वह श्लोक अथवा पद्य जो शुभ कार्य के पहले मंगल कामना से पढ़ा या कहा जाता है, उसे मङ्गलाचरण कहते हैं। अर्थात किसी का कार्य श्रीगणेश करने से पहले पढ़ा जानेवाला कोई मांगलिक मंत्र, श्लोक या पद्यमय रचना। प्रायः ग्रन्थों के आरम्भ में उनकी सफल समाप्ति के निमित्त श्लोक या पद्य लिखा जाता है।

उदाहरण के लिए, गोस्वामी जी ने प्रायः सर्वत्र शिव जी की या गणेश जी की वन्दना की है।

गाइए गनपति जगवन्दन
शंकर सुवन भवानी के नन्दन ॥
सिद्धि सदन गजवदन विनायक ।
कृपा सिन्धु सुन्दर सब लायक ॥
मोदक प्रिय मुद मंगल दाता ।
विद्या बारिधि बुद्धि विधाता ॥
मांगत तुलसिदास कर जोरे ।
बसहिं रामसिय मानस मोरे ॥

कुछ पुस्तकों में मंगलाचरण नहीं है। कुमार-सम्भव जैसी कृति में कालिदास ने मंगलाचरण नहीं किया और निम्नलिखित पंक्तियों से आरम्भ किया-

अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः।
(अर्थ - भारत की उत्तर दिशा में हिमालय नाम का एक बहुत बड़ा पर्वत है। )

परन्तु फिर भी कुछ टीकाकारों ने कहा कि मंगलाचरण तो हो गया! वस्तु-निर्देश भी मंगलाचरण है।

प्रायः ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषय से मंगलाचरण का सामंजस्य होता है। जैसे शृंङ्गारात्मक काव्य में बिहारी ने राधा-कृष्ण का स्मरण किया है-

मेरी भव-बाधा हरौ राधा नागरि सोइ।
जा तन की झाँईं परैं स्यामु हरित दुति होइ॥

प्रमुख ग्रन्थों के मंगलाचरण संपादित करें

महाभारत

महाभारत का मंगलाचरण इसके सबसे प्रसिद्ध श्लोकों में है। इसमें महाभारतकार ने ‘नारायण, नर और नरोत्तम, सरस्वती देवी, और स्वयं (व्यास) को’ नमस्कार किया है।

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ।।

मंगलाचरण का श्‍लोक देखने पर ऐसा जान पड़ता है कि यहाँ नारायण शब्‍द का अर्थ है भगवान श्री कृष्‍ण और नरोत्‍तम का अर्थ है नर अर्जुन। महाभारत में प्रायः सर्वत्र इन्‍हीं दोनों का नर-नारायण के अवतार के रूप में उल्‍लेख हुआ है। मंगलाचरण में ग्रन्‍थ के इन दोनों प्रधान पात्र तथा भगवान के मूर्ति-युगल को प्रणाम करना मंगलाचरण को नमस्‍कारात्‍मक होने के साथ ही वस्‍तु निर्देशात्‍मक भी बना देता है।

रामायण


रघुवंशम्
वागार्थाविव संपृक्तौ वागर्थः प्रतिपत्तये ।
जगतः पितरौ वंदे पार्वतीपरमेश्वरौ ॥
अर्थ - "मैं वाणी और अर्थ की सिद्धि के निमित्त, वाणी और अर्थ के समान मिले हुए जगत् के माता पिता पार्वती और शिव को प्रणाम करता हूँ।" इसमें पार्वती और शिव की वन्दना है। उन्हें जगत का माता-पिता कहकर शिव को 'परमेश्वर' कहा है।
सूर्यसिद्धान्त
अचिन्त्याव्यक्तरूपाय निर्गुणाय गुणात्मने ।
समस्तजगदाधारमूर्तये ब्रह्मणे नमः ॥

सूर्यसिद्धान्त के प्रथम श्लोक में रचनाकार ने ब्रह्म को नमस्कार करते हुए उसे अचिन्त्य, अव्यक्तरूप, निर्गुण, गुणात्मन, और समस्त जगत का आधार बताया है।

श्रीमद्भागवत्पुराण
जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतः चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट् ।
तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ति यत् सूरयः ।
तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गोऽमृषा ।
धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं सत्यं परं धीमहि । १ ॥
जिससे इस जगत् की सृष्टि, स्थिति और प्रलय होते हैं — क्योंकि वह सभी सद्रूप पदार्थों में अनुगत हैं और असत् पदार्थों से पृथक् है; जड़ नहीं, चेतन है; परतन्त्र नही, स्वयंप्रकाश है, जो ब्रह्मा अथवा हिरण्यगर्भ नहीं प्रत्युत उन्हें अपने संकल्प से ही जिसने उस वेदज्ञान का दान किया है, जिसके सम्बन्ध में बड़े-बड़े विद्वान् भी मोहित हो जाते हैं। जैसे तेजोमय सूर्यरश्मियों में जल का, जल में स्थल का और स्थल में जल का भ्रम होता है, वैसे ही जिसमें यह त्रिगुणमयी जाग्रत्-स्वप्न-सुषुप्तिरूपा सृष्टि मिथ्या होनेपर भी अधिष्ठान-सत्ता से सत्यवत् प्रतीत हो रही है, उस अपनी स्वयंप्रकाश ज्योति से सर्वदा और सर्वथा माया और मायाकार्य से पूर्णतः मुक्त रहनेवाले परम सत्यरूप परमात्मा का हम ध्यान करते हैं ॥ १ ॥
गणितसारसंग्रह
अलङ्घ्यं त्रिजगत्सारं यस्यानन्तचतुष्टयम् ।
नमस्तस्मै जिनेन्द्राय महावीराय तायिने ॥ १ ॥
सङ्ख्याज्ञानप्रदीपेन जैनेन्द्रेण महात्विषा ।
प्रकाशीितं जगत्सर्वं येन तं प्रणमाम्यहम् ॥ २ ॥
रामचरितमानस
वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ।।१।।
(भावार्थ : वर्णों (अक्षरों), अर्थ समूहों, रसों, छन्दों और मंगलों को करने वाली सरस्वतीजी और गणेशजी की मैं वन्दना करता हूँ।)
भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाःस्वान्तःस्थमीश्वरम्॥२॥
(भावार्थ : श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप श्री पार्वतीजी और श्री शंकरजी की मैं वन्दना करता हूँ, जिनके बिना सिद्धजन अपने अन्तःकरण में स्थित ईश्वर को नहीं देख पाते।)

सन्दर्भ संपादित करें

इन्हें भी देखें संपादित करें