भू-संतुलन या समस्थिति (lsostasy) का अर्थ है पृथ्वी की भूपर्पटी के सतही उच्चावच के रूप में स्थित पर्वतों, पठारों और समुद्रों के उनके भार के अनुसार भूपर्पटी के नीचे स्थित पिघली चट्टानों के ऊपर संतुलन बनाए रखने की अवस्था।[1] [2]

सर जोर्ज ऐयरी का भूसंतुलन मॉडल

पृथ्वी का स्थलमण्डल अपने नीचे स्थित एस्थेनोस्फियर पर एक प्रकार से तैरता हुआ स्थित है और संतुलन के लिए यह आवश्यक माना जाता है कि जहाँ धरातल पर ऊँचे पर्वत या पठार हैं वहाँ स्थलमण्डल की मोटाई अधिक है और इसका निचला हिस्सा पर्वतों की जड़ों की तरह एस्थेनोस्फियर में अधिक गहराई तक घुसा हुआ है।[3] पर्वतों के नीचे स्थलमण्डल के इस नीचे एस्थेनोस्फियर में प्रविष्ट भाग अथवा समुद्रों के नीचे कम गहराई तक घुसे भाग के संतुलन की व्यख्या करने वाले तीन मॉडल प्रस्तुत किये गए हैं।

आइसोस्टैसी शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम क्लैरेंस डटन (Clarence Dutton) ने 1889 में किया था।[4]

 
एयरी और प्रात की परिकल्पनाओं का ग्राफीय निरूपण - बायें- एयरी की परिकल्पना ; दायें - प्रात की परिकल्पना। संख्याएं क्रस्ट और मैण्टिल का औसत घनत्व (किग्रा/घन मीटर) दिखा रही हैं।

इस तथ्य का उद्भव सन्‌ 1859 में उत्तरी भारत के त्रिकोणमितीय सर्वेक्षण के समय हुआ। कल्याण जो हिमालय की तलहटी में स्थित है और कल्याणपुर की, जो उससे लगभग 375 मील की दूरी पर स्थित है, दूरी त्रिकोणमितीय सर्वेक्षण से ज्ञात की गई। इस दूरी और खगोलात्मक आधार पर ज्ञात दूरी में पाँच सेकंड (500 फुट) का अंतर पड़ा। यह अंतर हिमालय के आकर्षण के फलस्वरूप था, जिसका प्रभाव साहुल रेखा (plumb line) पर पड़ा और वह एक ओर को हट गया। प्राट (Pratt) ने बतलाया कि विशाल हिमालय के प्रभाव से इस दूरी में 15 सेकंड का अंतर पड़ना चाहिए था। अत: यह प्रश्न उपस्थित हुआ कि किन कारणों से हिमालय पर्वत का पूरा प्रभाव साहुल सूत्र पर नहीं पड़ा। इस त्रुटि को इस मान्यता के आधार पर समझाया गया कि पर्वतों के नीचे पृष्ठीय क्षेत्र में संहति की कमी है, अर्थात गहराई तक शिलाओं का धनत्व अपेक्षाकृत कम है।

भूसंतुलनवाद के अनुसार विशाल भू-रचनाएँ, जैसे ऊँची-ऊँची पर्वतमालाएँ, पठार, मैदान आदि, संतुलन की अवस्था में रहते हैं। चिप्पड़ की इन भिन्न भिन्न इकाइयों का भार समुद्र की सतह से नीचे एक समतल पर समान है। इसे भूदाबपूर्ति स्तर (compensation level) कहा जाता है। इस विचारधारा को समझाने के लिये एयरी ने पानी पर तैरते हुए लकड़ी के लट्ठों का उदाहरण रखा। इन लट्ठों की अनुप्रस्थ काट तो समान होनी चाहिए, पर लंबाई भिन्न हो सकती है। पानी में संतुलन की अवस्था में मोटे लट्ठे पतले लट्ठों की अपेक्षा जल से ऊपर अधिक ऊँचाई तक निकले रहते हैं और जल के नीचे भी अधिक गहराई तक डूबे रहते हैं। पृथ्वी का पृष्ठभाग भी अपने से अधिक धनत्ववाले अध:स्तर पर बर्फ की भाँति तैर रहा है। ऊँची ऊँची पर्वतमालाओं की जड़ें इसमें अधिक गहराई तक चली गई है। आधुनिक गवेषणओं से इस बात की पुष्टि भी हुई है। भूकंप लहरों के अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि पर्वतमालाओं के नीचे सियाल (sial) पदार्थ लगभग 40 किमी0 या उससे भी अधिक गहराई तक विद्यमान है। मैदानों के नीचे की मोटाई 10 से 12 किमी0 तक है और सागरतल के नीचे तो यह पर्त बहुत ही पतली है और कहीं कहीं पर तो विद्यमान भी नहीं है।

