना जाता।

कोई इस ढंग की करसंधि वा समझौते की व्यवस्था नहीं है जिससे अंतरराष्ट्रीय दोहरा कराधान रोका जा सके अथवा करदाता को कुछ उन्मुक्ति दी जा सके और न ही अदा किए गए विदेशी शुद्ध धन सम्बंधी कर के लिए आकलन की ही कोई व्यवस्था है जैसी आयकर अधिनियम की धारा 91 में है। तब भी सामान्यत: स्थानिक नागरिकों को और अविभाजित हिंदू परिवारों को विदेशी शुद्ध धन पर तथा अनिवासी विदेशियों को देशीय शुद्ध धन पर 50% रियायत की व्यवस्था अधिनियम में है।

प्रशासन और प्रक्रिया संपादित करें

सामान्य रूप से धनकर अधिनियम में दी गई प्रशासन और प्रक्रिया सम्बंधी व्यवस्था पूर्णत: आयकर अधिनियम में दी गई व्यवस्थाओं की अनुसारिणी है। आयकर विभाग के प्राधिकारी ही धनकर विभाग का काम देखते हैं। इस प्रकार आयकर अधिकारी ही धनकर अधिकारी है। अन्य प्राधिकारी हैं¾निरीक्षक सहायक कमिश्नर, अपीलीय सहायक कमिश्नर धनकर का कमिश्नर और सब से ऊपर अपीलीय न्यायधिकरण। धनकर अधिकारी के निर्णय के सम्बंध में अपीलीय सहायक कमिश्नर के पास अपील की जा सकती है¾और वहाँ से अपीलीय न्यायधिकरण के पास से उच्च न्यायालय में ले जाई जा सकती हैं और वहाँ से उच्चतम न्यायालय में।

करदाताओं से यह अपेक्षा की जाती है कि वे प्रति वर्ष 30 जून के पूर्व लेखा स्वयं अधिकारियों के पास भेज दें। इस सम्बंध में उन्हें अधिकारियों से किसी प्रकार की सूचना की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए। शुद्ध धन का अंकन करके धनकर अधिकारी उस धन पर लगनेवाले कर का निर्धारण करता है। लेखे और दंड का पुनर्विलोकन किए जाने की भी अधिनियम में व्यवस्था है।

उपहारकर संपादित करें

उपहारकर अधिनियम 1958 के अधीन प्रथम बार भारत में उपहार कर की व्यवस्था की गई थी। यद्यपि यह अधिनियम 1 अप्रैल 1958 से व्यवहार में आया था किंतु 1 अप्रैल 1957 के बाद दिए गए उपहारों पर भी यह अधिनियम लागू होता था। उपहार कर के प्रवर्तन के पूर्व सामान्यत: उपहारों पर कोई कर नहीं लगता था किंतु आसन्न मृत्यु के आधार पर तथा मृत्यु के पूर्व दो वर्षो के अंदर दिए गए उपहारों पर संपदा शुल्क का उद्ग्रहण किया जाता था। उपहारकर संपदाकर का एक आवश्यक पूरक था।

उपहार की परिभाषा करते हुए कहा गया है कि किसी व्यक्ति द्वारा स्वेच्छा से विद्यमान चल अथवा अचल संपत्ति का अन्य व्यक्ति को, मूल्य का विचार किए बिना, दिया जाना उपहार है। यदि देनेवाला मूल्य या बदले में कोई वस्तु प्राप्त करता है तो उसकी तुलना में उपहार का खुले उपहार का खुले बाजार में जो अधिक मूल्य होगा, उसी पर कर लगाया जाता है (धारा 4)।

  • (1) सामान्यत: भारत में अवस्थित नागरिकों की भारत में स्थित अचल संपत्ति में से तथा कहीं भी स्थित चल संपत्ति में से दिए गए उपहारों पर कर उद्ग्रहण की व्यवस्था है।
  • (2) जो नागरिक भारत में अवस्थित नहीं हैं अथवा सामान्य रूप से अवस्थित नहीं हैं¾उनकी भारत स्थित चल अथवा अचल संपत्ति में से दिए गए उपहारों पर कर उद्ग्रहण की व्यवस्था है।
  • (3) बाह्यदेशीयों की की - चाहे वे कहीं के निवासी हों¾भारत स्थित वास्तविक अथवा चल संपत्ति में से दिए गए उपहारों पर कर लगाने की व्यवस्था है।

