भूदृश्य वास्तुकला (landscape architecture) स्थल को मानव उपयोग और आमोद के लिये सुव्यस्थित करने और उपयुक्त बनाने की सृजनात्मक कला है। इसका उद्देश्य संपूर्ण विन्यास के फलस्वरूप, मानव मस्तिष्क को अत्यधिक प्रभावित करना और स्थल या संरचना से संबद्ध भावनात्मक प्रेरणाओं को संतुष्ट करना है, ताकि लोग अत्यधिक प्रशंसा करें। इसके अतिरिक्त भूदृश्य वस्तुकला के अंतर्गत भूदृश्य इंजीनियरी, भूदृश्य उद्यानकर्म और भलीभाँति आकल्पित चित्र विचित्र पार्क भी भूदृश्य वास्तुकला में सम्मिलित हैं।

भूदृष्य वास्तुकला का एक उदाहरण - न्यूयार्क का केन्द्रीय पार्क

उद्देश्य एवं परिचय

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भूदृश्य निर्माण में सुविधा मात्र का ही बहुत कम काम है यद्यपि पादपारोपण की उपयोगिता के अंतर्गत हवा रोकना, एकांत प्रदान करना, महत्व बढ़ाना और रंगीनी लाना आदि, सभी आ जाते हैं। आकल्पन का उद्देश्य महानता, सुंदरता और विविधता से पूर्ण दृश्यों के द्वारा चित्ताकर्षक पर्यावरण निर्माण करना है। इसकी सिद्धि स्थल, संरचना, स्थिति, वनस्पति और जलवायु के अनुसार कृत्रिम या नैसर्गिक आकल्प द्वारा, संगति अथवा विरोध उत्पन्न कर की जाती है। इसके अतिरिक्त यह कहना आवश्यक है कि इस सृजनात्मक शाखा के व्यावहारिक पक्ष का आधार यह मान्यता है कि उपयोगिता और सुंदरता परस्पर संगत और इनमें से कोई भी दूसरे के बिना पूर्ण नहीं है।

भूदृश्य वास्तुकला उन आकल्पों के लिये उपयुक्त नाम हो सकता है, जो व्यापक रूप से स्थल दृश्य को व्यावहारिक बनाते हैं, जैसा ली नोत्रे ने वरसाई के अद्वितीय उद्यानों में, जहाँगीर ने लाहौर अत्युत्तम विन्यासवाले दिलखुश बाग तथा कश्मीर के विश्वविख्यात मनोरम शालीमार बाग में और शाहजहाँ ने ताजमहल के गंभीर विन्यास और मनोहर परिवेश में किया था, अथवा जापानी माली अपने चाहगृहों के विचित्र स्वप्नलोकीय और आनंददायक परिवेश में करते हैं, या जैसा वर्तमान काल में मैसूर के वृंदावन उद्यान में, बंबई में सार्वजनिक आमोद लिये झूलते हूए बाग में मनोरम परिवेश में, जहाँ नगर के एक भाग के लिये बने हुए विशाल जलाशय की सतह का उपयोग किया गया है और टाटानगर के स्वर्ण जयंती उद्यान में है जो कारखाने में काम करनेवाले श्रमिकों का श्रमभार हलका करने के लिय अत्यंत व्यस्त औद्योगिक नगर में विश्राम योग्य परिवेश प्रदान करता है। अनुपम सौंदर्य और विनोद का विशालतम प्रांगण, न्यूयार्क का केंद्रीय पार्क, नगर ही नहीं वरन् सारे राष्ट्र के लिये गर्व का विषय है। उसमें परस्पर गुथी हुई सड़कों, मार्गो, वनस्पतियों और जलाशयों के साथ साथ सहज और वृक्काकार नमूने हैं। इन सब उदाहरणों में स्थलदृश्य निर्माण की व्यवस्था भवनों, छोटी छोटी संरचनाओं और विशेष आकृतिवाली सड़कों तथा मार्गो से की गई है। इनके साथ ही साथ सजावटी वृक्षों, फूल पत्तियों, जलविस्तार और झरनों, फुहारों, मूर्तियों, दर्शक मंडपों, बेंचों और विविध नमूनों तथा रंगोंवाली फर्शी सामग्री का उपयोग हुआ है।