प्रात के अनुसार पृथ्वी की सतह पर की अनियमितताएँ इकाई क्षेत्रों के भिन्न भिन्न धनत्वों के कारण हैं। इसे समझाने के लिये आपने निम्नलिखित उदाहरण दिया। समान अनुप्रस्थ काटवाले, किंतु भिन्न भिन्न धातुओं के, खंडों को पारद से भरे बर्तन में रखने पर सभी खडों के नीचे का भाग एक समतल में रहता है, क्योकि वे सभी समान मात्रा में पारद का विस्थापन करते हैं, पर पारे से ऊपर भिन्न धातुओं के खंडों की ऊँचाई भिन्न भिन्न रहती है। हाइसकानेन के अनुसार घनत्व ऊँचाई के साथ विचरता है। ऊपर जाने पर वह कम होता है और नीचे जाने पर बढ़ता है। सागरतल पर यह 2.76 ग्राम प्रति धन सेंमी0 और नीन किमी0 ऊँचाई पर 2.70 ग्राम प्रति धन सेंमी0 होता है। किसी भी स्तंभ में हलकी शिलाओं में घनत्व एक किलोमीटर पर 0.004 ग्राम प्रति घन सेंमी0 बढ़ता हैं और भारी शिलाओं में इससे आधी गति से। अत: भूदाबपूर्ति स्तर पर सब जगह समान भार पड़ता है। घनत्व के विचरण पर आधारित यह वाद भौमिक दृष्टि से उपयुक्त है।

समस्थितिक संतुलन के मॉडल

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वर्तमान समय में समस्थिति या भू-संतुलन के तीन मॉडल हैं:

एयरी की व्यख्या

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प्राट की व्याख्या

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हैफोर्ड और बोवी के विचार है फोर्ड तथा बोवी दोनों प्राट के विचारो से सहमत होते हुए अपना अलग मत प्रतिपादित किया |हैफोर्ड के अनुसार पृथ्वी के नीचे अलग अलग भाग विद्यमान है ,परन्तु धरातल के नीचे एक निश्चित गहराई पर एक ऐसा तल है जिसके नीचे घनत्व में कोई अन्तर नही पाया जाता ,इसे समतोल तल या Level of compensation कहा जाता है इस तल के उपर घनत्व तथा उचाई में उल्लटा अनुपात पाया जाता है | Level of copnsation धरातल से १०० किलोमीटर की गहराई पर माना जाता है ,इस तल के उपर कम घनत्व की चट्टनो की उचाई अधिक और अधिक घनत्व की चट्टानों की उचाई कम होती है |

बोवी महोदय एयरी और प्राट के सिद्धांतो का तुलनात्मक अध्ययन कर स्पष्ट किया की दोनों के विचारो में एकरूपता तो नही लेकिन समानता जरूर है |इन्होने हैफोर्ड के समतोल तल का समर्थन किया |इनके अनुसार क्षति पूर्ती तल १२० किलोमीटर की गहराई पर है |यह प्रमाणित है कि प्रत्येक ३२ मीटर की गहराई पर १ डिग्री सेंटीग्रेड ताप बढ़ जाता है |इतनी गहराई पर चट्टानों का द्रव्नांक आ जाने से चट्टानें पिघल जायेगी |इस लिए क्षति पूर्ति तल काल्पनिक है|

प्लेट विवार्तानिकी और भूसंतुलन

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  1. इण्डिया वाटर पोर्टल Archived 2014-11-29 at the वेबैक मशीन पर
  2. भारत एवं विश्व का भूगोल Archived 2014-11-29 at the वेबैक मशीन गूगल पुस्तक
  3. माज़िद हुसैन, भूगोल शब्द संग्रह Archived 2014-11-29 at the वेबैक मशीन, गूगल पुस्तक
  4. "Clarence Edward Dutton" (PDF). 1958. मूल (PDF) से 11 अक्तूबर 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 19 November 2014.

बाहरी कड़ियाँ

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