हिंदू अविभाजित परिवार, व्यक्तिसमवाय तथा कंपनियाँ : यदि ये देश में अवस्थित हैं तो इनकी भारत में स्थित अचल संपत्ति तथा कहीं भी स्थित चल संपत्ति में से दिए गए उपहारों पर कर उद्ग्रहण की व्यवस्था है। यदि ये आवासी नहीं हैं, तो उस स्थिति में उनकी भारत में स्थित चल अथवा अचल संपत्ति में से दिए गए उपहार करार्ह होंगे। सरकारी कम्पनियाँ, धर्मार्थ संस्थाएँ आदि इस ढंग के कुछ निश्चित समुदायों द्वारा दिए गए उपहार करमुक्त हैं।

प्रशासन और प्रक्रिया संपादित करें

आयकर अधिकारी ही उपहारकर का भी प्रशासन करते हैं और इसकी प्रक्रिया भी आयकर, धनकर व्ययकर की प्रक्रियाओं से बहुत मिलती जुलती है। आपत्ति उठाने, अपील करने वसूल करने तथा दंड आदि की प्रक्रियाएँ आयकर सम्बंधी प्रक्रियाओं के ही समान हैं।

लागू होने योग्य मुक्तियों का लाभ उठाने के बाद यदि किसी व्यक्ति ने गत वर्ष में करार्ह उपहार दिए हैं, तो उसे चाहिए कि वह अगले वर्ष के 30 जून तक उपहारकर सम्बंधी विवरण अधिकारियों के पास भेज दे। किसी भी स्थिति में गृहीता से अपेक्षा नहीं की जाती कि वह विवरण भेजे। इस प्रकार प्रस्तुत किए गए विवरण के आधार पर उपहारकर अधिकारी करनिर्धारण करता है। यदि उपहार कर चुकाने के पूर्व किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तो उसके वैधानिक प्रतिनिधि पर मृत प्रदाता की संपत्ति के विस्तार के आधार पर कर चुकाने का उत्तरदायित्व होगा।

व्ययकर संपादित करें

व्ययकर अधिनियम, 1957 के अधीन भारत में प्रथम बार अप्रैल, 1957 से व्ययकर की व्यवस्था की गई थी। बाद में कर निर्धारण वर्ष 1962-63 से यह समाप्त कर दिया गया था किंतु 1 अप्रैल 1964 से इसे पुन: प्रचलित कर दिया गया है। इसे आयकर के पूरक के रूप में माना जाता है जो संगत भी है।

व्यक्तियों द्वारा तथा हिंदू अविभाजित परिवारों द्वारा विगत वर्ष में किए गए व्यय पर यह कर वार्षिक रूप से लिया जाता है। कर प्रदाता कहाँ रहता है, उसकी राष्ट्रीयता क्या है और उसकी हैंसियत क्या है, इसका ध्यान रखते हुए उसके द्वारा विश्व में कहीं भी किए गए व्यय पर यह कर लगता है। इसमें भारत के अंतर्गत किया गया व्यय तथा भारतीय स्रोतों से भारत के अंतर्गत तथा भारत के बाहर किया गया व्यय सम्मिलित है। सामान्यत: 30,00 रुपए तक की एक मानक मोक या छूट के ऊपर के व्यय पर यह कर क्रमश: अधिक तेजी से बढ़नेवाले ढंग से लगाया जाता है।

'व्यय' की परिभाषा में बताया गया है कि वह धन अथवा धन के रूप में प्रयुक्त अन्य वस्तु जो खर्च की गई हो या वितरित की गई ऐसी कोई भी राशि जिसके व्यय अथवा वितरित किए जाने से व्यय करनेवाले पर किसी तरह की देयता या दायित्व आ पड़े, (धारा 2 ह) 'व्यय' की कोटि में मानी जाएगी।

इन्हे भी देखें संपादित करें

बाहरी कड़ियाँ संपादित करें