पर्यावरण के मानवीकरण के लिये सारे के सारे नगर में ही स्थलदृश्य निर्माण की व्यवस्था होनी चाहिए। यह पश्चिम में बेबीलोन से लेकर वेरसाई तक के और भारत में अशोककाल से लेकर मुगल उद्यानों तक के ऐतिहासिक घटनाक्रम में कोड़ियों उदाहरणों से स्पष्ट है, जिनमें कृत्रिम या समस्थापित विन्यास के नमूनों का बाहुल्य था। औद्योगिक क्रांति काल में कुछ समय तक स्थलदृश्य निर्माण का महत्व भूला रहा, किंतु मानव मस्तिष्क और स्वास्थ्य पर यंत्रयुग का प्रतिकूल प्रभाव होने के कारण उद्यान नगरों, नगर सौंदर्य और हरित पेटी युक्त नगरियों का शक्तिशाली आंदोलन आरंभ हुआ, जिसमें चीन की खुली उद्यान शैली का समावेश हुआ। इस प्रकार नगर में और उसके आस पास स्थलदृश्य के उचित निर्माण के लिये उपयुक्त वातावरण तैयार हुआ।

एक और परिवर्तन यह दिखाई देता है कि जाल जैसी और अरवत् शैली के कृत्रिम विन्यास के स्थान पर स्थल रूपरेखा के अनुसार अकृत्रिम विन्यास आ गया, जिससे सतत प्रेरणा के लिये समस्त पर्यावरण का नित्य परिवर्तनशील दृश्य उपलब्ध होता है।

भूदृश्य के लिये आवश्यक विचार एवं योजना

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Orangery at the Palace of Versailles, outside Paris

उपयुक्त स्थलदृश्य निर्माण के लिये सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि सड़कों और गलियों, स्क्वायरों, चौराहों आदि जैसे नगर नियोजन के कुछ मौलिक तत्वों पर, इमारतों, दूकानों, दीपस्तंभों, टेलीफोन कोष्ठों और संकेतपटलों आदि संबंधी गौण तत्वों पर और राह चलते व्यक्ति की दृष्टि में आनेवाले नगर तथा इमारतों के क्षैतिज तथा उर्ध्वाधर दर्शन पर उचित विचार किया जाय। इनके अतिरिक्त स्थलविन्यास का सफल आकल्प चार बातों पर निर्भर है : समावरण, अनुरूपता या प्रतिकूलता, विस्मय और जल का उपयोग। ये सब मौलिक और गौण तत्वों के साथ मिलकर ऐसे उत्कृष्ट भूदृश्य आकल्प के लिये उपयुक्त आधार प्रस्तुत करते हैं, जिनमें नित्य परिवर्तनशील दृश्य की पूर्वकल्पना करनी पड़ती है।

पादप सामग्री के उपयोग के विषय में यह आवश्यक है कि नगर, उसके पड़ोस और पर्यावरण के लिये सौंदर्य एवं उपयोगिता से पूर्ण अभिकल्प तैयार किया जाए। इस उद्देश्य से एक पादपारोपण योजना बनानी चाहिए। इस संबंध में मार्ग-पार्श्व-वृक्षावलि का मुख्य प्रयोजन छाया प्रदान करना तथा वीथी दृश्य को सुसज्जित करना है। इसके लिये संपूर्ण वर्ष रंग बिरंगे फूलों का आकर्षक चित्रपटल बना रहना चाहिए सिंदूरी गुलमोहर के फूलों के व्यतिरेक के साथ गहरे पीले रंग का अमलतास लगाने से, मनोहर वृक्षावली तैयार हो सकती है और जैंकरैंडा मिमासीफोलिया (Jacaranda mimasefolia) के नीले फूल लगा देने से भी दृश्य और सूंदर हो जाता है।

निवासक्षेत्रों के आस पास सजावटी फूलोंवाले वृक्ष लगाना उपयुक्त है, जैसे कदंब, मौलश्री, कचनार, कूपीकूर्च (bottle brush), शीर चंपक, पारिजात, सीता, अशोक और माजू।

पार्क वर्ष भर सुंदर रहें, इसके लिये दो एक महीने तक खिलनेवाले मौसमी फूलों की अपेक्षा कैना (canna), सजावटी इग्जोरा (ixora), नील चित्रक (plumbago) और बारहमासी जिनिया (Zinnia) अधिक उपयुक्त हैं। इनके साथ साथ नारंगी रंग के दिल्ली गुलाब और अभिसुंदरा (gerbera) लताएँ लगा देने से वर्ष भर सुंदर लगनेवाला अद्भुत विन्यास तैयार होता है, जिसकी अनुरक्षण लागत बहुत कम होती है। मौसमी फूल लागाकर विन्यास में और भी प्रखरता लाई जा सकती है।

इस प्रकार वनस्पति और संरचना के अवकाश संबंध द्वारा व्यापक स्थलनिर्माण और अचर आमोद की श्रृखंला बनती है, जिससे मस्तिष्क को स्फूर्ति मिलती है और कार्य तथा संतोष की भावना को प्रोत्साहन मिलता है। जहाँ तक निवासस्थानों का संबंध है, बागवानी के तीन भेद किए जा सकते हैं : (1) फल-शाक-वाटिका, (2) पुष्प-वाटिका तथा (3) चित्र विचित्र बागवानी।

बागवानी के तीसरे प्रकार का उद्देश्य शोभा, सौंदर्य या विविधता पूर्ण दृश्यों से कल्पना को संतुष्ट करना है। इस संबंध में पुरातन मत यह था कि घर के चारों ओर एक उद्यान हो, जिससे प्रकृति और संरचना में निश्चित अलगाव रहे। यह विभाजन अत्यंत अनम्य था और जलवायु के अनुसार केवल इतना ही विकल्प था कि चाहे कोई छत के नीचे दीवारों से घिरा रहे और चाहे खुले उद्यान में प्रकृति के बीच रहे। इनकी अपेक्षा चीन और जापान के गहराई में बने बगीचे अच्छे होते हैं कि उनमें स्थल दृश्य के साथ साथ समावरण भी रहता है, जिससे एकांतता और आनंद प्राप्त होते हैं। किंतु आधुनिक प्रवृति बगीचा भीतर लाने की है, जिससे भीतर और बाहर के बीच विभाजन की योजना के सभी पुराने प्रयासों से उत्कृष्ट है, क्योंकि इससे घर के भीतर रहें या बाहर, प्रकृति की उपस्थिति के कारण आनंद, उल्लास और शांत मनोभाव अविच्छिन्न रहते हैं।

इस प्रकार की योजना में रात की रानी, रूक्मिणी, हरसिंगार जैस पौधे उधर रखने चाहिए जिधर से हवा आती हो, ताकि भवन में भीनी भीनी सुगंध पहुँचती रहे। भीतर की ओर मणि पादप (pathas oria), शतावरी आदि, ऐसे ही पौधों के गमले दर्शनतोष के लिये लगाए जा सकते हैं।

किंतु भूदृश्य वास्तुकला का उद्यानकर्म की ओर, जो समस्त उद्भिन सामग्री का मौलिक विज्ञान है, विशेष झुकाव रहता है और विशिष्ट प्रकार के पर्यावरण में मानव की भावनात्मक लालसा पूरी करने वाली स्थलदृश्य-निर्माणकला के जो अंतर्निहित अंग हैं, वे प्राकृतिक आकृतियों के साथ-साथ बागवानी कौशल पर निर्भर हैं। वहाँ घूमने फिरनेवाले प्रत्येक व्यक्ति के और उधर जानेवाली प्रत्येक आँख के, सामने विविध दृश्यों की श्रृखंला प्रदर्शित करनेवाला एक चित्रपटल सा खुल जाता है। इस प्रकार अन्वेषण और विस्मय का पुट पाकर वहाँ के उपागम, दृश्य और स्थानविभाजन का मूल्य बढ़ जाता है।

जब कभी मानवकृत और प्राकृतिक घटक कृष्य क्षेत्रों या आद्योगित केंद्रों के निकट चतुरता के साथ जमा दिए जाते हैं, तब यह मान लिया जाता है कि वह प्रकृति से मेल खाता होगा। ये प्रयास शुद्ध वायु, धूप, पानी, हरियाली, समीर और स्फूर्तिदायक उद्यानों और पार्को के रूप में प्रकृति को वापस नगरों में बुला लेते हैं। वास्तव में नगर स्वयं ही स्थलदृश्य का भाग हो जाता है। एक मंजिले मकान वृक्षों के बीच में विलीन हो जाते हैं, केवल ऊँची इमारतें दिखाई देती है। इस प्रकार निर्मित स्वाभाविक पर्यावरण में नगर स्थलदृश्य में होगा और स्थलदृश्य नगर में।